लगता है महाराष्ट्र का राजनैतिक ‘तमाशा’ अब जल्दी ही खत्म होने वाला है क्योंकि सांझा तौर पर विधानसभा में ताजा चुनावों के बाद बहुमत में आयी भाजपा व शिवसेना दोनों ही पार्टियों ने अपने-अपने विधायक दल के नेताओं का चुनाव कर लिया है। शिवसेना द्वारा आज ही बैठक करके वरिष्ठ नेता एकनाथ शिन्दे को विधायक दल का नेता बनाना भीतरखाने की कहानी का काफी कुछ बयान करता है। इसका मतलब यह निकलता है कि यह पार्टी भाजपा के साथ मिल कर सरकार बनाने की अपनी शर्तों में ढील छोड़ने के लिए तैयार है।
दूसरी तरफ भाजपा ने श्री फडणवीस को ही अपना नेता पुनः चुन लिया है। शिवसेना ने अपने युवा नेता आदित्य ठाकरे को पीछे रख कर ढील देने का संकेत दे दिया है। ऐसा होना भी तय था क्योंकि शिवसेना जिस तरह भाजपा के साथ ढाई-ढाई साल का मुख्यमन्त्री बनाने की शर्त पर अड़ी हुई थी वह निपट व्यापारिक सौदा ही था। राजनीति को सीधे व्यापार में बदलने की यह सीनाजोरी भी कोई क्षेत्रीय दल ही अपेक्षाकृत रूप से आसानी से कर सकता है क्योंकि उसका सारा खेल सत्ता प्राप्त करने पर अपने समर्थकों को रेवडि़यां बांटने पर टिका रहता है।
यह बहुत ही दर्दनाक है मगर हकीकत है कि आज की राजनीति सीधे खुले में लगे ‘हाट’ की तरह हो गई है जिसमें मोल-तोल भी खुले में ही होता दिखाई पड़ता है। बेशक इसकी शुरूआत भी राजनीति में क्षेत्रीय दलों के प्रभाव बढ़ने के समानान्तर ही हुई है। परन्तु राष्ट्रीय दलों ने इस बहती गंगा में स्नान करने से परहेज नहीं किया है। उत्तर प्रदेश में सपा व बसपा के उदय के बाद ऐसी बाजारू राजनीति की शुरूआत हुई और बाद में इसका प्रयोग कर्नाटक में भी हुआ। फिर तो यह राजनीति में साझा सरकारों के गठन का एक स्वीकार्य नियम सा बनता चला गया और जम्मू-कश्मीर जैसे संजीदा राज्य में भी इसका प्रयोग हुआ।
ऐसे सहयोगी सत्ता समीकरणों के परिणाम कभी भी जनमूलक नहीं हो सकते क्योंकि इनका गठन ही अपने-अपने दलों के हित साधने के लिए होता है। ऐसे गठबन्धनों का कार्यक्रम भी एक समान नहीं हो सकता क्योंकि सत्ता के कार्यकाल का आधा समय बीत जाने के बाद इसकी कमान दूसरे दल के नेता के हाथ में आ जाती है। मूल रूप से यह व्यवस्था गठबन्धन की सामूहिक जिम्मेदारी के ही खिलाफ है। महाराष्ट्र के मामले में तो सरकार गठन को लेकर खुली सौदेबाजी हो रही है और यहां तक कहा जा रहा है कि महत्वपूर्ण मन्त्रालयों के आवंटन पर भी ले-दे हो रही है। ऐसी स्थिति से आम जनता के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जिन राजनैतिक दलों के प्रत्याशियों को उन्होंने अपना वोट देकर उन्हें अपना प्रतिनिधि चुना है, वे किसी व्यापारिक संस्थान की ओर से चुनाव में उतारे गये थे अथवा राजनैतिक संगठनों की ओर से?
संसदीय लोकतन्त्र में बिना किसी शक के चुनाव जनता से मिले जनादेश के अनुरूप सरकार बनाने के लिए ही होते हैं जिससे लोकप्रिय शासन काबिज हो सके, मगर यह लोकप्रियता किसी भी प्रकार की सौदेबाजी की मोहताज कैसे हो सकती है जबकि चुनावों से पहले ही दो या दो से अधिक कुछ दल मिलकर संयुक्त रूप से जनता के दरबार में जाकर बहुमत पाने की अर्जी लगाते हैं। ये राजनैतिक दल जनता से पूछ कर अपना गठबन्धन नहीं बनाते हैं बल्कि इस अपेक्षा के साथ बनाते हैं कि उनके साझा मंच को जनता मजबूत विकल्प समझ कर उन्हें सत्ता देने के योग्य समझेगी। सरकार बनाने में संख्या गणित केवल संवैधिक शर्तों को पूरा करने के लिए काम करता है।
इसके पूरा हो जाने पर संख्या से उपजी शक्ति का उपयोग सिर्फ उन जन अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए ही होना चाहिए जिनका वादा राजनैतिक दल चुनावी मैदान में करते हैं। महाराष्ट्र में अजीबोगरीब नजारा पिछले सात दिनों से बना हुआ है। 24 अक्टूबर को ही मतदाताओं ने भाजपा शिवसेना की ‘महायुति’ को पूर्ण बहुमत दे दिया था परन्तु अगले मुख्यमन्त्री पद पर बैठने को लेकर दोनों ही पार्टियां इस तरह तलवारें खींचती रही जैसे 21वीं सदी में फिर से मराठा-मुगल युद्ध हो रहा है। संसदीय प्रणाली में राजनैतिक युद्ध के भी कुछ नियम-कायदे होते हैं और एकसाथ मिल चुनाव लड़ने वाले गठबन्धन में शामिल दलों का कुछ नैतिक दायित्व भी होता है, मगर पिछले सात दिन से शिवसेना ने जो रुख अख्तियार किया हुआ है उसे देख कर यही कहा जा सकता है कि इसके लिए सत्ता प्रतिष्ठानों में अधिक से अधिक भागीदारी पाने के लिए हर काम जायज है।
इसी वजह से ‘पल में तोला पल में माशा’ होते हुए कभी नोटबन्दी पर तो कभी जीएसटी पर और कभी कश्मीर पर भाजपा की जम कर आलोचना करने लगी। यह सब तमाशा इसीलिए हो रहा था जिससे अगर ढाई साल के मुख्यमन्त्री पर सौदा नहीं पटा तो कम से कम बढि़या मलाईदार मन्त्रालयों पर तो बात बन जाये। संयोग से मन्त्रालयों के बारे में ‘मलाईदार’ विशेषण की खोज भी शिवसेना ने ही की थी। इसकी खोज स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी एनडीए सरकार के समय स्वयं स्व. बाल ठाकरे ने की थी जब उस सरकार में शिवसेना के सांसदों को भारी उद्योग जैसे मन्त्रालय पकड़ा दिये गये थे। दरअसल यह ऐसा गंभीर मसला है जिसका सम्बन्ध समूची राजनैतिक प्रणाली से जुड़ा हुआ है लेकिन महाराष्ट्र के सन्दर्भ में भाजपा-शिवसेना सरकार का गठन ही होना है क्योंकि और कोई दूसरा विकल्प ही नहीं है। अतः सारा कार्य व्यापारिक तौर-तरीके से होना तय है।