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भाजपा का बढ़ता विजय रथ

समग्रता में देश के राजनैतिक माहौल का यदि जायजा लिया जाये तो चुनावी मैदान में भाजपा की सर्वत्र विजय से इस नतीजे पर पहुंचा जा सकता है कि देश के मतदाताओं की सोच में बुनियादी फर्क आया लगता है।

समग्रता में देश के राजनैतिक माहौल का यदि जायजा लिया जाये तो चुनावी मैदान में भाजपा की सर्वत्र विजय से इस नतीजे पर पहुंचा जा सकता है कि देश के मतदाताओं की सोच में बुनियादी फर्क आया लगता है। दो दशक पहले तक यह कल्पना तक नहीं की जा सकती थी कि जनसंघ या भाजपा देश के ग्रामीण क्षेत्रों में अपने पांव जमाने में कामयाब हो सकती है? राजनीति विज्ञान के कुछ पंडितों का मानना है कि इसकी मूल वजह 90 के दशक में चला अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण का आन्दोलन है। इस आन्दोलन के जरिये भाजपा की पैठ भारत के गांवों में राम के नाम पर हुई जिसके असर से भारत की राजनीति के मूल मुद्दे बदलने शुरू हुए और हिन्दुत्व ने राष्ट्रवाद के बाने में प्रवेश कर लिया। इसने चुनावी राजनीति के स्थापित नियमों में इस तरह फेरबदल करना शुरू किया कि राष्ट्रीय पहचान धर्म मूलक होने लगी। इसकी वजह यह रही कि स्वतन्त्र भारत की राजनीति को भाजपा अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की राजनीति साबित करने में सफल होती रही। इसकी वजह भी मूल रूप से राम मन्दिर आन्दोलन बना क्योंकि इसने भारत के बहुसंख्यक हिन्दू समाज के मन में यह भाव बैठा दिया कि अयोध्या का राम मन्दिर आन्दोलन राष्ट्रीय आन्दोलन है।
बेशक राजनीतिक सोच और मान्यताओं में परिवर्तन लाने का यह श्रेय श्री लालकृष्ण अडवानी को दिया जा सकता है क्योंकि भारतीय राजनीति में जड़ से बदलाव लाने का उनका यह प्रयोग सफल रहा था। हालांकि 2004 से 2014 तक भाजपा सत्ता से दूर रही मगर गांवों में भाजपा पहुंच चुकी थी और उसकी राष्ट्रवाद की विचारधारा ने सामाजिक गोलबन्दी करनी शुरू कर दी थी। अतः 1990 से भारत में तैयार हुए नई पीढ़ी के मतदाताओं ने इस राजनैतिक विमर्श के बीच अपने मतदाता होने के अधिकारों का इस्तेमाल किया और बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के दौर में उसने अपने आर्थिक-सामाजिक सरोकारों की पहचान करनी शुरू की। 2014 में राजनैतिक पटल पर श्री नरेन्द्र मोदी के उदय ने इसी व्यवस्था के बीच सर्वांगीण विकास की अपेक्षाओं को जगा कर मतदाताओं के पुराने राजनैतिक मानकों में एेसा आधारभूत बदलाव कर डाला जिसमें पीछे देखने की गुंजाइश बहुत कम थी। अतः आज हम पूर्व से लेकर पश्चिम और उत्तर से लेकर दक्षिण तक जिस राजनैतिक बदलाव की बयार बहते देख रहे हैं वह राष्ट्रवाद की उस धारा का ही प्रभाव है जिसका उदय नब्बे के दशक में हुआ था।
आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि आज भाजपा राजस्थान में ग्राम पंचायतों व जिला पंचायतों के चुनाव जीत जाती है। पिछले दो दशकों के दौरान भाजपा ने अपने विमर्श को गांव तक पहुंचाने में जिस कर्मठता से काम किया है यह उसी का नतीजा है और इसके ऊपर श्री मोदी के मजबूत नेतृत्व के साये ने उसे और संगठित किया है। इसी प्रकार अरुणाचल प्रदेश जैसे उत्तर-पूर्व के सुदूर प्रान्त के ग्राम पंचायतों के चुनावों में इस पार्टी की  सफलता बताती है कि उसके राजनैतिक विमर्श का प्रभाव क्षेत्रीय सीमाएं तोड़ कर अखिल भारत में लोकप्रिय हो रहा है और कल तक की शक्तिशाली  पार्टी कांग्रेस द्वारा खाली किये जा रहे स्थान को तेजी से भर रहा है मगर असम के बोडोलैंड जातीय परिषद के चुनावों में भाजपा की बढ़त के विशेष मायने हैं। हालांकि इस परिषद में इसे अपने बूते पर बहुमत प्राप्त नहीं हुआ है और इसने इन चुनावों में अपने राज्य स्तर की सहयोगी पार्टी को छोड़ कर दूसरी आंचलिक पार्टी का दामन थाम कर ही विजय हासिल की है, इसके बावजूद यह भाजपा के विमर्श की विजय ही कहलायेगी क्योंकि 40 सदस्यीय इस बोडो परिषद में कांग्रेस को मात्र एक स्थान ही प्राप्त हुआ है जबकि भाजपा ने नौ सीटें जीती हैं।
इसी प्रकार गोवा जिला पंचायत चुनावों में भाजपा को शानदार जीत मिली है। इससे पहले हमने देखा था ​िक हैदराबाद नगर निगम के चुनावों में भाजपा ने अपनी चार सीटों को बढ़ा कर किस प्रकार 48 किया था परन्तु शहरी इलाकों की जगह हमें ग्रामीण इलाकों पर ध्यान देना होगा जहां भाजपा को बढ़त मिल रही है। इसका सीधा अर्थ यह निकाला जा सकता है कि भाजपा सम्पूर्णता में भारत की राष्ट्रीय पार्टी बनती जा रही है। कोई भी राजनैतिक दल तभी व्यावहारिक तौर पर सही मायनों में राष्ट्रीय दल बनता है जब वह उस देश के ग्रामीण इलाकों में समर्थन पाने लगता है। आजकल किसान आंदोलन की सर्वत्र चर्चा है जिसमें शत-प्रतिशत ग्रामीण हिस्सेदारी है। दूसरी तरफ भारत के विभिन्न ग्रामीण इलाकों में भाजपा जीत रही है तो इसे हम क्या विरोधाभास कहेंगे?  इसे विरोधाभास कह सकते थे यदि भाजपा बिहार विधानसभा चुनावों मे अपनी कृषि नीतियों में बदलाव या फेर-बदल करने की वकालत करती परन्तु इसने एेसा कुछ नहीं किया और बिहार का चुनाव भी जीत लिया। बेशक यह चुनाव बहुत कांटे का रहा और भाजपा को बिहार में केवल 12 हजार ही मत ज्यादा मिले मगर आम जनता ने उसके विमर्श को सिरे से खारिज तो नहीं किया। यही है वह बिन्दु जिस पर पूरी विरोधी राजनैतिक जमात को ध्यान देना चाहिए और विचार करना चाहिए कि कहां परिमार्जन और संशोधन की आवश्यकता है।

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