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अमेरिका से सावधान रहना होगा!

कश्मीर मुद्दे पर अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प जिस तरह अति उत्साह दिखा रहे हैं उससे भारत को अत्यन्त सावधान होकर अपनी कूटनीतिक रणनीति तय करने की जरूरत है।

कश्मीर मुद्दे पर अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प जिस तरह अति उत्साह दिखा रहे हैं उससे भारत को अत्यन्त सावधान होकर अपनी कूटनीतिक रणनीति तय करने की जरूरत है। जम्मू-कश्मीर राज्य में अनुच्छेद 370 की समाप्ति से भारत की विदेश नीति का क्या लेना-देना नहीं है क्योंकि यह पूर्णतः भारत के संविधान के अधिकार क्षेत्र में किया गया ऐसा फैसला है जिस पर इसकी संसद की मुहर लग चुकी है। अतः पाकिस्तान द्वारा इस फैसले को लेकर जिस प्रकार अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर विलाप करने के प्रयास किये जा रहे हैं उन्हें केवल उसकी छटपटाहट ही कहा जा सकता है क्योंकि समूचे जम्मू-कश्मीर का भारतीय संघ में विलय 27 अक्टूबर 1947 को हो चुका है और इसके बाद 1972 में भारत के साथ हुए शिमला समझौते पर पाकिस्तान दस्तखत करके अहद कर चुका है कि कश्मीर समेत वह अपने सभी विवादों को केवल आपसी बातचीत से ही हल करेगा। 
जाहिर है कि 27 अक्टूबर 1947 से पहले कश्मीर पर आक्रमण करके पाकिस्तान ने इस रियासत का जो हिस्सा कब्जाया था केवल वही विवाद की श्रेणी में आ सकता है। अतः रक्षामन्त्री श्री राजनाथ सिंह का यह कथन कि अगर पाकिस्तान से बातचीत होगी तो केवल पाक अधिकृत कश्मीर के मुद्दे पर ही होगी, पूरी तरह न्यायोचित और अंतर्राष्ट्रीय नियमों के तहत दो देशों के आपसी झगड़े को निपटाने की नीयत का है। बेशक भारत ने बातचीत शुरू करने की शर्त यह लगा रखी है कि पहले पाकिस्तान भारत में आतंकवाद फैलाना समाप्त करे। इस मुद्दे पर भी पाकिस्तान भारत के साथ जनवरी 2004 में किये गये समझौते से बन्धा हुआ है जो तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ के बीच हुआ था कि पाकिस्तान अपने नियन्त्रण की भूमि का इस्तेमाल भारत के खिलाफ आतंकवाद पनपाने में नहीं करेगा। 
अतः कानूनी तौर पर पाकिस्तान सभी आपसी विवादों का निपटारा केवल द्विपक्षीय वार्ता द्वारा ही हल करने पर बाध्य है। इसके बावजूद वह बार-बार अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के समक्ष गिड़गिड़ा कर फरियाद कर रहा है और उनसे मध्यस्थता करने की उम्मीद लगाये बैठा है जबकि भारत की यह घोषित नीति शुरू से ही रही है कि कश्मीर पर किसी भी सूरत में किसी तीसरे देश की मध्यस्थता स्वीकार नहीं की जा सकती क्योंकि इसका सीधा लेना-देना आजादी से पहले के उस ‘ब्रिटिश इंडिया’ के लोगों से है जिन्होंने अपनी मर्जी से आजादी मिलने पर बने दो स्वतन्त्र देशों भारत और पाकिस्तान मंे से किसी एक में रहना पसन्द किया।
ब्रिटिश इंडिया की देशी रियासतों को दोनों में से किसी एक देश को चुनने या स्वतन्त्र रहने की छूट आजादी के समय मिलने के साथ ही भारत में देशी रियासतों के विलय की प्रक्रिया 15 अगस्त 1947 के बाद भी कई वर्षों तक चली और इसके चलते ही जम्मू-कश्मीर रियासत का विलय भी इसके तत्कालीन महाराजा हरि सिंह ने भारतीय संघ में किया। चूंकि पाकिस्तान ने इस रियासत के बड़े भूभाग को इसके भारत में विलय होने से पहले आक्रमण करके कब्जा लिया था। अतः पाकिस्तान ने इसे विवादास्पद बना दिया और तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रसंघ में जाने की गफलत कर बैठे परन्तु पं.नेहरू ने एक काम बहुत दूरदर्शिता का भी किया था कि उन्होंने महाराजा हरिसिंह के अपनी रियासत के भारतीय संघ में विलय के प्रपत्र पर स्व. शेख अब्दुल्ला के दस्तखत भी कराये थे जो कि उस समय जम्मू-कश्मीर रियासत के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता थे और उनकी पार्टी नेशनल कान्फ्रेंस ने महाराजा के शाही शासन के खिलाफ सफल जनान्दोलन छेड़ा था। 
