रूस के शहर कज़ान में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ अपनी वार्ता में प्रधानमंत्री ने हिन्दी में बात की थी। पर अचानक बीच में अंग्रेज़ी का सहारा लेते हुए उन्होंने कहा “Mutual trust, mutual respect and mutual sensitivity should be the basis of our ties”अर्थात आपसी विश्वास, आपसी सम्मान और आपसी संवेदनशीलता हमारे सम्बंधों की बुनियाद होनी चाहिए। अब जबकि पूर्वी लद्दाख से दोनों देशों की सेना की वापिसी शुरू हो चुकी है रिश्तों के उपर trust शब्द मंडरा रहा है। बड़ा सवाल यह ही है कि क्या हम चीन पर भरोसा कर सकते हैं?आख़िर सब कुछ ठीक चल रहा था। दोनों देशों के बीच व्यापारिक सम्बंध मज़बूत थे फिर चीन ने 2020 में गलवान में खूनी झड़प क्यों करवाई? क्या वह भारत को नीचा दिखाना चाहता था? और अब अचानक उसका रुख सकारात्मक कैसे हो गया? और क्या यक़ीन है कि वह फिर दुश्मनी पर लौट नहीं आएगें?
समझौते के बाद चीन के प्रवक्ता का कहना था कि एलएसी पर तनाव ख़त्म हो गया है और दोनों देश मिल कर काम करेंगे पर भारत में इस समझौते पर ज़्यादा उत्साह नज़र नही आ रहा। 1962 को हम बहुत मुश्किल से भूले थे कि अब रिश्तों में गलवान आगया। थल सेनाध्यक्ष जनरल उपेन्द्र द्विवेदी का भी कहना है कि trust की बहाली में समय लगेगा। चीन में हमारे पूर्व राजदूत गौतम बम्बावाले का कहना है, “गलवान नदी में बहुत पानी बह चुका है...2020 के बाद के समय को भुलाया नहीं जा सकता, न ही इसे ओझल ही किया जा सकता है”। चीन में हमारे एक और पूर्व राजदूत अशोक कांथा का कहना है कि जहां दोनों देशों के बीच बर्फ़ पिघली है और उसका स्वागत होना चाहिए, वहां, “चीन हमारी प्रमुख सामरिक चुनौती रहेगा और जल्दबाज़ी में सामान्य रिश्ते क़ायम करना सही नहीं होगा”। वैसे भी जब तक वह अरुणाचल प्रदेश पर से अपना दावा नहीं छोड़ते रिश्ता सामान्य हो ही नहीं सकता।
अभी तक देपसांग और डेमचोक से सेनाएं हटना शुरू हुई हंै। यह दो जगह थीं जिन्हें लेकर तनाव चल रहा था। गश्त के रास्ते में जो अस्थाई स्ट्रक्चर थे उन्हें हटा दिया गया है या हटाए जा रहे हैं। लेकिन यह पहला कदम है। इस वक्त लद्दाख सेक्टर में दोनों तरफ़ 60000 सैनिक तैनात हैं। इन्हें पहले वहां से हटाना है और फिर इन्हें अपने पीस टाइम स्टेशन पर लौटाना है। जब तक यह नहीं होता तब तक कहा नहीं जा सकता कि मामला फ़िलहाल हल हो गया। भारत और चीन की सरकारों और सेनाओं के बीच अविश्वास की जो कमी है उसे देखते हुए इसे लागू करने में समय लग सकता है और प्रकिया काफ़ी कष्टदायक और जटिल हो सकती है। दोनों देशों को बहुत नेकनीयती दिखानी होगी। यह भी देखना है कि सीमापर चीन ने जो भारी निर्माण किया है उसे वह हटाते हैं या नहीं, क्योंकि युद्ध की स्थिति में इसका इस्तेमाल हो सकता है।
