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भाजपा का विश्वसनीय विमर्श

यह सत्य प्रत्येक राजनीतिक विश्लेषक को खुले दिल से स्वीकार करना चाहिए कि आज की राजनीति में ‘विपक्ष की विश्वसनीयता’ का संकट बना हुआ है जिसकी वजह से सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा के विमर्श से लोहा लेना किसी भी राजनीतिक दल के लिए संभव नहीं हो पा रहा है।

यह सत्य प्रत्येक राजनीतिक विश्लेषक को खुले दिल से स्वीकार करना चाहिए कि आज की राजनीति में ‘विपक्ष की विश्वसनीयता’ का संकट बना हुआ है जिसकी वजह से सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा के विमर्श से लोहा लेना किसी भी राजनीतिक दल के लिए संभव नहीं हो पा रहा है। दूसरी तरफ 2014 से श्री नरेन्द्र मोदी ने ‘लोक-राजनीति’ के सभी ‘अवयव’ इस प्रकार बदल डाले हैं कि भाजपा के विरोध में खड़े किये जा रहे विमर्श बीते युग की राजनीति के ‘अवशेष’ लगते हैं। बेशक इस सत्य से बहुत से विद्वान, राजनीतिक विश्लेषक मतभेद रखेंगे और इसे ‘भारत की अवधारणा’ के मूल विचार को प्रदूषित तक कहने से गुरेज नहीं करेंगे परन्तु वास्तविकता यह है कि आजादी के समय 33 करोड़ की आबादी से बढ़कर आज का भारत 133 करोड़ लोगों की धरती वाला देश बन चुका है और इसकी बहुत बड़ी जनसंख्या ‘मध्यम वर्ग’ कहलाती है। बेशक भारत की इस आर्थिक-सामाजिक परिस्थिति में परिवर्तन पिछले 74 सालों में भारतीय राजनीति में आये बदलावों का ही प्रतिफल है। 
बदलाव जब केवल आर्थिक या सामाजिक चेतना के स्तर पर ही नहीं आता है बल्कि मानसिक स्तर पर भी आता है। अतः भारत की 35 वर्ष की आयु तक की 65 प्रतिशत जनता के सामने राजनीतिक मुद्दों में भी बदलाव आया है। इनका सम्बन्ध भौतिक  परिवर्तन से सबसे ज्यादा है क्योंकि पिछले बीस वर्षों के दौरान ही जिस प्रकार औद्योगीकरण का स्वरूप ‘निजी उत्पादकता’ में विकसित हुआ है इसने समूची राजनीतिक प्रक्रिया को भीतर तक से झिझोड़ कर रख दिया है। जिसके चलते अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अर्थव्यवस्था के समन्वीकरण व एकीकृत होने की वजह से ‘राष्ट्रवाद’  का स्वर मुखर होकर निजी उत्थान पर केन्द्रित हो रहा है। अतः भारतीय समाज की वे वर्जनाएं मुखर हो रही हैं जिन्हें अब तक राजनीतिक आग्रहों के चलते दबा कर रखा जाता था। इनमें सर्वप्रमुख भारत में अल्पसंख्यकों विशेष रूप से मुस्लिमों के कथित तुष्टीकरण का विषय है। दरअसल तुष्टीकरण का सीधा सम्बन्ध उस मानसिकता से है जो पाकिस्तान के निर्माता मुहम्मद अली जिन्ना ने भारत के मुसलमानों में पनपाई थी। यह मानसिकता मजहब की वरीयता की थी। यह वरीयता राष्ट्रीय उत्सर्ग में मजहब की नसीहतों और निर्देशों से प्रेरित होती थी जिसकी वजह से एक राष्ट्र का हिस्सा होने के बावजूद मुस्लिम समुदाय अपनी अलग पहचान से बन्धा रह सके परन्तु देश की सम्पूर्ण एकनिष्ठ समानता व बराबरी के लिए यह मानसिकता बहुत खतरनाक थी क्योंकि इसी की वजह से 1947 में भारत के दो टुकड़े हुए थे। समस्या तब ज्यादा भीषण