अपनी म्यांमार यात्रा के दौरान प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर की मजार पर जाकर अकीदत पेश करके हिन्दोस्तान के उस महानायक को स्वतन्त्र भारत के देशवासियों की तरफ से इसके उस वकार को बुलन्द रखने का अहद किया है जिसके लिए शहंशाह ने अपनी ढलती उम्र में भी अंग्रेजों के खिलाफ हुई क्रान्ति की रहनुमाई की थी। बेशक बहादुर शाह मुगलिया सल्तनत के सबसे कमजोर बादशाह थे मगर उनके दिल में अंग्रेजों को भारत से बाहर करने की जबर्दस्त तड़प थी आैर इसके लिए उन्होंने 1857 में भारत की सभी हिन्दू–मुस्लिम रियासतों में एकता की अलख जगाई थी। उनके इस फरमान को पूरे भारत में इस स्वतन्त्रता संग्राम का अनाम नायक मौलवी अहमद शाह सभी राजे–रजवाड़ों के दर पर जाकर संगठित होने की भावना भर रहा था और एेलान कर रहा था कि हिन्दोस्तान पर हक केवल हिन्दोस्तानियों का ही है।
यह बेवजह नहीं था कि कवियित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने बादशाह की उम्र को देखते हुए ही प्रतीकात्मक रूप से अपनी कविता लक्ष्मीबाई में ये पंक्तियां लिखी थीं कि “बूढे़ भारत में आयी फिर से नई जवानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी’’ आज की पीढ़ी के यह सोच कर भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि किस प्रकार शहंशाह ने अंग्रेजों के जुल्मों को सहन किया था और भारत मंे हिन्दू–मुस्लिम इत्तेहाद बनाये रखने की आखिरी दम तक कोशिश की थी। जबकि उनका निजाम सिर्फ लाल किले की चारदीवारी से बाहर बसे शहर तक सीमित रह गया था और हर हुक्म अंग्रेज कम्पनी बहादुर का चलता था जिस पर मुहर सिर्फ शहंशाह की लगती थी। इसके बावजूद अंग्रेजों ने उनके शहजादे के सिर एक थाल में सजा कर भरे दरबार में उन्हें यह कह कर भेजे थे कि शाहे हिन्दोस्तान को कम्पनी बहादुर की तरफ से तरबूजों का नजराना भेजा गया है। उस लाचार बादशाह ने जब अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध की कमान संभाली होगी तो उसकी मनः स्थिति क्या होगी। हिन्दोस्तान की तवारीख चीख–चीख कर ऐलान करती है कि अंग्रेजों ने अपने जुल्मों-सितम की इन्तेहा हिन्दू और मुसलमानों दोनों पर ही बराबर की रफ्तार से नाजिल की थी।
मगर बहादुर शाह जफर लगातार यह कोशिश करते रहे कि हिन्दू–मुसलमान संगठित रहें और दोनों के हकूक बराबर हों। यही वजह थी कि बादशाह ने दिल्ली मे‘ रामलीलाओं का चलन शुरू कराया और इसके लिए उस समय के नगर सेठ चुन्नामल खत्री की सदारत में इसके आयोजन को लालकिले के पीछे ही बहती जमुना नदी के तट का चयन किया। गोस्वामी तुलसीदास ने वाराणसी में गंगा के तट पर रामलीला खेलने की प्रथा शुरू कराई थी। उसी तर्ज पर दिल्ली में रामलीला (जिसे आज बड़ी रामलीला कहा जाता है) शुरू की गई और झांकियां निकालने की प्रथा शुरू की गई।
दिल्ली की जामा मस्जिद के जेरे साया ये झांकियां निकाली जाती थीं जिनका स्वागत मुसलमान नागरिक भी पूरे जोश–खरोश से करते थे। यह परंपरा अभी तक जारी है। हम अपने गौरवशाली इतिहास से कुछ सीख सकते हैं तो यह सीखें कि तालीम और जुबान पर कभी किसी कौम का एकाधिकार नहीं रहा। चाहे हिन्दी हो या उर्दू ये हिन्दोस्तानियों की भाषाएं रहीं और इनमें इलाम हासिल करने वाले दोनों ही समुदायों के लोग रहे। आज के हिन्दोस्तानियों को अचम्भा हो सकता है कि इसी मुल्क में कभी हिन्दू भी मौलवी हुआ करते थे। यह परंपरा पचास के दशक के शुरू तक भारत में रही जिसका प्रमाण यह है कि इलाहाबाद के मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी ने अपने मित्र मदन की तारीफ में यह शेर लिखा,
“रखी है शेख ने दाढ़ी सफेद सन्त की सी,
मगर वह बात कहां मौलवी मदन की सी।”
इतना ही नहीं संस्कृत के महाविद्वान महापंडित राहुल सांकृत्यायन को उर्दू भाषा का ज्ञान आगरा के मौलवी महेश प्रसाद ने कराया था। दाराशिकोह के जमाने से लेकर उनके बाद न जाने कितने संस्कृत विद्वान मुसलमान तालिब हुए। स्वयं दाराशिकोह अरबी और संस्कृत का महाविद्वान था जिसने वैदिक ज्ञान की रोशनी चारों तरफ बिखेरी। बहादुर शाह जफर भी हिन्दोस्तान की तहजीब के इस कदर दीवाने थे कि खान–पान से लेकर यहां के रीति–रिवाजों और त्यौहारों को बिना हिन्दू–मुस्लिम का रंग देख कर मनाते थे। यह मुगलिया सल्तनत के इस आखिरी दौर का असर ही था कि चांदनी चौक की अंग्रेजों के पास रहन रखी फतेहपुरी मस्जिद को 36 हजार रुपये देकर शहर के हिन्दू सेठ ने छुड़ाया था। वहीं बहादुर शाह जफर जो आज अपने मुल्क से बहुत दूर यंगून की एक कब्र मे सोया पड़ा है, जरूर सोच रहा होगा कि कौन गद्दार उसके मुल्क में पैदा हुआ जिसने उसके प्यारे हिन्दोस्तान के दो टुकड़े करा डाले और वह भी हिन्दू–मुसलमान के नाम पर। मोहम्मद अली जिन्ना बहादुर शाह जफर का सबसे बड़ा गुनहगार है जिसने इस मुल्क के इतिहास को 1947 में खूंरेजी से भर डाला। यंगून में शहंशाह की कब्र से आज भी यही आवाज हर हिन्दोस्तानी के हौसले को पुरजोश रखती है कि,
“गाजियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की,
तख्ते लन्दन तक चलेगी तेग हिन्दोस्तान की।”
प्रधानमन्त्री ने बादशाह की मजार पर जाकर सभी हिन्दोस्तानियों को पैगाम दिया है कि हमारी रगों में वह खून दौड़ता है जिसने सैकड़ों साल पहले भी मुल्क को मजबूत बनाने के लिए अपनी हस्ती दांव पर लगा दी थी। इस हकीकत के बावजूद कि ग्वालियर का मजबूत रजवाड़ा अंग्रेजों के साथ खड़ा हुआ था और बादशाह की फौजों के खिलाफ डटा हुआ था। तभी तो सुभद्रा कुमारी चौहान ने लिखा था कि
“अंग्रेजों के मित्र सिन्धिया ने छोड़ी रजधानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।”