2014 और 2019 के बीच नरेन्द्र मोदी और शी जिंनपिंग के बीच 18 बैठकें हुई थीं। अहमदाबाद से महाबलीपुरम भारत ने भी खूब मेज़बानी की थी। फिर 2020 में गलवान जैसी हिमाक़त क्यों की गई? पूर्वी लद्दाख में स्थिति पलटने की कोशिश क्यों की गई? चीन के युद्धनीतिज्ञ और दार्शनिक सुन त्जू ने 2500 वर्ष पहले इन्हें युद्ध की कला समझाईथी, “युद्ध धोखे पर आधारित होता है। जब हमला करने की स्थिति में हो तो प्रभाव यह दो कि नहीं दे सकते और जब कमजोर हो तो प्रभाव दो कि मज़बूत हो”। इसी नीति पर चलते हुए शी जिनपिंग ने पूर्वी लद्दाख में घुसपैंठ करवाई थी। जवाहरलाल नेहरू के बाद एक और नेता नरेन्द्र मोदी चीन के धोखे को भांपने में असफल रहे। शी जिनपिंग माओ त्सी तुंग के बाद चीन के सबसे ताकतवार नेता हैं। सारी ताक़त खुद में समेटने के बाद वह चीन का पुराना साम्राज्यवादी वैभव क़ायम करना चाहतें हैं। चीन की बढ़ती आर्थिक ताक़त ने उन्हें मौक़ा भी दे दिया। पर वह अहंकारी बन गए और लगभग हर पड़ोसी से झगड़ा ले बैठे। एक तरफ़ चीन बहुध्रुवीय विश्व चाहता है तो दूसरी तरफ़ एशिया में एकमात्र शक्ति बना रहना चाहता है। वह बार-बार ताइवान को हड़पने की धमकी दे रहे हैं। जापान के साथ तनाव है। दक्षिण चीन सागर को लेकर इंडोनेशिया, मलेशिया, फ़िलिपींस सब के साथ उनका झगड़ा है। भारत के साथ लद्दाख में झगड़ा शुरू कर लिया। शी के नेतृत्व में चीन इतना बेधड़क हो गया कि दुनिया की प्रमुख राजधानियों में अलार्म बजना शुरू हो गया। अमेरिका विशेष तौर पर अपनी सरदारी को चुनौती समझने लगा। अमेरिका और चीन में सामरिक और आर्थिक होड़ शुरू हो गई है जो चीन जीत नहीं सकता। चीन को रोकने के लिए कई देश इकट्ठे होने लगे। भारत भी क्वाड में शामिल हो गया। अपने अहंकार में शी असावधान हो गए और सुन त्ज़ी की शिक्षा भूल गए कि अपनी ताक़त को छिपा कर रखो।
शी चीन के लिए वैश्विक नेतृत्व चाहते थे पर भूल गए कि (1)अभी चीन की वह ताक़त नहीं है। (2) अमेरिका किसी चुनौती को बर्दाश्त नहीं करेगा, और (3) आप अपने सब पड़ोसियों से झगड़ा लेकर विश्व नेता नही बन सकते। चीन का दुर्भाग्य है कि उसकी अर्थव्यवस्था उतनी मज़बूत नहीं रही जितनी पहले थी। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने तो चीन की अर्थव्यवस्था तो 'टिक टिक करता टाईम बम’ कहा है। उनके अनुसार चीन जो 8 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा था अब 2 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है। चीन का अपना दावा है कि 2023 में उसने 5.2 प्रतिशत की ग्रोथ की थी पर बहुत अर्थशास्त्री और चीन विशेषज्ञ इन आंकड़ों को नहीं मानते। चीन इस वक्त कम होती घरेलू मांग,धीमे निर्यात, बढ़ती बेरोज़गारी और रियल इस्टेट मार्केट में भारी मंदी से जूझ रहा है। बहुत चीनियों का प्रोपर्टी में पैसा लगा हुआ है पर कई बड़ी कम्पनियों के दिवालिया होने के कारण सारे मार्केट में खलबली मची हुई है। दुनिया की जीडीपी में चीन की हिस्सेदारी लगातार घटती जा रही है। पश्चिम के देशों के साथ तनाव के कारण बहुत कम्पनियां चीन छोड़ रही हैं। कार बनाने वाली कई जापानी कम्पनियां जैसे टोयोटा, हौंडा, मितसुबीशी चीन से बाहर निकल रहीं हैं। कुछ ही वर्ष पहले तक चीन में निवेश को लेकर बहुत रुचि थी यह लुप्त होती जा रही है क्योंकि बहुत देश चीन को वैश्विक व्यवस्था और अपनी सुरक्षा के लिए ख़तरा मानते हैं। फ़िलिपींस जैसे देश ने चीन से तंग आकर भारत से ब्रह्मोस मिसाइल ख़रीदना शुरू कर दिया है। न्यूयार्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार चीन की जनता के विश्वास में कमी आ रही है। अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार, “चीन दुनिया की अर्थव्यवस्था को बढ़ाने वाला इंजन था...