केन्द्र में सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी आजकल जिस तरह दक्षिण भारत में अपने पैर पसारने की कोशिशों में लगी हुई है उसे देख कर कहा जा सकता है कालान्तर में केवल उत्तर भारत की ही पार्टी समझी जाने वाली भाजपा दक्षिण से अपने रिश्ते इस तरह सुधारना चाहती है कि 2024 के आगामी लोकसभा चुनावों में इसे कुछ सीटें इन राज्यों से भी मिल जायें। परन्तु यह कार्य इतना आसान नहीं लगता क्योंकि पूर्व में भी पार्टी अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री कृष्णमूर्ति को बना चुकी है परन्तु उसका असर भी धुर दक्षिणी राज्यों में नाम मात्र का ही हुआ। परन्तु 2014 में केन्द्र में मोदी सरकार के गठन होने के बाद एक अन्तर जरूर आया है कि धुर दक्षिणी राज्यों में भाजपा के प्रति कुछ आकर्षण जरूर बढ़ा है। इनमें केरल का तिरुवनन्तपुरम् व तमिलनाडु का कन्याकुमारी क्षेत्रों का नाम विशेष रूप से लिया जा सकता है और इस क्रम में कोयम्बटूर को भी रखा जा सकता है। कर्नाटक को छोड़कर दक्षिण भारत के शेष राज्यों में भाजपा अपनी स्थिति को मजबूत करने का प्रयास कर रही है। तेलंगाना में भी जरूर इसने कुछ जोर-आजमाइश में आने के प्रयास किये हैं।
हाल ही में दक्षिण भारत के कुछ राज्यों के कुछ कांग्रेसी नेता भाजपा में शामिल हुए हैं परन्तु भले ही उनका जनाधार न हो लेकिन इससे राजनीतिक संदेश को जाता ही है। इनमें प्रमुख नाम कांग्रेस के दिग्गज रहे पूर्व रक्षामन्त्री श्री ए.के. एंटोनी के पुत्र अनिल एंटोनी का नाम लिया जा रहा है। अनिल एंटोनी की सबसे बड़ी काबलियत ही यही है कि वह श्री ए. के. एंटोनी के पुत्र हैं। कांग्रेस में सूचना प्रौद्योगिकी विभाग में कुछ काम देखा करते थे। दूसरा नाम चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के प्रपौत्र सी.आर. केसवन का है। उनकी भी प्रमुख योग्यता यही है कि वह स्वतन्त्र भारत के पहले भारतीय गवर्नर जनरल राजगोपालाचारी के प्रपौत्र हैं। वह कांग्रेस में एक प्रवक्ता के रूप में कभी-कभी टी.वी. चैनलों में दिखाई पड़ जाया करते थे। तीसरा नाम संयुक्त आन्ध्र प्रदेश के अन्तिम मुख्यमन्त्री श्री किरण कुमार रेड्डी का है। वह पिछले आठ साल से गुमनामी की राजनीति कर रहे थे। उन्होंने आन्ध्र प्रदेश के विभाजन का पुरजोर विरोध किया था और यहां तक कहा था कि आन्ध्र विभाजित हो गया तो वह राजनीति से ही संन्यास ले लेंगे। तेलंगाना गठित होने के बाद उन्होंने एेसा किया भी और वह लगभग राजनैतिक अज्ञातवास में चले गये। कांग्रेस ने जब किरण कुमार रेड्डी को मुख्यमन्त्री बनाया था तो राजनैतिक क्षेत्रों में आश्चर्य व्यक्त किया गया था क्योंकि वह राजनैतिक रूप से बहुत हल्के माने जाते थे और उनकी छवि जन नेता की नहीं थी जबकि आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमन्त्री स्व. पी.वी. नरसिम्हाराव से लेकर नीलम संजीव रेड्डी व टी. रोसैया जैसे महारथी हुआ करते थे।
बेशक शिखर स्तर पर भाजपा इन सितारों का प्रदर्शन कर सकती है। मगर जमीनी राजनीति इससे प्रभावित हो एेसा नहीं माना जा सकता। इनमें से किसी एक नेता के विचार हाशिये पर भी कभी भाजपा के विचारों के आसपास तक नहीं देखे गये हैं। और हकीकत यह है कि भाजपा का जहां-जहां भी विस्तार अभी तक देश में हुआ है वह जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं की कड़ी मेहनत और वैचारिक प्रतिबद्धता की वजह से ही हुआ है। दक्षिण की राजनीति उत्तर भारत से बहुत भिन्न मानी जाती है और यहां की राजनीति में सबसे बड़ी भूमिका मानवतावाद और सामाजिक न्याय जैसे सिद्धान्तों की रही है। जबकि इसके उलट कर्मकांडी हिन्दू धर्म यहां अपने पूरे उछाल पर दिव्य स्वरूप में भी नजर आता है। परन्तु इन राज्यों की विशिष्ट संस्कृति इनके नागरिकों को अपने मोहपाश में भी कस कर बांधे रखती है। अतः इन राज्यों में राष्ट्रवाद आकर वृहद स्वरूप ले लेता है और उसका विस्तार नागरिक के मजबूत होने से आकर जुड़ जाता है। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने 1956 में जब कांग्रेस से अलग होकर अपनी पृथक स्वतंत्र पार्टी बनाई थी तो उसे तमिलनाडु में ही ज्यादा समर्थन नहीं मिल पाया था और यहां की द्रविड़ पार्टियां ही 1967 में भारी जन समर्थन से सत्ता तक पहुंच गई थीं। राजा जी की पार्टी को मुख्य रूप से भारत के पूर्व राजे-रजवाड़ों का ही समर्थन मिला था और वह भी दक्षिण भारत के बाहर अन्य राज्यों में। भाजपा प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रयिता के बूते पर दक्षिण भारत के लोगों को अपनी विचारधारा की तरफ खींचने में तभी सफल हो सकती है जबकि वह दक्षिण की राजनीति की जमीनी हकीकतों को आत्मसात करे और जमीनी कार्यकर्ताओं को अपने साथ जोड़े। दक्षिण भारत में भाजपा को अपने विस्तार के लिए समाज के हर वर्ग में अपनी पैठ बढ़ानी होगी। दक्षिण भारत की 130 सीटों पर भाजपा की नजर है, इसलिए वह अपना जनाधार बढ़ाने के लिए हर सम्भव प्रयास कर रही है।