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सर्वोपरि राष्ट्र का मूल सिद्धान्त

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मुझे अच्छी तरह याद है कि जब 1971 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने सोवियत संघ के साथ बीस वर्षीय रक्षा सन्धि की थी तो तब की विपक्षी पार्टी जनसंघ ने दिल्ली के रामलीला मैदान में पूर्व प्रधानमन्त्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में कड़ा विरोध करते हुए इसकी प्रतियां जलाई थीं। तब जनसंघ ने इस सन्धि को भारत के रक्षा हितों को रूस के पास गिरवीं रख देना तक कह डाला था। मगर इसी सन्धि की बदौलत बाद में भारत को पाकिस्तान के दो टुकड़े करने में ऐतिहासिक सफलता मिली थी। यह सन्धि 1971 में स्व. इंदिरा गांधी ने लोकसभा के चुनाव प्रचंड बहुमत से जीत कर अगस्त महीने में की थी और दिसम्बर महीने में पाकिस्तान को काट कर नया देश बांग्लादेश बना दिया गया था। सवाल पैदा होता है कि क्या उस समय जनसंघ के रवैये को देखते हुए उसके विरोध को ‘राष्ट्र विरोध’ कहा जा सकता था?

निश्चित तौर पर संसदीय लोकतन्त्र में सरकार के किसी फैसले के विरोध को राष्ट्रविरोधी कहना सिरफिरापन ही कहलाता और वास्तविकता यह है कि तब की सरकार ने विपक्ष की इस आलोचना को केवल नजरिये का भेद कह कर ज्यादा तवज्जो भी नहीं दी थी। बल्कि हुआ उल्टा यह कि बांग्लादेश के अस्तित्व में आने के बाद 1972 मंे इस सन्धि का विस्तार नवोदित में भी हो गया और यह भारत-बांग्लादेश-सोवियत संघ रक्षा सन्धि बन गई। इस सन्धि की जनसंघ जिस प्रकार आलोचना कर रही थी उसमें उसके अपने तर्क थे और तब के इसके नेता अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर भाई महावीर, मनोहर लाल सोंधी व जगन्नाथ जोशी आदि दलील दे रहे थे कि इस सन्धि के अमल में आने से सोवियत संघ भारत की रक्षा सम्बन्धी नीतियां तय करने लगेगा। उस समय तक श्री लालकृष्ण अडवानी केवल दिल्ली स्तर के ही नेता थे और दिल्ली प्रदेश जनसंघ के अध्यक्ष थे।

अतः जनसंघ का रक्षा सन्धि का विरोध किसी भी तौर पर राष्ट्र विरोध नहीं था और वह यह पार्टी केवल सरकार से सफाई मांग रही थी कि वह सिद्ध करे कि किस प्रकार इससे भारत के हित सुरक्षित रहेंगे क्योंकि इससे पहले भारत की किसी अन्य देश के साथ इस प्रकार की गहरी सन्धि नहीं थी। अतः लोकतंत्र में सरकार की जवाब तलबी किसी भी तौर पर राष्ट्रविरोध के खांचे में नहीं रखी जानी चाहिए क्योंकि हर सरकारी फैसले की सफाई मांगने का विपक्ष को उतना ही अधिकार होता है जितना कि सरकार को फैसले करने का। अतः प. बंगाल की मुख्यमन्त्री सुश्री ममता बनर्जी से लेकर पूर्व प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह व अन्य पार्टिंयों के नेता जो सवाल पाकिस्तान व कश्मीर के सम्बन्ध में सरकार से पूछ रहे हैं उन्हें राष्ट्र विरोध के दायरे में रखना उचित नहीं है क्योंकि राष्ट्रीय सुरक्षा का सम्बन्ध प्रत्येक राजनीतिक दल से है।

हमारी व्यवस्था में यह बेवजह ही दस्तूर कायम नहीं हुआ है कि जब किसी विरोधी पार्टी का नेता विदेश यात्रा पर जाता है तो वह वहां जाकर अपने देश में सत्ता पर काबिज अपनी विरोधी पार्टी की सरकार की विदेश नीति की ही तारीफ करता है और उसी के अनुसार अपने विचार व्यक्त करता है परन्तु जब वह अपने देश की धरती पर खड़ा होता है तो उसी विदेश नीति की आलोचना करने में तर्कों की फेहरिस्त भी गिना देता है। यह अधिकार उसे किसी और ने नहीं बल्कि देश की जनता ने ही दिया होता है क्योंकि उसका चुनाव भी वही जनता करती है जो देश के प्रधानमन्त्री तक को चुनती है। संसदीय प्रणाली की यही खूबसूरती और विशेषता होती है कि यह संसद के भीतर हर संसद सदस्य को एक समान अधिकार देती है जिसके संरक्षक लोकसभा अध्यक्ष अथवा राज्यसभा के सभापति होते हैं।

जहां तक पाकिस्तान के इशारे पर दहशतगर्द कार्रवाइयों के विरोध का सवाल है तो प्रत्येक राजनैतिक दल सरकार के साथ है मगर अपने देश के भीतर वह व्यावहारिक खामियों की तरफ अंगूली उठाने का हक भी रखता है इसमें उसकी राष्ट्र भक्ति पर शक करने की कहीं कोई गुंजाइश नहीं बचती है। इसका एक और प्रमाण भी भारत-पाक को लेकर ही है। बांग्लादेश विजय के बाद स्व. इंदिरा गांधी ने 1972 में शिमला समझौता किया तो इसका विरोध भी जनसंघ ने उसी तर्ज पर किया जिस तर्ज पर रक्षा सन्धि का किया था और पुनः रामलीला मैदान में ही इस समझौते की प्रतियां भी स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में जलाई गई थीं। शिमला समझौते का विरोध जनसंघ जिस वजह से कर रहा था वह यह थी कि इतने भीषण युद्ध के बाद भारत के हाथ में क्या आया?

यह सवाल खुद अटल बिहारी वाजपेयी ने रामलीला मैदान में एक जनसभा में ही पूछा था। इसका क्या मतलब निकाला जा सकता था? क्या इस युद्ध से भारत को कुछ हासिल नहीं हुआ था? जाहिर तौर पर यह राष्ट्र विरोध नहीं था बल्कि एक विपक्षी नेता की राजनैतिक जिज्ञासा थी जिससे वह जनता के सामने सरकार को अपने फैसले की वैधता सिद्ध करने की चुनौती दे सके जबकि इस युद्ध के जीत लेने पर अटल बिहारी वाजपेयी ने ही श्रीमती इन्दिरा गांधी को दुर्गा का स्वरूप बताया था। असल में हमारे राष्ट्रहितों की ही मांग होती है कि हम अपनी आन्तरिक सुरक्षा से जुड़े हर मामले की तस्दीक निरपेक्षभाव से करते चलें और सरकार को लगातार चौतरफा सावधान रहने और चाक-चौबन्द रहने की ताईद भी करते रहें।

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