विगत मंगलवार को बिहार विधानसभा में जो कुछ भी हुआ है वह भारत के महान लोकतन्त्र पर ऐसा बदनुमा दाग है जिसकी मिसाल स्वतन्त्र भारत के संसदीय इतिहास में दूसरी नहीं मिलती है। विधानसभा के भीतर पुलिस को बुला कर चुने हुए जन प्रतिनिधियों के साथ जबरन कोशिशें करना और धक्का-मुक्की करते हुए उन्हें सदन से बाहर करना और सड़कों पर भी उनसे बदसलूकी करना एेसा कृत्य है जो लोकतन्त्र को पुलिस के हवाले छोड़ने का एेलान करता है। विधानसभा में ‘बिहार विशेष सशस्त्र पुलिस विधेयक’ के पारित होते समय सदन के भीतर ऐसे दृश्य प्रस्तुत करके इस राज्य की महान जनता का घनघोर अपमान किया गया और ऐलान किया गया कि पुलिस बल के सहारे सरकार विधेयक को पारित करायेगी। यह कोई साधारण घटना नहीं है जिसे लेकर नई दिल्ली में भी गंभीर प्रतिक्रिया हुई और विपक्षी सांसदों के एक प्रतिनिधिमंडल ने राज्यसभा में विपक्ष के नेता श्री मल्लिकार्जुन खड़गे के नेतृत्व में इस घटना को लोकतन्त्र का कत्ल जैसा करने की संज्ञा दी। राज्यसभा में भी इस मामले को सांसद मनोज झा ने उठाना चाहा जिसकी इजाजत राज्य का मुद्दा होने की वजह से सभापति नहीं दी, जो कि पूरी तरह नियमानुसार ही था।
सवाल यह नहीं है कि बिहार में किस पार्टी या गठबन्धन की सरकार है बल्कि सवाल यह है कि सरकार ने जो काम किया है वह कहां तक उन संवैधानिक मर्यादाओं के अनुकूल है जो संसदीय प्रणाली में जनप्रतिनिधियों को सदन के भीतर निर्भय होकर अपनी बात कहने की खुली छूट देता है? यदि सदन के भीतर ही पुलिस बुला कर विधायकों को पीटा जाता है और महिला विधायकों के बाल पकड़ कर उन्हें सदन से बाहर किया जाता है तो निश्चित रूप से यह विधायिका का ही संवैधानिक रुतबा ‘पामाल’ करता है। नहीं भूला जाना चाहिए कि सदन के भीतर जो भी सत्तारूढ़ व विपक्ष के विधायक बैठते हैं उन सबको जनता ही एक वोट की ताकत से चुन कर भेजती है। यह वोट की ताकत ही जो एक दल या दलों के गठबन्धन को बहुमत देती है और दूसरे पक्ष को अल्पमत रहने की वजह से विपक्ष में बैठाती है। सदन के भीतर हर विधायक के अधिकार बराबर रहते हैं और अध्यक्ष इन अधिकारों का संरक्षण करते हैं। यदि विशेष सशस्त्र पुलिस विधेयक के बारे में विपक्षी विधायक कुछ विशेष सवाल उठा रहे थे जिनका सम्बन्ध सीधे आम जनता के मानवाधिकारों से है तो माननीय नीतीश कुमार की सरकार को उनका उत्तर देकर अपने तर्कों से उन्हें सन्तुष्ट करना चाहिए था मगर पुलिस बुला कर उन्हें सदन से बाहर फिकवाना स्वयं अपने ऊपर भरोसा न होना जैसा ही है।
लोकतन्त्र में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं होता है मगर जब सदन के भीतर ही हिंसा का नाच होने लगे तो सन्देश इसके विपरीत जाता है। विधेयक में प्रावधान है कि बिहार मिलिट्री पुलिस की 21 बटालियनें विशेष पुलिस बल में तब्दील हो जायेंगी जो बिहार की औद्योगिक इकाइयों के ‘केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल’ की तर्ज पर काम करेंगी। इस पुलिस बल को अधिकार होगा कि वह बिना वारंट के ही किसी भी नागरिक को गिरफ्तार कर सके या पूछताछ के लिए अथवा तलाशी के लिए मनमाने फैसले लेकर काम कर सके। इस विधेयक का विरोध विपक्षी विधायक पुरजोर तरीके से कर रहे थे और विधेयक के पारित होने से पहले सरकार से तीखे प्रश्न पूछ रहे थे। इससे इस बात का भी पता चलता है कि विधेयक के बारे में नीतीश सरकार ने विपक्ष से कोई संवाद कायम करना जरूरी नहीं समझा और सीधे विधेयक को पारित कराने की जिद ठान ली। ध्यान रखा जाना चाहिए कि बिहार भारत में लोकतन्त्र का ‘जनक’ कहा जाता है। चौथी शताब्दी तक यहां लोक गणराज्य चला करते थे। छठी शताब्दी तक यह विश्व का शिक्षा का सबसे बड़ा केन्द्र था जिसका प्रमाण नालन्दा विश्वविद्यालय के अवशेष हैं और सबसे ऊपर वर्तमान में इसी राज्य के मतदाताओं को सर्वाधिक कुशाग्र व राजनीतिक रूप से सचेत मतदाता कहा जाता है। यही प्रदेश था जो स्वतन्त्रता के बाद श्रीकृष्ण बाबू के मुख्यमन्त्रीत्व काल में पूरे देश में सुशासन के मामले में प्रथम नम्बर पर आता था। सबसे ऊपर नीतीश बाबू को यह विचार करना चाहिए कि पिछले विधानसभा चुनावों में उनके गठबन्धन को विपक्षी गठबन्धन से मात्र 23 हजार अधिक मत मिले हैं जिसके चलते उनकी सरकार काबिज हुई है। अतः इन परिस्थितियों में विपक्ष की आवाज को पुलिस बल की मार्फत कुचलवा कर वह स्वयं अपनी विश्वसनीयता समाप्त कर रहे हैं। लोकतन्त्र की एक बहुत बड़ी खूबी यह भी होती है कि जिस नेता की विश्वसनीयता एक बार संदिग्ध हो जाती है उसे सुधारने में उसे पूरा जीवन बीत जाता है परन्तु लोकतन्त्र किसी व्यक्ति का मोहताज नहीं होता बल्कि वह उन संवैधानिक शक्तियों से चलता है जो संविधान आम आदमी को देता है। सदन में बैठे जनप्रतिनिधि इन्हीं शक्तियों की नुमाइन्दगी करते हैं। संवाद से चलने वाले लोकतन्त्र को जब पुलिस की ताकत से चलाने की जुर्रत की जाती है तो सबसे पहले वहीं संविधान कराहने लगता है जिसकी शपथ लेकर ये जनप्रतिनिधि सदन के भीतर बैठने योग्य बनते हैं। अतः जरूरत इस बात की है कि संवैधानिक मर्यादाओं को सरकारों की कीमत पर भी बरकरार रखा जाये तभी तो भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र कहला सकता है।