बीटल्स-संगीतकारों एवं अपने समय के सर्वाधिक लोकप्रिय गायकों ने ऋषिकेश के जिस आश्रम में बैठकर अपने सर्वाधिक लोकप्रिय 40 गीत गाए थे, वह स्थान एक बार फिर विश्वभर से पर्यटकों को खींच रहा है। बीटल्स आश्रम में जाने के लिए भारतीय पर्यटकों से भी अब 150 रुपए और विदेशियों से 600 रुपए शुल्क लिया जाता है।
'चौरासी-कुटिया' के नाम से प्रसिद्ध वर्ष 1961 में बने इस आश्रम में महर्षि महेश योगी द्वारा योग और ध्यान की शिक्षा दी जाती थी। यह आश्रम 18 एकड़ भूमि में फैला है और ऋषिकेश के गंगा-किनारे बसे राजाजी नेशनल पार्क के भीतर स्थित है। प्रदेश का वनमंडल इसके रखरखाव में लगा है।
ऋषिकेश के घाटों व आश्रमों में अब भी भारी भीड़ बनी रहती है। 'परमार्थ निकेतन' के मुख्य द्वार के बाहर स्थित गंगाघाट की गंगा, आरती, तीर्थयात्रियों एवं धार्मिक पर्यटकों के लिए एक 'इवेंट' का रूप ले चुकी है। परमार्थ निकेतन के संस्थापक संचालक स्वामी चिदानंद जब भी आश्रम में होते हैं, स्वयं इस आरती के मुख्य पुरोधा के रूप में दीप-प्रज्ज्वलन करते हैं।
स्वामी चिदानंद से वार्ता अपने आप में एक सुखद अनुभूति है।
अधिकांश यात्री एवं पर्यटक इस तथ्य से अनभिज्ञ हैं कि गंगा के उस पार 'चौरासी कुटिया' आश्रम भी है जो कभी पूरे विश्व में 'योग-राजधानी' के रूप में पहचाना जाता था। जल सतह से मात्र 46 मीटर की ऊंचाई पर 18 एकड़ में फैला यह आश्रम ठीक आधी सदी पहले सन् 1963 में बना था। भूमि उत्तरप्रदेश के वन विभाग से पट्टे पर मिल गई थी और महर्षि महेश योगी की एक परम शिष्या डोरिस ड्यूक ने एक लाख डॉलर की राशि, इसके निर्माण के लिए उन दिनों अपने गुरु के चरणों में रखी थी।
इस आश्रम में फैल गए थे अनेक कुटीर, जो भव्य पत्थरों से बने थे। हर कुटीर में पांच-पांच कमरे थे। सभी कमरों में इलेक्ट्रिक हीटर, पश्चिमी फर्नीचर, अत्याधुनिक शौचालय, सभी सुख-सुविधाओं से सज्जित शयनकक्ष, कुटीरों के बाहर भरपूर हरियाली, आधुनिक लॉन, नियोन बत्तियां आदि सब कुछ था। लगभग हर कमरे में महर्षि का चित्र लगा था, शायद इसलिए कि महर्षि की मौजूदगी का अहसास हर कक्ष में बना रहे।
उन्हीं कुटीरों के आसपास घने जंगल में गंगा की लहरों की छपाक, छपछप व सांय सांय ध्वनियों की पृष्ठभूमि में विश्व-संगीत के चार शिखर स्वर गूंज रहे थे। विश्व संगीत में वह 'बीटल्स' का युग था। चारों बीटल्स अपनी पत्नियों, महिला-मित्रों, सहयोगी साजि़न्दों और पश्चिमी पेिरस के अनेक चुनिंदा पत्रकारों के साथ यहां पर पथरीली चट्टानों से बने मंचों पर नई धुनें तैयार कर रहे थे। जॉन लेनन, पाल मकार्टनी, जार्ज हैरीसन ने मिलकर व अलग-अलग रूप में 40 गीत इन्हीं चट्टानों पर रचे व संगीत के सुरों में ढाले थे। तब वे सारी धुनें इन्हीं कुटीरों, इस घाटी व आसपास के जंगलों को समर्पित थीं। बाद में जब ये 'एलबमों' के रूप में विश्व के कोने-कोने में गूंजी, तब ये कुटीर, ये जंगल, यह घाटी, उन गूंजों में दर्ज नहीं हो पाए। सारी चर्चाएं सिर्फ बीटल्स, उनकी धुनों, गीतों व लयों तक सीमित रहती थी। उस माहौल का जि़क्र नहीं होता था जिसमें सृजन हुआ था। जार्ज हैरिसन से मेरी पहली भेंट अम्बाला छावनी में हुई थी। वह भले ही मुझे अपने एक भारतीय दोस्त के रूप