अब यह इंजन लड़खड़ा रहा है। चीन के निर्यात लगातार कम हो रहा है...कारोबारी गतिविधियां धीमी पड़ने के संकेत हैं”।
दुनिया की सप्लाई चेन से चीन को एक दम अलग नहीं किया जा सकता क्योंकि सब कुछ जुड़ा हुआ है। पर विकल्प ढूंढे जा रहे हैं। भारत, मलेशिया, वियतनाम, फ़िलिपींस सबका फ़ायदा हो रहा है। पर चीन के साथ इतने तनाव के बावजूद भारत बहुत सामान के लिए चीन पर निर्भर है। पिछले साल हमने चीन से 101.7 अरब डालर का आयात किया था जबकि निर्यात केवल 16.7 अरब डालर का ही हुआ था। यह जो 85 अरब डालर की कमी है यह हमारी बहुत बड़ी असफलता है कि हम चीन पर निर्भरता कम नहीं कर सके। रणनीतिक क्षेत्र में भी हम आयात के लिए चीन पर निर्भर है जिससे हमारी सुरक्षा ख़तरे में पड़ सकती है। उल्टा हमारे मुख्य आर्थिक सलाहकार ने तो चीन से अधिक निवेश की वकालत की है। युद्ध की स्थिति में इतनी निर्भरता बहुत ख़तरनाक हो सकती है। पूर्व राजदूत गौतम बाम्बावाले ने भी कहा है कि, “भारत के अंदर चीनी कम्पनियों को निवेश की खुली छूट नहीं होनी चाहिए। इसे राष्ट्रीय सुरक्षा के दृष्टिकोण से भी देखा जाना चाहिए”। भारत के अंदर भी एक मज़बूत राय है जो चीन का विरोध कर रही है। हम बिसनेस एज़ युजयल नहीं चाहते।
अगर शी जिंनपिंग का रवैया नरम हुआ है तो यह अकारण नहीं। भारत ने चीन की धौंस और गलवान के धोखे का दृढ़ता से मुक़ाबला किया है। विदेश नीति, रक्षा तैयारी, आपसी सम्पर्क,सब में परिवर्तन देखने को मिला। सीमा पर भी इंफ्रास्ट्रक्चर पर पहले से पांच गुना खर्च किया गया। बार्डर को और मज़बूत कर दिया गया। चीन को भी यह संदेश चला गया कि भारत झुकने को तैयार नही। चीन को हमारे मार्केट भी चाहिए क्योंकि पश्चिमी मार्केट उनके लिए धीरे-धीरे सिकुड़ रहा है। चीन यह भी नहीं चाहता कि भारत पूरी तरह पश्चिम के कैम्प में चला जाए। इसीलिए अब शी जिंनपिंग वार्ता की टेबल पर आने को तैयार हो गए। यह संदेश बीजिंग तक पहुंच गया कि भारत को खोने की बड़ी क़ीमत हो सकती है। चीन को लेकर यहां शंकाएं बहुत हैं।
असली समस्या है कि एशिया की म्यान में दो तलवारें हैं। दोनों पुराने देश अब प्रभाव के लिए प्रतिद्वंद्वी भी हैं। क्या चीन भारत को बराबर का देश समझने लगेगा? क्या चीन सीमा विवाद के स्थाई समाधान की तरफ़ बढ़ेगा? क्या गलवान जैसी हिमाक़त फिर तो नहीं दोहराई जाएगी? क्या पूर्वी लददाख ने 2020 से पहले की स्थिति बहाल होगी? क्या उनकी सेना अपनी छावनियों में लौट जाएगी? बहुत से सवाल हैं जिनका जवाब समय ही देगा। वैसे भी अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं का तत्कालिक समाधान नहीं निकलता। अगर सम्बंध कुछ सामान्य हो भी गए, नई दिल्ली के लिए बीजिंग दूर ही रहेगा।