बेताल 77 वर्ष के बाद भी हमारे कंधों पर है - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

बेताल 77 वर्ष के बाद भी हमारे कंधों पर है

77 वर्ष पहले विभाजन-विभीषिका का जो बेताल हमारे कंधों पर लपक कर सवार हुआ था, वह अभी तक उतरने का नाम नहीं लेता और हम भी कहां उससे मुक्त होना चाहते हैं। विभाजन पूर्व के सांझे पंजाब यानि ‘चढ़दा पंजाब तों लहंदा पंजाब’ को बिना किसी पासपोर्ट या वीजा एक ही स्थान पर देखना हो तो जिला लुधियाना के एक गांव ‘जर्खड़’ हो आएं, वहां पंजाबी संस्कृति के एक दीवाने जगरूप सिंह जर्खड़ (62 वर्ष की उम्र) ने अपनी ही दो एकड़ जमीन में एक ‘थीम पार्क’ का निर्माण किया है, यहां जाने पर आपको भारतीय पंजाब व पाक पंजाब का पूरा-पूरा इतिहास करीब से देखने व महसूस करने का मौका मिल जाएगा। नई पीढ़ी इस ‘थीम पार्क’ के माध्यम से महाराजा रणजीत सिंह कालीन लाहौर के ‘दरबारे-खालसा’ से लेकर रावी के पुलों से आगे श्री करतारपुर तक और वहां से दिल्ली के लाल किले तक पूरे दृश्य चित्रों के माध्यम से देख सकती है। इस थीम पार्क के निर्माण की प्रेरणा चार वर्ष पहले जगी थी। इसे पंजाबी के एक लोकप्रिय गायक गुरदास मान के गीत की इस पंक्ति से भी जोड़ा जा सकता है, ‘रावी तों चनाब पुच्छदा, की हाल ए सतलुज दा’।

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इधर, भारत-पाक सीमा पर स्थित फाजिल्का सैक्टर की एक दरगाह पर अब भी सरहद के दोनों तरफ से सजदे भी हो रहे हैं। प्रार्थना-भजन भी गाए जा रहे हैं और दीप-आरती भी हो रही है। सरहदों पर कड़े पहरे, कांटेदार बाड़, एक-दूसरे को खा जाने की मुद्रा में हर शाम होती मुस्तैद परेड का सिलसिला, बीटिंग-रिट्रीट की शक्ल में जारी है, मगर सरहदों पर मौजूद दरगाहें व इबादतगाहें अब भी मौजूद हैं। लगभग हर मंगलवार या कभी कभी वीरवार का मेला दोनों तरफ सजता है। दोनों ओर सरहदों से थोड़ी दूरी बनाकर पीर बाबा की दरगाह से श्रद्धालु मन्नतें मांगते हैं। मन्नतें पूरी हो जाने पर हाजरी के लिए जरूर आते हैं, मगर मकसद पीर बाबा तक सीमित नहीं है। दोनों ओर कुछ पुराने बुजुर्ग भी लाठियां टेकते हुए आ जाते हैं। उनका मकसद विभाजन के दौरान बिछुड़े रिश्तेदारों व दोस्तों के ‘दीदार’ का होता है। वे हाथ हिलाकर एक-दूसरे के लिए दुआएं मांगते हुए नम आंखों से लौट जाते हैं। स्थिति यह है कि भारत-पाक सीमा पर जीरो लाइन पर बनी पीर बाबा जल्लेशाह व पीर बाबा बुर्जी वाला की दरगाह पर दोनों देशों के लोगों की गहरी आस्था जुड़ी है। कुछेक सालों में दोनों देशों के बीच पैदा हुए तनाव के बाद इन दरगाहों पर पाकिस्तानी बाशिंदों को माथा टेकने के लिए आने की अनुमति नहीं है फिर भी आस्था इस कदर है कि पाक बाशिंदें अपनी हद से सजदा करते हैं।

