पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी को ‘भारत रत्न’ से अलंकृत करके सरकार ने राजनीति के राजपक्ष के उस दिव्य दीप का सत्कार किया है जो लोकतन्त्र में जनता की शक्ति की चमक से दैदीप्यमान रहता है। भारत की राजनीति जिन ध्रुव तारों के चारों तरफ समय-समय पर घूमती रही है उनमें से एक नाम निःसंकोच रूप से प्रणवदा का कहा जा सकता है। कुछ समालोचक उन्हें इस वर्ष दिये गये इस सम्मान को प. बंगाल की राजनीति के परिप्रेक्ष्य में भी देख रहे हैं क्योंकि इस राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा अपनी जगह बनाने के लिए कुलबुला रही है परन्तु श्री मुखर्जी के व्यक्तित्व को प. बंगाल तक सीमित करना अन्याय होगा क्योंकि उनकी राजनीति दलगत सीमाओं से भी पार भारत की प्रतिष्ठा को अंतर्राष्ट्रीय जगत तक में सम्मानजनक स्थान दिलाने की रही है।
इसका सबसे बड़ा प्रमाण अमेरिका से हुआ वह परमाणु करार ही है जिसके लिए डा. मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार तक को दांव पर लगा दिया था। यह प्रणवदा ही थे जिन्होंने वाशिंगटन जाकर वहां के व्हाइट हाऊस में बैठे तत्कालीन राष्ट्रपति जार्ज बुश से दो टूक तरीके से कहा था कि परमाणु समझौता तब तक नहीं हो सकता जब तक कि भारत की संसद इसकी स्वीकृति न दे दे। यह विदेश मन्त्री की हैसियत से उन्होंने तब कहा था जबकि विदेशों से किसी प्रकार के करार के लिए भारत की सरकार को संसद से मंजूरी लेनी जरूरी नहीं होती मगर प्रणवदा जानते थे कि परमाणु करार कोई सामान्य समझौता नहीं है जिसे करके सरकार संसद में केवल घोषणा भर कर दे। दोनों देशाें के बीच में यह ऐसा ऐतिहासिक समझौता था जिसका असर अंतर्राष्ट्रीय जगत में भारत की हैसियत पर पड़े बिना नहीं रहेगा और इसके लिए भारत के उन लोगों की स्वीकृति जरूरी होगी जिन्होंने उनकी सरकार को सत्ता में बैठाया है मगर प्रणवदा यह समझौता करके भारत की आने वाली पीढि़यों का भविष्य सुरक्षित करना चाहते थे और इस तरह करना चाहते थे कि इस समझौते की किसी भी धारा या उपधारा में भारत को अमेरिका के मुकाबले छोटा करके न देखा जाये।
वह बराबरी के स्तर पर दो संप्रभु देशाें के बीच होने वाले इस समझौते से अमेरिका को भी इस तरह बांधना चाहते थे कि वह किसी भी सूरत में अपना रौब कभी भी गालिब न कर सके। यही वजह थी कि उन्होंने इस समझौते पर तब तक दस्तखत करने से इंकार कर दिया था जब तक कि अमेरिका की पूरी संसद उस पर अपनी मुहर न लगा दे। इसके लिये उन्होंने तत्कालीन अमेरिकी विदेश मन्त्री कोंडालिजा राईस को भी बैरंग वापस लौटा दिया था और कह दिया था कि समझौते की शर्तें भारत को तभी मान्य होंगी जब कि अमेरिकी कांग्रेस की इस पर मुहर लग जायेगी। इसके समानान्तर भारत की संसद में तब एक ओर विपक्ष की प्रमुख पार्टी भाजपा और दूसरी तरफ सरकार को समर्थन देने वाले वामपंथी दल ही समझौते की राह में रोड़े अटका कर सरकार को चुनौती दे रहे थे तो लोकसभा में प्रणवदा ने इस चुनौती का जो जवाब दिया था वह भारत के संसदीय इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों में दर्ज किया जा चुका है।
