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भीलवाड़ा और आगरा माॅडल का उलझाव?

लाॅकडाऊन के अगले चरण के लिए तैयार बैठे भारत के सामने अब सबसे बड़ी चुनौती जमीनी आर्थिक गतिविधियों को चालू रखने की है।

लाॅकडाऊन के अगले चरण के लिए तैयार बैठे भारत के सामने अब सबसे बड़ी चुनौती जमीनी आर्थिक गतिविधियों को चालू रखने की है। सबसे पहले यह समझ लिया जाना चाहिए कि भारत के विकास और आय स्रोतों पर पहला अधिकार गरीब आदमी का ही होता है और लोकतांत्रिक व्यवस्था इसी सिद्धान्त के आधार पर प्रगति का पहाड़ चढ़ती है मगर कोरोना वायरस को मात देने के लिए जिस तरह ‘भीलवाड़ा’ माॅडल और  ‘आगरा’ माॅडल के बीच जंग जैसा माहौल बनाया जा रहा है उससे राजनैतिक हवाबाजी को भी शह मिलनी शुरू हो गई है।  चाहे भीलवाड़ा माॅडल हो या आगरा माॅडल, दोनों की सफलता का राज कोरोना प्रसार रोकने हेतु प्रसासकीय बन्दोबस्त की मुस्तैदी में छिपा हुआ है। पुलिस व चिकित्सा कर्मियों की सावधानी और जिला प्रशासन की सावधानी ने दोनों ही माॅडलों को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
बेशक इन दोनों इलाकों की राज्य सरकारों के सरपरस्तों की  दृढ़ इच्छा शक्ति और निर्णय क्षमता से ही एेसा हो पाया। अतः भीलवाड़ा में कांग्रेस के मुख्यमन्त्री अशोक गहलौत और आगरा में उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ की दूरदर्शिता का लोहा मानना ही होगा। इसमें विरोधाभास कहां है? और कांग्रेस व भाजपा कहां है? दोनों ही राज्यों का प्रशासनिक अमला न कांग्रेसी है न भाजपाई बल्कि वह सरकारी नियमों से बन्धी लोकसमर्पित व्यवस्था है। कोरोना के प्रकोप को रोकने के लिए दोनों ही राज्यों की सरकारों ने अपने दायित्व का निर्वाह शुद्ध अन्तःकरण से किया और पूरे देश के सामने अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया। इसमें शोर-शराबा करने की कतई भी जरूरत नहीं है और न ही चिकित्सा कर्मियों व पुलिस कर्मियों से श्रेय छीनने की जरूरत है। लोकतन्त्र में चुने हुए प्रतिनिधियों के निर्देशन में ही पूरा प्रशासन इसलिए चलता है जिससे जनता के दुख-दर्दों का निवारण करने में वे समूचे सरकारी अमले को मानवीय रुख रख कर इंतजाम करने को बाध्य किया जा सके। यह तो लोकतन्त्र का मूल सिद्धान्त होता है। इस मानवीय चेहरे के चलते ही प्रशासन का हर फैसला आम आदमी के हित को सर्वोपरि रख कर ​लिया जाता है।
आज कोरोना नियमों को लागू कराते हुए पंजाब के पटियाला में जिस तरह एक पुलिस कर्मी के साथ बर्बर व्यवहार किया गया और उसकी एक बाजू को ही हथियार से काट दिया गया उससे यही साबित होता है कि कुछ तत्व हिंसा के सहारे समूची व्यवस्था को तहस-नहस कर देना चाहते हैं और कोरोना के विरुद्ध आम नागरिक के संकल्प को ढीला कर देना चाहते हैं, परन्तु कुछ दिनों पहले जिस प्रकार गुजरात के सूरत शहर में गरीब कामगारों व मजदूरों का व्यवहार रहा वह इस श्रेणी में नहीं रखा जा सकता क्योंकि उन्होंनेे पेट की क्षुधा को शान्त करने के लिए खाने-पीने के सामान की छीन-झपट की। अतः निष्कर्ष यह निकलता है कि हमें लाॅकडाऊन की बढ़ने वाली अवधि के लिए सामाजिक मोर्चे के साथ ही आर्थिक मोर्चे पर भी तैयार हो जाना चाहिए। यह तैयारी दुतरफा करनी होगी। एक तो लोगों को समाज में आपसी भौतिक दूरी (फिजीकल डिस्टेंसिंग) बना कर, दूसरे उनकी आर्थिक स्थिति को हालात से लड़ने लायक बना कर। समाज में भौतिक दूरी के नियम को बरकरार रखने के लिए जरूरी है कि आर्थिक स्थिरता का वातावरण बने और इसके लिए भारत के कुल 26 करोड़ परिवारों में से 13 करोड़ परिवारों को लक्ष्य पर रखते हुए उनके बीच से एेसे परिवारों की निशानदेही करनी होगी जिनकी आमदनी पांच हजार रुपए मासिक के लपेटे में है। एेसे सभी परिवारों की निशानदेही पूर्व वित्त मन्त्री श्री पी. चिदम्बरम के अनुसार उज्जवला गैस स्कीम, आयुष्मान भारत स्कीम, मनरेगा स्कीम के गरीबी की सीमा रेखा से नीचे रहने वाली बीपीएल सूची से मिलान करके और आधार कार्ड से जोड़ने पर आसानी से उपलब्ध टैक्नोलोजी का प्रयोग करके पांच दिन के भीतर की जा सकती है।
एेसे चिन्हित परिवारों के खाते में यदि पांच हजार रुपए प्रति जनधन खाता में जमा करा दिये जायें तो बढ़ने वाले लाॅकडाऊन समय को आसानी से कोरोना का मुकाबला करने योग्य बनाया जा सकता है। हमें इस सुझाव पर अमल करने में इसलिए नहीं हिचकिचाना चाहिए कि यह पूर्व वित्त मन्त्री द्वारा दिया गया है। कुछ भी हो, श्री चिदम्बरम इस देश के ही माने हुए आर्थिक दिमाग हैं। भारत के विकास में पहली भागीदारी गरीबों की ही बनती है और उनका पहला हक भी आय स्रोतों पर होता है। डा. मनमोहन सिंह ने प्रधानमन्त्री रहते हुए यह ऐतिहासिक गलती कर दी थी कि उन्होंने कह दिया था कि आय स्रोतों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का होता है। कांग्रेस पार्टी को इसका बहुत बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ा है। इसी प्रकार समाजवाद का झंडा उठाये घूमने वाले मुलायम सिंह यादव भी उस जमाने में गला तर कर-करके हांक लगाया करते थे कि बस दो वर्गों को ही इमदाद की जरूरत है-एक तो मुसलमान और दूसरा किसान। उन्होंने भी गरीबी की परिभाषा को अपमानित करने का काम किया था।  सभी गरीब परिवारों के खातों में सरकार यदि पांच हजार रुपए जमा कराती है तो उसका कुल खर्च 65 हजार करोड़ रुपए के लगभग आयेगा। यह धनराशि भारत आसानी से वहन कर सकता है लेकिन इससे बात तभी बनेगी जब उन इलाकों में कृषि व लघु उद्योगों की चहचहाट सुनाई देने लगे जहां कोरोना ने कोई असर नहीं डाला है। कोरोना संक्रमित इलाकों में भीलवाड़ा और आगरा माॅडल अपनाते हुए हमें उत्पादनशील गतिविधियों को भी शुरू करने पर विचार करना होगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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