भव्य रूप से नामित विपक्षी समूह, इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इनक्लूसिव अलायंस, लगभग खत्म हो चुका है। यह नाम राहुल गांधी के परदे के पीछे के सलाहकारों ने इस उम्मीद में सुझाया था कि लोग इस नाम को देश के साथ जोड़ देंगे और इस तरह विपक्षी समूह को बड़ा फायदा मिलेगा। हालांकि जिस दिन से बिंदीदार इंडिया गठबंधन का गठन हुआ है उसी दिन से वास्तव में वह मजबूत स्टार्टर साबित नहीं हो सका। इसकी शुरुआत होती है इसके पीछे की मुख्य ताकत अर्थात जद (यू) नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के इसे छोड़ने से। वह पहले की तरह मुख्यमंत्री बने रहने के लिए भाजपा के पास वापस चले गए हैं। यह गठबंधन के लिए हतोत्साहित करने वाला झटका था। बिहार में लोकसभा चुनाव में जद (यू), लालू प्रसाद की राजद और कांग्रेस पार्टी के गठबंधन में विपक्ष के अच्छा प्रदर्शन करने की उम्मीद एक बार फिर नीतीश की एनडीए में वापसी से टूट गई है।
बिहार में लोकसभा की 40 सीटें हैं। 2019 के चुनाव में भाजपा और जद (यू) ने राम बिलास पासवान की लोकजन शक्ति पार्टी के साथ क्रमशः 17, 16 और 6 सीटें जीती थीं। कांग्रेस को मात्र एक जबकि राजद को एक भी सीट नहीं मिली थी। नीतीश कुमार के एनडीए में वापस आने से कुछ दिन पहले किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन को आगामी चुनाव में तीस से अधिक सीटें जीतने की उम्मीद है।
उल्लेखनीय है कि 2019 के चुनाव में एनडीए को कुल मतदान का 53 प्रतिशत से अधिक वोट मिले थे। इस बार भी नतीजे अलग होने की संभावना नहीं है। महाराष्ट्र में जहां शिवसेना (उद्धव), राकांपा (शरद पवार) और कांग्रेस गठबंधन के अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद थी वहां सत्तारूढ़ भाजपा-शिवसेना (शिंदे) और राकांपा (अजित पवार) ने हाल के दिनों में इस पहल को जब्त कर लिया है। अब किसी को विश्वास नहीं है कि विपक्षी गठबंधन अच्छा प्रदर्शन करेगा। इस बीच अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन और दुबई में पहले हिंदू मंदिर के उद्घाटन ने मोदी सरकार की चमक बढ़ा दी है। वहीं, हाल में कांग्रेस और राकांपा से नेताओं के किनारा करने की घटना ने विपक्ष को हतोत्साहित कर दिया है।
भाजपा, शिव सेना (शिंदे) और राकांपा (अजित पवार) की सत्तारूढ़ तिकड़ी में जल्द ही और भी नेताओं के शामिल होने की उम्मीद है। यहां काबिले जिक्र है कि पिछले जुलाई में शुरुआती दिनों में नीतीश के बाद विपक्षी गठबंधन की मुख्य समर्थक ममता बनर्जी थीं लेकिन इसके बाद से टीएमसी प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने गठबंधन से मुंह मोड़ लिया है। उधर आप सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल, जिनके लिए कोई गुप्त चाल, कोई बहाना सीमा से बाहर नहीं है, ने पंजाब में 13 सीटों में से एक भी सीट की पेशकश नहीं की और दिल्ली की सात सीटों में से केवल एक सीट की पेशकश की।
संक्षेप में, यह गांधी परिवार के खिलाफ अविश्वास का वोट था, जिन्होंने बेहतर जानने के बावजूद पार्टी पर अपनी पकड़ ढीली करने से इन्कार कर दिया और इसे अपने साथ कब्र में ले जाने का दृढ़ संकल्प किया। लोकसभा चुनाव से पूर्व कांग्रेस की स्थिति खराब है जिसका सबूत पार्टी के वरिष्ठ नेताओं द्वारा लगातार कांग्रेस छोड़ने से मिलता है। ताजा मामला महाराष्ट्र के दो बार के कांग्रेसी मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण का भाजपा में जाना और पूर्व सांसद व केंद्रीय मंत्री मिलिंद देवड़ा का शिवसेना (शिंदे) में जाना था। सोनिया गांधी ने खुद लोकसभा को अलविदा कह दिया है और राज्यसभा के पिछले दरवाजे से संसद में प्रवेश करना पसंद किया है। हालांकि अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव यूपी से संसद में एक और गांधी के प्रवेश का समर्थन करेंगे या नहीं।
भविष्य को देखते हुए अखिलेश नहीं चाहेंगे कि प्रियंका का यूपी में सत्तारूढ़ भाजपा के लिए मुख्य चुनौती के रूप में उनकी स्थिति के लिए खतरा बनें। जैसा कि मोदी ने बार-बार कहा है कि उनका लक्ष्य भाजपा के लिए 370 सीटें और एनडीए में भाजपा के सहयोगियों के लिए 30 सीटें हैं। इसकी तुलना उस बात से करें जो ममता बनर्जी ने कांग्रेस के लिए भविष्यवाणी की है कि कांग्रेस चालीस या उससे भी कम सीटें जीत पाएगी जो कि 'आईएनडीआई' गठबंधन का हिस्सा है तब यह काफी हैरान करने वाला होगा।
– वीरेंदर कपूर