शहीदे आजम सरदार भगत सिंह को भारत रत्न देने की मांग उठने का सीधा मतलब है कि स्वतन्त्रता आन्दोलन में क्रान्तिकारियों के योगदान को दिल से स्वीकार करना। इसकी एक वजह यह भी है कि 23 मार्च 1931 को जब अंग्रेज सरकार ने उन्हें फांसी पर चढ़ाया तो उससे अगले दिन ही महात्मा गांधी के नेतृत्व में पूर्ण अहिंसक तरीके से स्वतन्त्रता की लड़ाई लड़ने वाली कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन पंजाब में ही होने वाला था और उसकी सदारत सरदार वल्लभ भाई पटेल ने करनी थी।
इससे पहले कांग्रेस ने ‘पूर्ण स्वतन्त्रता’ की मांग को मुद्दा नहीं बनाया था बल्कि वह एक स्वायत्तशासी स्वतन्त्र देश (डोमिनियन स्टेट) की मांग ही कर रही थी, परन्तु सरदार भगत सिंह व उनके अन्य क्रान्तिकारी साथियों द्वारा समाजवादी रिपब्लिकन पार्टी के साये तले शुरू किये गये क्रान्तिकारी रास्तों के जरिये आजादी पाने के सशस्त्र प्रतिरोध से उस समय देश के युवा वर्ग में अंग्रेजी शासन को उखाड़ फैंकने का जो जज्बा पैदा हुआ था उससे कांग्रेस भी भीतर तक प्रभावित हुई थी। बेशक महात्मा गांधी की कांग्रेस हिंसा के खिलाफ थी मगर उसने भगत सिंह की शहादत को राष्ट्र के पुनर्जागरण के तौर पर ही लिया था।
इतिहास ने सरदार भगत सिंह के साथ पूर्ण न्याय किया हो ऐसा नहीं कहा जा सकता। इसकी वजह उनकी वह विचारधारा भी रही जो समाजवाद से ओतप्रोत थी और वैज्ञानिक सोच को हर कदम पर तरजीह देती थी। दूसरे उन्होंने आजादी के लिए सशस्त्र संघर्ष करने को गलत नहीं माना, आतताई का मुकाबला उसी की तर्ज पर करने को जायज भी ठहराया। दु:खद यह भी है कि स्वतन्त्र भारत में लगभग प्रत्येक राजनैतिक दल ने उनका नाम तो बड़े जोर-शोर से लिया मगर उन्हें अपने-अपने राजनैतिक चश्मे से ही देखा।
दरअसल भगत सिंह एक व्यक्ति न होकर जज्बा था जो मुल्क की आजादी से लेकर इसके भविष्य के लिए केवल 23 वर्ष की आयु में ही बड़े-बड़ेे विचारकों के छक्के छुड़ाने का दम रखता था। जाहिर है यदि आजादी के 72 साल बाद कांग्रेस के नेता ही आज यह मांग उठाते हैं कि भगत सिंह को भारत रत्न दिया जाना चाहिए तो स्वाभाविक सवाल उठता है कि लगभग 50 वर्ष तक सत्ता में रहने वाली कांग्रेस को तब यह ख्याल क्यों नहीं आया। भारत-पाक सीमा के निकट हुसैनीवाला में उनके शहीद स्थल का ही निर्माण स्वतन्त्रता के लगभग 25 वर्षों बाद हो पाया था।
उस समय देश की प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी थीं और सौभाग्य से शहीदे आजम की मां भी तब जीवित थीं। हुसैनीवाला शहीद स्थल का उद्घाटन भगत सिंह की पूज्य माताश्री द्वारा ही किया गया था। तब भी यह मांग कुछ लोगों ने उठाई थी कि उन्हें ‘राष्ट्रमाता’ के मानद नाम से नवाजा जाये। यह संयोग हो सकता है कि भाजपा ने महाराष्ट्र चुनावों के दौरान वीर सावरकर को भारत रत्न देने की मांग का समर्थन किया और कांग्रेस द्वारा भगत सिंह को यह सम्मान देने के पीछे यही कारण कुछ सक्रिय राजनीतिक संगठन बता रहे हैं, परन्तु दोनों में कोई मेल नहीं है क्योंकि सावरकर स्वतन्त्र भारत में भी सक्रिय राजनीति में हिन्दू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर रहे और तत्कालीन जनसंघ से उनका कभी सीधा आंकड़ा नहीं रहा।
इसके बावजूद वाजपेयी शासन के दौरान उनका चित्र संसद के केन्द्रीय हाल में ठीक महात्मा गांधी के चित्र के सामने वाली दीवार पर लगवाया गया और अंडमान निकोबार की सेलूलर जेल को राष्ट्रीय स्मारक के तौर पर उनके नाम किया गया। यह कार्य तत्कालीन गृहमन्त्री भाजपा नेता श्री लालकृष्ण अडवानी की पहल पर ही किया गया था। जाहिर है कि सावरकर और भगत सिंह की तुलना नहीं की जा सकती है अतः ‘सावरकर के जवाब में भगत सिंह’ का तर्क शहीदे आजम के प्रति श्रद्धाभाव को कम करता है जबकि भाजपा समेत किसी भी अन्य हिन्दुत्व समर्थक राजनीतिक दल का यह मन्तव्य नहीं हो सकता। असलियत तो यह है कि जनसंघ (भाजपा) के टिकट पर भगत सिंह के सगे भाई कुलतार सिंह व राजेन्द्र सिंह विधायक तक रहे हैं।
अतः पूरे मामले को कांग्रेस व भाजपा के आपसी विवाद से ऊपर रख कर देखा जाना चाहिए। यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि भगत सिंह को भारत रत्न देने की मांग पंजाब से सांसद मनीष तिवारी ने प्रधानमन्त्री को एक खत लिख कर उठाई और उसके बाद राज्यसभा में मंगलवार को जब जलियांवाला बाग राष्ट्रीय स्मारक संशोधन विधेयक पारित हुआ तो उस बहस में भाग लेते हुए कांग्रेस के सदस्य प्रताप सिंह बाजवा ने उठाई। इसकी वजह हो सकती है और उसके राजनीतिक कारण भी हो सकते हैं मगर इससे भगत सिंह की शहादत पर कोई असर नहीं पड़ता। एक राष्ट्र के रूप में हमें अपनी उन वरीयताओं को तय करना है जो आगे आने वाली पीढि़यों को आगे बढ़ने की प्रेरणा दे सकें।
जलियांवाला बाग 1919 में ही हो गया था और उस समय एक अबोध बालक के रूप में भगत सिंह ने इसे देखा होगा मगर यह घटना ऐसी थी जिसका असर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेजों की दमनकारी शासन शैली के रूप में परखा गया था। अतः हमें ध्यान रखना होगा कि हमारे महापुरुष आज के हमारे कामों से ही कहीं लघुता के घेरे में न घिरें, इसलिए हमें हाेश से काम लेना होगा और सियासी जोश को दरकिनार करना होगा। सियासत के लिए और बहुत से मुद्दे हैं।