में अपने शेष साथियों, मित्रों व प्रशंसकों से मिलाता, मगर मैं किसी भ्रम का शिकार होने से बचा रहा। वह लाखों करोड़ों बीटल्स-दीवानों का चहेता था, मैं ठहरा एक साधारण पत्रकार। मुझे वह दिन याद था जब दिल्ली से ऋषिकेश जाते हुए महर्षि महेश जार्ज हैरीसन व लेनन के साथ अम्बाला छावनी में एक रात के लिए रुक गए थे। हैरीसन से एक स्थानीय मित्र ब्रह्मदत्त सूद ने मिला दिया था। उनकी टूटी-फूटी हिन्दी व मेरी टूटी-फूटी अंग्रेजी से खूब गुज़ारा चला। हैरीसन मुझसे भारतीय संगीत, कविता व अध्यात्म पर चर्चाएं करता रहा। उस शाम माल रोड पर लम्बी सैर के मध्य उसने मेरा सारा ज्ञान भण्डार लगभग खंगाल दिया था। मुझे लगता था, दो घण्टे की अवधि के बाद हैरीसन को और अधिक कुछ भी बता पाने में मैं समर्थ नहीं रहा था। अपने बचाव के लिए मैंने विषय बदला।
हैरीसन से अपनी जि़न्दगी के कुछ पृष्ठ खोलने का आग्रह किया। उसका कहना था वह फिलहाल अतीत में ज़्यादा दूर तक लौटने को तैयार नहीं था। उसने बताया कि वह 1966 में भी भारत आया था, रविशंकर से सितार सीखने के लिए। वह एक विचित्र अनुभव था उसके लिए। वह बेहद प्रभावित था रविशंकर से। मगर औपचारिक गुरु-शिष्य सम्बन्ध स्थापित करने का एक मित्र का सुझाव उसने स्वीकार नहीं किया था। वह चाहता था एक गुरु, जो परिपूर्ण हो, समर्थ हो और उसे उसकी सफलताओं, दुर्बलताओं, उपलब्धियों व वंचनाओं के साथ पूरी तरह सम्भाल सके। मगर हैरीसन डरता था। वह कहता, 'मैं कोई ऐसा मोह नहीं पालना चाहता जो बाद में भंग हो। मुझे 'गुुरु' की ज़रूरत भी है मगर मैं 'गुुरु' शब्द से डरता भी हूं।' एक बार समर्पित होने के बाद सृजन शायद रुक जाता था। यह उसकी निजी आशंका थी। उसने एक गहरी सांस छोड़ते हुए कहा था, 'आज की तारीख में हम 'बीटल्स' के पास अथाह धन है, अथाह सम्पत्ति है। इतने अधिक संसाधन हैं कि तुम्हारी गंगा में एक-एक पौंड हर पलक के झपकने के साथ बहाते जाएं तो भी शायद बरसों लगेंगे इन भौतिक खज़ानों को बहाने में। हम शायद थक जाएंगे, मगर खज़ाने खाली नहीं होंगे। पृथ्वी की हर सुख-सुविधा हम मुंह मांगे दामों पर खरीदने में समर्थ हैं। मगर हमारे मन शांत नहीं हैं। लगता है बरसों भटकना होगा शांति की तलाश में।
'महर्षि महेश से कब भेंट हुई?' मैं बात को आगे बढ़ाता हूं। मैं चाहता हूं कि हैरिसन मुझे फिर किसी पौराणिक मिथक की कथा सुनाने को न कह दे। मैं चाहता हंू, वह बोलता रहे। तब तक बोलता रहे जब तक स्वयं थकान महसूस न करने लगे।
वह बताता है, 'हम लोग चिन्तन व सृजन की क्रिया में डूबने के लिए 'ड्रग्स' भी ले लेते थे। तभी एप्पल इलेक्ट्रॉनिक्स के मुखिया व मेरे दोस्त एलैक्सिस ने मुझे व मेरी पत्नी पैटी बॉयड को लंदन में महर्षि का एक प्रवचन सुनने के लिए प्रेरित किया। एलैक्सिस एथेंस में महर्षि को सुन चुका था। वह बेहद प्रभावित हुआ था। वह चाहता था कि सभी बीटल्स महर्षि को एक बार सुनें। उसे लगता था कि एक बार की मुलाकात ही हमारे लिए, उस शांति का मार्ग खोल देगी, जिसकी प्रतीक्षा में हम अब तक भटक रहे थे। हैरिसन ने कुछ वर्ष पूर्व अपनी सम्पत्ति का एक बड़ा भाग इसी आश्रम को फिर से संवारने के लिए दान के रूप में दिया था।
– डॉ. चंद्र त्रिखा
chandertrikha@gmail.com