हमारे बीएसएफ के जवान सुबह-शाम दरगाह पर दीप जलाकर पूजा-अर्चना करते हैं। सरहद गांव सेठा वाला दोना रहमत पर बनी बीएसएफ की पोस्ट मस्ता गट्टी के पास फेंसिंग के गेट नंबर-205 पर है। दरगाह की पूजा-अर्चना बाहर से ही हो जाती है। गेट से दरगाह लगभग एक किलोमीटर दूर है। यहां पर सिर्फ धार्मिक आस्था को देखते हुए लोगों को आने-जाने की अनुमति दी जाती है। यहां तैनात बीएसएफ के एक जवान के अनुसार, पीर बाबा की दरगाह पर प्रतिदिन दीप जलाकर पूजा-अर्चना की जाती है। दरगाह के उस पार पाकिस्तानी गांव ‘झल्लोके दुआ’ लगता है। पाकिस्तानी नागरिकों को दरगाह पर आने की अनुमति नहीं है। वैसे 19 जून व अक्तूबर की बारह तारीख को मेला लगता है। मेले में भी पाकिस्तानियों को माथा टेकने के लिए दरगाह पर आने की अनुमति नहीं है। पाक नागरिक उस दिन भी अपनी सीमा पर खड़े होकर माथा टेकते हैं। इसी गांव के ग्रामीण दर्शन सिंह व गुरमेज सिंह का कहना कि उन्हें आशा है कि जिस तरह करतारपुर साहब कॉरिडोर बनने पर सहमति हुई है, शायद इस दरगाह पर भी पाक नागरिकों को माथा टेकने की अनुमति मिल जाए। बहुत से ऐसे लोग दरगाह पर माथा टेकने आते हैं ताकि वह पाक में रह रहे अपने रिश्तेदारों को देख सकें। फाजिल्का-फिरोजपुर सीमा पर स्थित ममदोट में कई ऐसे लोग रहते हैं जिनके रिश्तेदार पाक में हैं। हर साल लगने वाले मेले के दौरान एक-दूसरे को दूर से देखते हैं।

इसी तरह फाजिल्का के सरहदी गांव ‘गुलाबा भैणी’ के पास भारत-पाक जीरो लाइन पार पर भी पीर बाबा की एक दरगाह है, यहां पर भी दोनों देशों के बाशिंदों की आस्था जुड़ी है। जब से दोनों देशों के बीच तनाव की स्थिति पैदा हुई है तब से लेकर अब तक पाकिस्तानी अपनी हद में खड़े होकर दरगाहों पर माथा टेकते हैं।
इस बार भी 19 जून को सबसे पहले बीएसएफ के जवानों की ओर से दरगाह पर चादर चढ़ाने की अदा की गई। वहां के एक अधिकारी के अनुसार, दोनों देशों के बीच सुखद रिश्तों की बहाली के लिए भी प्रार्थनाएं होती हैं। कुरुक्षेत्र का एक युवा यू-ट्यूबर केशव मुल्तानी इन बेताल कथाओं का शायद पूरे उपमहाद्वीप में सबसे बड़ा रिपोर्टर भी है और नम आंखों वाले अनेक बूढ़े चेहरों का गवाह भी। उसका मुख्य लक्ष्य मुल्तान-बहावलपुर है, लेकिन वह विभाजन के दौरान बिछड़े भाई-बहनों को अपने चैनल के माध्यम से मिला देता है। ऐसी रूबरू-मुलाकातों के उसके खज़ाने में लगभग 150 सत्यकथाएंं जमा हैं और सरहदों के आर-पार के बिछुड़े परिवारों के लिए वह इस ज़माने में एक युवा मसीहा का काम करता है, मगर मेरे इस सवाल के जवाब में वह कभी-कभी उदास होने लगता है कि ‘क्या कभी खर्चापानी भी निकल पाता है, इस मसीहाई से?’ उसका कहना है वह हर हालात व हर हाल में यह सिलसिला नहीं छोड़ेगा और टूटे हुए दिलों को जोड़ने की मशक्कत जारी रखेगा।

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