देश की राजनीति में हरियाणा का उसके आकार से कहीं अधिक महत्व रहा है। वह दिल्ली का द्वार है और तीन तरफ़ से उसने दिल्ली को घेर रखा है। दिल्ली जाने के लिए हर हमलावर, तुर्क, यूनानी, अफ़ग़ान, फ़ारसी सब हरियाणा से ही गुजर कर गए थे। पानीपत की तीन लड़ाईयां भी दिल्ली के लिए लड़ी गईं। उज़बेक बाबर ने मुग़ल साम्राज्य की नींव पानीपत में जीत के बाद रखी। वर्तमान समय में भी हरियाणा और उत्तर प्रदेश दिल्ली के खिलाफ आन्दोलनों की ज़मीन रहे हैं। हरियाणा ने ही किसानों को दिल्ली जाने से एक साल रोके रखा। इसलिए हरियाणा के परिणाम से केन्द्र सरकार और भाजपा नेतृत्व को राहत मिलेगी। दिल्ली के उनके क़िले का सुरक्षा कवच कायम है। जम्मू-कश्मीर के चुनाव परिणाम का अलग महत्व है। सरकार नैशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस की बन रही है और उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री होंगे। केन्द्र सरकार की यह दूसरी कामयाबी है कि शांतिमय चुनाव हो गए और लोगों ने बेख़ौफ़ अपने लोकतांत्रिक अधिकार का इस्तेमाल किया। लोगों ने अपनी बात कह दी अब जनादेश का आदर होना चाहिए।
हरियाणा के परिणाम से भाजपा को बहुत संतोष होगा। सारे विशेषज्ञ, सारे पोलस्टर, सारे पत्रकार कह रहे थे कि वहां भाजपा की गत बनने वाली है। एक कथित विशेषज्ञ ने तो कांग्रेस को 70 सीटें दे दी थी। इन लोगों को ख़ामोश वोटर का रुझान समझ नहीं आया। प्रसिद्ध शेयर है:-
थी खबर गर्म कि 'ग़ालिब'के उड़ेंगे पुर्ज़े
देखने हम भी गए थे पर तमाशा न हुआ
भाजपा ने अपना तमाशा नहीं बनने दिया उल्टा अति आत्मविश्वास में कांग्रेस मारी गई। दिलचस्प है कि जिस अरविंद केजरीवाल की आप पार्टी का हरियाणा में खाता भी नहीं खुला, वह कांग्रेस को नसीहत दे रहे हैं कि ओवर- कॉन्फ़िडेंस से बचना चाहिए। केजरीवाल को अंदर झांकना चाहिए कि खुद को 'हरियाणा का लाल' पेश करने के बावजूद आप की यह दुर्गति क्यों बनी? बेहतर होगा कि इधर-उधर हाथ-पैर मारने की जगह वह दिल्ली और पंजाब पर केन्द्रित रहें। वह और उनकी पार्टी राष्ट्रीय विकल्प नहीं है। अगले साल फ़रवरी में दिल्ली के चुनाव हैं और उन्हें अपना क़िला बचाने के लिए बहुत ज़ोर लगाना पड़ेगा। पर उनका दबंग रवैया क़ाबिले तारीफ़ ज़रूर है।
लेकिन असली कहानी भाजपा की जीत की है जिसने इतिहास बनाया है। हरियाणा में पहली बार है कि कोई पार्टी तीसरी बार जीती है। भाजपा के बारे तो कहा जा सकता है कि वह हार के मुंह से जीत छीन कर ले गए। पिछली बार वह सरकार बनाने के लिए दुष्यंत चौटाला की जेजेपी पर निर्भर थे। जेजेपी का सफ़ाया हो गया, पर भाजपा 8 सीट बढ़ा कर अपना पूरा बहुमत हासिल करने में सफल रही। भाजपा के बारे मानना पड़ेगा कि वह हार नहीं मानते। लोकसभा चुनाव के बाद लग रहा था कि पार्टी का समर्थन कम हो रहा है, पर भाई लोगों ने खूब मेहनत की और पासा पलट दिया। बेहतर संगठन और संघ के सहयोग का फ़ायदा हुआ। कांग्रेस लोकसभा के चुनाव के बाद समझने लगी कि उनका टाइम आ गया इसलिए बहुत मेहनत करने की ज़रूरत नहीं। वह इस ग़लत फ़हमी में मारे गए कि शासन विरोधी भावना का लाभ होगा लेकिन लहर शासन के पक्ष में निकली। जम्मू-कश्मीर में भी कांग्रेस को जो प्राप्ति हुई वह नैशनल कांफ्रेंस के साथ के कारण मिली है। कांग्रेस के नेतृत्व के लिए बहुत वेक-अप कॉल है। राहुल गांधी जाति जनगणना को हर समस्या का इलाज बताते रहे। लोग सहमत नहीं हैं। कांग्रेस को फिर से रणनीति बनानी पड़ेगी।