उन्होंने कहा था कि ‘‘जनता ने हम पर विश्वास रखते हुए ही हमें इस सदन में चुनकर भेजा है और हमें सत्ता सौंपी है। अतः हमें अपने ऊपर विश्वास होना चाहिए कि हम जो कुछ भी कर रहे हैं वह राष्ट्रहित में है और आने वाली पीढि़यों के भविष्य को सुन्दर बनाने के लिए है।’’ दरअसल यह एक राजनीति का ऐसा समग्र उज्वल पक्ष है जो उसे ‘राजनेता’ साबित करने के लिए काफी है। यही वजह है कि प्रणवदा को आज के दौर का राजनेता कहा जाता है। राजनेता तात्कालिक सफलता को नहीं देखता है बल्कि वह दीर्घकालिक परिणामों पर सोचता है। इसीलिए उन्होंने हर सरकार के लिए यह जरूरी बना दिया कि जब भी विदेशों से सम्बन्ध में कोई रणनीतिक बदलाव हो तो संसद को विश्वास में लिया जाना चाहिए। यही भारत का सच्चा लोकतन्त्र है जो लोकलज्जा से चलता है।
हकीकत तो यह है कि उन्होंने वित्त व रक्षा मन्त्री रहते हुए जो फैसले रक्षा, कृषि, ग्रामीण, बैंकिंग क्षेत्र के लिए लिये थे उन पर अगर बेसाख्ता तरीके से अमल किया गया होता तो आज वे विवाद सुर्खियों में न होते जिन्हें लेकर आम जनता भारी सोच में दिखाई पड़ रही है। रक्षा क्षेत्र में भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उन्होंने जो ‘आफसेट’ खरीद नीति शुरू की थी वह उस दूरदर्शिता से परिपूर्ण थी जिसके चलते न केवल भारत में इस क्षेत्र में रोजगार के नये अवसर पैदा होते बल्कि कालान्तर में भारत रक्षा उपकरणों का निर्यातक देश भी बनता। इसी प्रकार कृषि क्षेत्र में दलहन के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने जो पायलट परियोजना शुरू की थी उसके प्रतिफल से ही हम दालों के आयात से मुक्ति पा सके हैं। प्रणवदा की सफलता के आयाम इतने अधिक हैं कि उनकी फेहरिस्त बहुत लम्बी हो सकती है मगर राष्ट्रपति भवन में पहुंच कर उन्होंने आम आदमी के राष्ट्रपति के रूप में काम करना शुरू किया और लोगों को सन्देश दिया कि भारत की शानदार विरासत के वे पहले साझीदार हैं।
अतः उन्हें वैचारिक रूप से क्रान्तिकारी गांधीवादी कहना गांधी दर्शन का वह आन्तरिक भाव है जो सत्ता से सीधे आम आदमी को जोड़ेे रखने की पुरजोर वकालत करता है। उनके साथ ही गायक व संगीतकार श्री भूपेन हजारिका व नानाजी देशमुख को भी भारत रत्न दिया गया है। श्री हजारिका ऐसे शास्त्रीय गायक रहे हैं जिन्होंने इस गायकी को जनपक्ष दिया और भारतीय संस्कृति के गान को उत्कृष्टता प्रदान की। उनके गाये गाने बांग्लादेश तक मंे लोकप्रिय हैं। नानाजी देशमुख सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय रहे। अपनी विशिष्ट विचारधारा के घेरे में उन्होंने उन बन्धनों को तोड़ने की कोशिश भी की जो उनके व्यक्तित्व को सीमित रख सकते थे मगर राजनीति भारत की रगों में बहता रक्त है। अतः अलंकरण भी राजनीति से परे नहीं हैं। दरअसल मरणोपरान्त भारत रत्न देने की परंपरा स्व. लाल बहादुर शास्त्री के लिए शुरू की गई थी वरना यह सम्मान केवल जीवित हस्तियों को ही दिया जाता था। जब से यह परिपाटी शुरू हुई तब से इस पर राजनीति भी शुरू हो गई।