अतः जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय को वहां की आम जनता का भी समर्थन मिल गया था परन्तु पं. नेहरू के राष्ट्रसंघ में जाने की गलती का परिणाम यह हुआ कि कश्मीर अंतराष्ट्रीय समस्या बन गया और 1948 में राष्ट्रसंघ ने प्रस्ताव किया कि उसकी निगरानी में इस रियासत में जनमत संग्रह कराया जाये और इसके लिए पाक कब्जे के कश्मीर से पाकिस्तानी फौजों को हटाया जाये। इसे भारत ने अस्वीकार करते हुए कूड़ेदान में फेंक दिया और जम्मू-कशमीर विधानसभा का गठन करते हुए 24 विधानसभा सीटें पाक कब्जे के कश्मीर के लोगों के लिए छोड़ दीं। यह बताना भी जरूरी है कि यदि मई 1964 में पं. नेहरू की मृत्यु न हुई होती तो जून महीने में पाकिस्तान के तत्कालीन फौजी हुक्मरान जनरल अयूब का नई दिल्ली आना निश्चित था और उसमें कश्मीर समस्या का हल ही निकालना मुख्य था। इससे यह सिद्ध होता है कि पाकिस्तान स्वयं इस मसले को सिर्फ भारत के साथ ही बैठकर हल करना चाहता था हालांकि वह तीसरे देश की मध्यस्थता की रट अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर लगाये रहता था। 
यहां 1965 के भारत-पाक युद्ध की पृष्ठभूमि में जाये बगैर इतना  जानना जरूरी है कि इसके बाद हुए ‘ताशकन्द समझौते’ में भारत को जीती हुई भूमि लौटानी पड़ी थी परन्तु 1971 के बांग्लादेश युद्ध में पाकिस्तान को बीच से चीर कर दो भागों में बांट दिया गया और बचे-खुचे पाकिस्तान के समक्ष जब उसके वजूद की चुनौती खड़ी कर दी गई तो सबसे पहले अमेरिका ने ही उसकी मदद में अपने एटमी जंगी फौजी बेड़े बंगाल की खाड़ी में उतार कर भारत को धर्मसंकट में डालने का काम किया मगर उसके एक लाख सैनिक भारत के कब्जे में होने की वजह से उसे घुटनों के बल बैठकर अपनी जान-ओ-माल की भीख मांगनी पड़ी और भारत से अहद करना पड़ा कि वह अब जो भी गिला-शिकवा करेगा केवल नई दिल्ली से ही करेगा और उसकी रजा से ही सरहदों पर अमन-चैन कायम रखेगा मगर अमेरिका लगातार इसके बाद से उसे अपनी गोद में बैठा कर पुचकारता रहा और सैनिक साजो-सामान से लैस करता रहा और अफगानिस्तान से रूस समर्थक नजीबुल्ला सरकार को हटाने की मुहिम में पाकिस्तान को अपने साथ रखकर वहां तालिबानी ताकतों को शह देता रहा और आतंकवाद की खेती को लहलहाता देखता रहा और बाद में इसी आतंकवाद के खात्मे के नाम पर उसने पाकिस्तान को वित्तीय मदद देनी शुरू कर दी। 
किस्सा यहीं से करवट लेता है क्योंकि अब अमेरिका अफगानिस्तान से अपना पल्ला झाड़ना चाहता है और उसे पाकिस्तान की जरूरत है इसलिए डोनाल्ड ट्रम्प बार-बार कश्मीर मुद्दे पर मध्यस्थता करने की पेशकश कर रहे हैं। इतना ही नहीं बल्कि इस बार तो उन्होंने पाकिस्तान की ही भाषा बोल दी और कह डाला कि कश्मीर मसले के पीछे धार्मिक मामला भी है। इससे साफ है कि अमेरिका की नीयत ठीक नहीं है। बेशक अमेरिका ने पिछले सप्ताह ही राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद की अनौपचारिक बैठक में भारत के साथ दिखने की कोशिश की है और चीन का विरोध किया है क्योंकि पाकिस्तान फिलहाल उसकी गोद में बैठा हुआ है परन्तु डोनाल्ड ट्रम्प ने पुनः मध्यस्थता की बात कहकर पाकिस्तान का ही समर्थन करने का प्रयास किया है और कश्मीर को अंतर्राष्ट्रीय समस्या के रूप में दिखाने का प्रयास किया है। 
हालांकि पाकिस्तान अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय भी चला गया है परन्तु वहां बात कानूनी नुक्तों की ही होगी। कल ही प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी जी-7 देशों के सम्मेलन में भाग लेने फ्रांस जा रहे हैं जहां उनकी मुलाकात डोनाल्ड ट्रम्प से भी होगी। अतः उम्मीद की जानी चाहिए कि डोनाल्ड ट्रम्प को अपने सुर बदलते हुए स्वीकार करना पड़ेगा कि पाकिस्तान अपने द्विपक्षीय वादों और जिम्मेदारियों का सम्मान करना सीखे मगर इतना तय है कि अमेरिका पर हम निश्चिन्त होकर यकीन नहीं कर सकते हैं। ऐसा यकीन केवल हम रूस पर ही कर सकते हैं जिसने हर स्थिति में भारत के साथ दोस्ती निभाई है। यहां यह बताना भी जरूरी है कि 1955 में जब रूस के सर्वोच्च नेता ख्रुश्चेव भारत यात्रा पर आये थे तो उन्होंने घोषणा की थी कि जम्मू-कश्मीर कोई समस्या नहीं है, इसका विलय भारत में हो चुका है और यही अंतिम है।

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