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समलैंगिक विवाहों का निषेध हो

समलैंगिक विवाहों को मान्यता देने के मुद्दे पर समस्त भारत के लोग एक स्वर से इसके विरोध में जाने के हिमायती हो सकते हैं क्योंकि केवल भारतीय संस्कृति में ही नहीं अपितु समूची मानव सभ्यता का विकास ही स्त्री-पुरुष के मिलन के आधार पर ही टिका हुआ है। स्त्री-पुरुष के बीच के सम्बन्धों को केन्द्र मे  रखकर ही परिवार की परिकल्पना की गई जिसका विस्तार समाज से भिन्न राष्ट्रों तक में होता गया। समलैंगिक विवाह ही प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध ऐसा कदम है जो समूचे समाज को ‘आवारगी’ में बदल देता है। प्रगतिशीलता का अर्थ यह कभी नहीं हो सकता कि हम बबूल के वृक्ष लगाकर उस पर आम के फलों की बहार का नजारा करें। अंध यूरोपीय या पश्चिमी नकल को प्रगतिशीलता कतई नहीं कहा जा सकता मगर इसके पक्ष में दलील देने वाले लोग जब धार्मिक मान्यताओं का सहारा लेने लगते हैं तो वे अपनी वैज्ञानिक दृष्टि वहीं त्याग देते हैं और अंधविश्वासी हो जाते हैं। नवसृजन केवल दो विपरीत ध्रुवों के मिलने से ही संभव है। पूरा विज्ञान इसी सिद्धान्त पर टिका हुआ है।

समलैंगिक ‘सेक्स’ को अपराध की श्रेणी से बाहर करने का अर्थ यह कहां हो जाता है कि ऐसे दो व्यक्ति किसी परिवार की संरचना भी कर सकते हैं। परिवार की परिभाषा पति-पत्नी व सन्तान से होती है। यदि हम परिवार की संस्था को मिटा कर समाज में अराजकता को स्थापित करना चाहते हैं परिवार को ही सबसे पहले समाज की सबसे छोटी इकाई के रूप मं मिली मान्यता को रद्द करना होगा। इसके साथ ही भारत के हर उस घरेलू कानून से लेकर सामाजिक-आर्थिक सन्दर्भों के कानूनों को रद्द या संशोधित करना पड़ेगा जो भारतीय विधान के हिस्सा हैं। कोई भी व्यक्ति अविवाहित रहने का फैसला कर सकता है और अपनी विरासत को किसी भी अपने प्रिय को सौंपने की इच्छा जाहिर कर सकता है परन्तु पत्नी या पति का स्थान किसी समलैंगिक व्यक्ति को नहीं दे सकता। अतः सर्वोच्च न्यायालय में केन्द्र सरकार की ओर से जो हलफनामा समलैंगिक विवाह के खिलाफ दायर किया गया है उसका समर्थन प्रत्येक नागरिक को करना चाहिए। इसके लिए हमें ऋषि-मुनियों के इतिहास तक जाने की भी जरूरत नहीं है बल्कि केवल अपने इतिहास तक ही जाने की जरूरत है क्योंकि किसी भी व्यक्ति का जन्म माता-पिता से ही संभव होता है। जब किसी मनुष्य का खुद का अस्तित्व विषम लैंगिक सम्बन्धों का ही परिणाम है तो वह किस प्रकार अपनी विरासत को नकारते हुए एक मानव के दायित्वों का निर्वाह कर सकता है?

मानव का दायित्व अपने समाज के प्रति सर्वप्रथम यह होता है कि वह इसके उत्थान व प्रगति का उत्प्रेरक बनें। जब मानव प्रजनन की क्षमता ही समाज से चूक जायेगी तो विकास किसका होगा? विज्ञान ने अभी तक जितने भी विकास किये हैं उनके मूल में मानव की आवश्यकता ही रही है जिसकी वजह से विश्व ने प्रगति के सौपान चढ़े हैं परन्तु जब यह ठान लिया जाये कि स्त्री या पुरुष के मिलन के बिना भी विकास हो सकता है तो समूचा चराचर जगत एक भुतहा जंगल में परिवर्तित हो जायेगा जिसे न विकास की जरूत होगी और न ही प्रगति की। यह सोच ही स्वयं में मानवता विरोधी है क्योंकि प्रकृति जन्य रति संभोग प्रक्रिया के विरुद्ध ऐसा आख्यान खड़ा होगा जिसमें बजाये ‘गति’ के ‘ठहराव’ की संस्तुति समाहित है और  ठहराव का मतलब ही सड़ांध होता है। अतः समलैंगिक विवाह समाज में सिवाये सड़ांध के अन्य किसी प्रकार की खुशबू पैदा नहीं कर सकता। स्त्री के रूप में प्रकृति ने मानव सभ्यता को जो अद्भुत विकास की भेंट दी है उसे नकारना केवल आत्म विनाश के अलावा और क्या हो सकता है? सर्वोच्च न्यायालय ने इस दुरूह विषय पर विचार करने के लिए पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ बनाने की घोषणा की है जो इस विषय के विभिन्न आयामों पर विचार करने के बाद अपना फैसला देगी परन्तु सरकार का यह कहना भी है कि इस मामले को संसद पर छोड़ दिया जाना चाहिए। यह तर्कसंगत इसलिए जान पड़ता है कि संसद में भारत के सभी सम्प्रदायों, वर्गों, क्षेत्रों व लिंगों के प्रतिनिधि जनता द्वारा चुनकर आते हैं और वे इस बारे में जनता के विचारों को प्रकट कर सकते हैं। जाहिर तौर पर यह मुद्दा राजनैतिक नहीं है और विशुद्ध रूप से सामाजिक है। अगली पीढि़यों का भविष्य संवारने की जिम्मेदारी भी मूल रूप से संसद की होती है अतः आधिवासी समाज से लेकर महानगरों के शहरीकृत समाज की चेतना की हिस्सेदारी ऐसे मामले में महत्वपूर्ण स्थान रखती है।