हरियाणा में मुख्यमंत्री के परिवर्तन का फ़ायदा हुआ। नायब सिंह सैनी ओबीसी वोट को इकट्ठा कर सके जबकि कांग्रेस ने यह प्रभाव दिया कि वह जाट वोट पर आश्रित है इसीलिए भूपेन्दर सिंह हुड्डा को खुला हाथ दे दिया गया। जाट जनसंख्या वहां 25-27 प्रतिशत है, पर केवल जाट ही हरियाणा नहीं है। दलित, ब्राह्मण और पंजाबी आदि भी बड़ी संख्या में हैं जो जाटों की चौधर नहीं चाहते और उन्होंने चुपचाप भाजपा को वोट दे दिया। शहरी वोट भी विपरीत गया लगता है। भूपेन्द्र सिंह हुड्डा और कुमारी सैलजा के बीच जो स्पर्धा चली उसका दलित वोट पर असर पड़ा लगता है। कांग्रेस के वोट शेयर में 11 प्रतिशत की भारी वृद्धि देखने को मिली है, पर वह पर्याप्त सीटें नहीं बढ़ा सके। यह भी दिलचस्प है कि जिस जेजेपी को साथ मिला कर भाजपा ने 2019 में सरकार बनाई थी उसको भाजपा के साथ जाने की सजा दी गई और उसका सफ़ाया हो गया जबकि भाजपा अपनी सरकार बना गई। चौटाला परिवार की विभिन्न शाखाएं मुरझाने लगी हैं। छोटी पार्टियों की इस समय हालत पतली लगती है।
आगे महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव हैं। वैसे तो हर प्रदेश का चुनाव अलग होता है, पर हरियाणा की हार से कांग्रेस का मनोबल गिरेगा। उद्धव ठाकरे ने तो अभी से कांग्रेस को सावधान कर दिया है कि महाराष्ट्र के चुनाव में उनकी बिग बॉस वाली भूमिका नहीं हो सकती। इस प्रभाव का कांग्रेस राष्ट्रीय विकल्प है और राहुल गांधी नरेन्द्र मोदी की जगह लेने वाले हैं, की हवा निकल गई है। कांग्रेस को खड़े होने के लिए प्रादेशिक पार्टियों की बैसाखी चाहिए। उद्धव ठाकरे ने भी कहा है कि "देखना चाहिए कि जहां कांग्रेस की भाजपा के साथ डायरेक्ट फाइट है वहां कमी क्यों रह जाती है"। जम्मू-कश्मीर में भी कांग्रेस को जो प्राप्ति हुई है वह नैशनल कांफ्रेंस के सहारे के कारण हुई है नहीं तो जम्मू में वह भाजपा के साथ डायरेक्ट फाइट में केवल 1 सीट जीत सके हैं। लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में जो कामयाबी मिली थी वह समाजवादी पार्टी के सहयोग के कारण मिली। अगर किसान नाराज़गी, महिला पहलवानों के साथ दुर्व्यवहार और अलोकप्रिय अग्निपथ योजना के बावजूद कांग्रेस हरियाणा जीत नहीं सकी तो निश्चित तौर पर गम्भीर चिन्तन की ज़रूरत है। लोकसभा चुनाव परिणाम से विपक्ष को जो गति मिली थी वह कमजोर पड़ जाएगी।
जम्मू-कश्मीर के चुनाव परिणाम का महत्व यह ही नहीं कि कोई जीत गया तो कोई हार गया। इसका महत्व इससे बड़ा है कि 10 वर्ष के बाद वहां शांतिमय ढंग से लोकतंत्र की बहाली हो रही है। कहीं से भी बॉयकॉट की आवाज़ नहीं उठी। यह चुनाव धारा 370 हटाए जाने के बाद भी पहले चुनाव थे। जो पत्थर फेंकते थे वह वोट मांगते देखे गए। देर रात तक उम्मीदवार जोश से प्रचार कर रहे थे। पूर्व हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी जो बड़े अलगाववादी