हो जाती है जब 1971 में पूर्वी पाकिस्तान के बांग्लादेश में तब्दील हो जाने के बाद इस मानसिकता का जनाजा उठ गया मगर भारत में राजनीतिक आग्रहों में किसी प्रकार का बदलाव देखने को नहीं मिला बल्कि इसके विपरीत 1989 में मंडल कमीशन के लागू हो जाने के बाद इस मानसिकता को और ज्यादा हवा दी गई और चुनावी मैदानों में जातिमूलक पार्टियों द्वारा इसे वोटों में भुनाने की नई-नई तरकीबें निकाली गईं। सम्प्रदाय मूलक रियायतें देने की राजनीति जमीन पर दिखने लगी जिससे ‘एकनिष्ठ भारतीयता’ केवल संविधान में लिखा एक उपदेश सी बन कर रह गई। तुष्टीकरण शब्द का प्रयोग सबसे पहले डा. बाबा साहेब अम्बेडकर ने ही 1941 में लिखी उस पुस्तक में किया था जो उन्होंने ब्रिटिश लेबर पार्टी के कहने पर भारत की द्विराष्ट्रवाद की समस्या के बारे में लिखी थी। इस पुस्तक में उन्होंने भी स्वतन्त्रता की लड़ाई लड़ने वाली कांग्रेस पार्टी को ‘हिन्दू पार्टी’ कहा था और विचार व्यक्त किया था कि भारत के मुसलमानों की निष्ठा अपने मजहबी यकीनों के चलते भारतीय भूमि में न होकर अरब व अन्य मुस्लिम देशों में रहती है। जबकि इससे पिछले साल मार्च 1940 में ही जिन्ना के नेतृत्व में लाहौर मुस्लिम लीग ने अपने सम्मेलन में मुस्लिम बहुल आबादी वाले राज्यों में पृथक स्वतन्त्र व संप्रभु राज्य स्थापित करने का प्रस्ताव पारित कर दिया था और जिन्ना ने साफ कहा था कि हिन्दू बहुत भारत में मुसलमान किसी कीमत पर नहीं रह सकते क्योंकि हिन्दुओं से उनका किसी भी सामाजिक स्तर पर कोई मेल नहीं बैठता है यहां तक कि खानपान से लेकर रहन- सहन तक उनका अलग है। यह वास्तव में वह विष वमन था जो महात्मा गांधी द्वारा किये जा रहे हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रयासों को तार-तार करता था परन्तु दुर्भाग्य यह हुआ कि स्वतन्त्र भारत में एक-तिहाई मुसलमान आबादी रह जाने के बाद इस मानसिकता को मटियामेट करने के कोई प्रयास नहीं किये गये बल्कि उल्टे मुस्लिम उलेमाओं को राजनीतिक संरक्षण देकर इसे ढकने के प्रयास किये गये । 
वर्तमान समय की बदलती राजनीति में इसकी प्रासंगिकता उस राष्ट्रवाद से जाकर जुड़ती है जो बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के चलते ‘निजी उत्पादकता’ में बदल रही है और औद्योगीकरण के श्रम मूलक स्वरूप को खत्म कर रही है। मगर विपक्ष इसी मुद्दे पर उलझा हुआ है कि श्री नरेन्द्र मोदी ‘आत्मनिर्भरता’ का आह्वान करके 1991 के पहले के संरक्षणवादी दौर की तरफ लौटने की वह बात कर रहे हैं जो कभी गांधी या उनके बाद चौधरी चरण सिंह ने अपने तरीके से कही थी। दरअसल यह अर्थव्यवस्था का दबाव है जिसके जोर पर राजनीति चलती है। और इसी के भीतर सामाजिक स्तर पर विभिन्न वर्जनाओं का इलाज किया जाता है। इसे हम राष्ट्रवाद से अलग करके नहीं देख सकते क्योंकि अन्ततः इसके माध्यम से ही भारत की एकनिष्ठता तय होती है किन्तु विपक्ष में इसी मुद्दे पर विश्वसनीयता का संकट बना हुआ है।

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