थे, के गांव सोपोर ज़िले के डूरू में कभी वोट नहीं पड़े। जब भी चुनाव होते थे तो उस गांव में सन्नाटा फैल जाता था। इस बार वहां लाउडस्पीकर का शोर सुनाई दे रहा था। लोग कह रहे हैं कि अगर शान्ति रहेगी तो काम मिलता रहेगा। पिछले साल जुलाई में मैं भी सपरिवार वहां गया था। मैंने भी पाया कि लोग सामान्य जीवन चाह रहे हैं। एक टैक्सी वाले ने कहा था कि, "आप आते रहेंगे तो काम चलता रहेगा"। श्रीनगर का लाल चौक क्षेत्र जो पहले बाहर वालों के लिए आउट ऑफ बाउंड था, को खचाखच भरा पाया। लाल चौक के नज़दीक प्रसिद्ध अहदूस रेस्टोरेंट में लंच किया तो मन में कोई तनाव नहीं था। (अहदूस का मेवे से भरा कश्मीरी कुलचा ग़ज़ब का है। एक खा लो तो 24 घंटे तसल्ली रहती है।) पहले दिन ढलते अघोषित कर्फ्यू लग जाता था, आजकल बेटोक बेख़ौफ़ आज़ादी से सब घूमते हैं।
जम्मू-कश्मीर में सफल चुनाव और वहां की लगभग सामान्य स्थिति मोदी सरकार की बहुत बड़ी कामयाबी है। आतंकी इंजीनियर रशीद पर अनावश्यक मेहरबानी दिखाई गई। जब वह लोकसभा का चुनाव जीता तो बड़ी मुश्किल से उसे शपथ लेने के लिए एक दिन की ज़मानत मिली थी। उसे अपने लिए प्रचार की भी इजाज़त नहीं मिली, पर इस बार अपनी पार्टी के उम्मीदवारों के लिए प्रचार के लिए निचली अदालत ने 20 दिन की ज़मानत दे दी। हैरानी है कि जो एजेंसियां अरविंद केजरीवाल जैसे मुख्यमंत्री की ज़मानत का लगातार विरोध करती रही, ने इंजीनियर रशीद की ज़मानत का ऊपरी अदालत में विरोध नहीं किया। रशीद की पार्टी ने भी प्रतिबंधित जमात-ए-इस्लामी के द्वारा खड़े किए गए उम्मीदवारों के साथ गठजोड़ कर लिया। इस अनावश्यक क़वायद का फ़ायदा भी नहीं हुआ और उसकी पार्टी को केवल एक सीट मिली क्योंकि प्रभाव फैल गया कि वह भाजपा की प्राक्सी है। पीडीपी को भी भाजपा के साथ सरकार बनाने की सजा दी गई।
जम्मू और कश्मीर में आगे क्या है? आशा की जानी चाहिए कि केन्द्र सरकार और प्रदेश सरकार के बीच सहयोग रहेगा और अभी तक जो कामयाबी मिली है उसे और आगे बढ़ाया जाएगा। उमर अब्दुल्ला ने कहा ही है कि "दिल्ली और श्रीनगर के बीच वैरी रिश्ते की ज़रूरत नहीं है"। कश्मीर और जम्मू के बीच जो खाई पैदा हो गई है उसे पाटने की भी ज़रूरत है। स्टेट-हुड के बारे जल्द फ़ैसला लेना चाहिए ताकि सरकार सही तरीक़े से काम कर सके। विकास और रोज़गार पर केन्द्रित नए कार्यक्रम और सोच की ज़रूरत है। कुछ वर्ष पहले जब जम्मू-कश्मीर के बारे उनसे पूछा गया तो डा. कर्ण सिंह गुनगुनाए थे, अजीब दास्तां है यह, कहां शुरू कहां ख़त्म। आशा करनी चाहिए कि हम उस अजीब दास्तां के ख़त्म होने की शुरुआत देख रहे हैं।
अंत में: लद्दाख से हज़ारों मील यात्रा कर सोनाम वांगचुक के साथ दिल्ली में सही बर्ताव नहीं किया गया। उन्हें जंतर-मंतर पर अनशन करने की इजाज़त नहीं दी गई। लोकतंत्र में शांतिमय प्रदर्शन और अनशन का अधिकार सबको है, यह बात बापू हमें सिखा गए हैं। देश के एक कोने से 32 दिन चल कर अपनी बात दिल्ली को बताने आए सोनाम वांगचुक को इससे वंचित क्यों किया गया? न ही कोई उनकी बात सुनने पहुंचा। ऐसे सरकारी अहंकार से हताशा और असंतोष बढ़ता है। इस सरकार से बड़प्पन की उम्मीद है।
– चंद्रमोहन