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गुजरात में भाजपा का डंका

गुजरात के पालिका व पंचायत चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को जो प्रचंड विजय मिली है उसका यही अर्थ निकाला जा सकता है कि शहरी क्षेत्र से लेकर ग्रामीण स्तर के मतदाताओं में इस पार्टी व इसके नेताओं की नीतियों में लोगों को पूर्ण विश्वास है।

गुजरात के पालिका व पंचायत चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को जो प्रचंड विजय मिली है उसका यही अर्थ निकाला जा सकता है कि शहरी क्षेत्र से लेकर ग्रामीण स्तर के मतदाताओं में इस पार्टी व इसके नेताओं की नीतियों में लोगों को पूर्ण विश्वास है। विशेष तौर पर प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी व गृहमन्त्री अमित शाह के नेतृत्व में आम गुजराती की अटूट निष्ठा है। इससे पूर्व महानगरों के निगम चुनावों में भी भाजपा के पक्ष में ऐसे ही परिणाम आये थे। इससे सिद्ध होता है कि गुजरात भाजपा का ऐसा  अभेद्य दुर्ग बन चुका है जिसे किसी दूसरी पार्टी खास तौर पर कांग्रेस को भेदना असंभव हो गया है। इन चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत ही निराशाजनक रहा है जबकि वह राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी मानी जाती है। गुजरात में पिछले 38 साल से सत्ता में शामिल भाजपा के लिए निश्चित रूप से ही यह उपलब्धि मानी जायेगी क्योंकि पार्टी हर स्तर पर सत्ताविरोधी भावनाओं को खत्म करने में सफल रही है। परन्तु इसके ही समानान्तर दिल्ली नगर निगम के पांच उपचुनावों में भाजपा कोई एक सीट भी नहीं जीत सकी और यहां चार सीटों पर आप पार्टी ने व एक पर कांग्रेस ने कब्जा किया। इससे पता चलता है कि भाजपा को दिल्ली स्तर पर किसी ऐसे नेता की जरूरत है जो दिल्ली की जनता का प्रतिनिधित्व असरदार तरीके से कर सके। पार्टी को इस दिशा में गंभीरता से विचार करना चाहिए क्योंकि स्वतन्त्र भारत में भाजपा (जनसंघ) ने अपनी विजय यात्रा इसी शहर से शुरू की थी जब 1967 के चुनावों में इसने तत्कालीन ‘महानगर परिषद’ व ‘नगर निगम’ पर कब्जा किया था। इन चुनावों के बाद ही जनसंघ ने बाद के होने वाले चुनावों में यह नारा बुलन्द किया था कि हमने ‘दिल्ली बदली है-देश भी बदलेंगे’। अतः भाजपा के लिए दिल्ली का महत्व प्रारम्भ से ही रहा है। इसी प्रकार पिछले महीने हुए पंजाब पालिका के चुनावों में भी भाजपा का प्रदर्शन निराशाजनक था। 
इस प्रदेश में भी भाजपा ने पहली बार 1967 में ही अकाली दल के साथ मिल कर सत्ता में भागीदारी की थी। अतः पंजाब में भी भाजपा को दिल्ली की तरह ही नेतृत्व में भारी-भरकम परिवर्तन लाने पर विचार करना होगा। जहां तक गुजरात का सवाल है तो यह भाजपा के किले में सबसे ज्यादा मजबूत किला है और यहां के लोग इस पार्टी के क्षेत्रीय नेतृत्व के साथ ही राष्ट्रीय नेतृत्व की क्षमता के दीवाने लगते हैं क्योंकि लोकसभा चुनावों में इस राज्य की सभी 26 सीटें भाजपा के खाते में गई थीं। परन्तु पिछले 2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को अपनी जीत के लिए भारी मशक्कत करनी पड़ी थी, इस हकीकत के बावजूद राज्य के पंचायत व पालिका चुनावों में कांग्रेस का सफाया हो जाना बताता है कि पार्टी का दमखम टूट रहा है और इसके पैरों के नीचे से जमीन खिसकती जा रही है। यह पार्टी गुजरात में विपक्षी दल की हैसियत से अपनी प्रभावी भूमिका निभाने में बेअसर हो रही है जिसकी वजह से पिछले दिनों हुए नगर निगम के चुनावों में सूरत जैसे शहर में इस पार्टी को ‘आप’ पार्टी तक से मुंह की खानी पड़ी। क्या गजब हुआ कि कुल 31 जिला पंचायतों में से कांग्रेस एक पर भी विजय हासिल नहीं कर सकी और कुल 231 ताल्लुका पंचायतों में भाजपा 196 पर जीत कर अपना परचम फहरा सकी जबकि कांग्रेस के हिस्से में 19 ताल्लुका पंचायतें ही आयीं।
 हद तो तब टूट गई जब कुल 81 नगरपालिकाओं में से 75 पर भाजपा ने अपना ध्वज फहरा दिया। जबकि 2015 में जब गुजरात में पालिका व पंचायत चुनाव हुए थे तो कांग्रेस की स्थिति बहुत मजबूत थी। तब भी कांग्रेस विपक्ष में थी और आज भी है। इसका अर्थ कोई भी व्यक्ति यही निकालेगा कि सत्ता में रहते हुए भाजपा ने आम मतदाताओं व जनता का दिल जीतने में सफलता प्राप्त की है और इसकी नीतियों से लोग खुश हैं। 31 जिला पंचायतों में कुल 980 स्थान हैं। इनमें 800 पर भाजपा जीती और कांग्रेस केवल 169 पर । इसी प्रकार कुल 231 ताल्लुका पंचायतों में 4774 सीटें हैं। इनमें से 3351 पर भाजपा जीती और कांग्रेस मात्र 1252 सीटें ही जीत पाई। जहां तक नगर पालिकाओं का प्रश्न है तो कुल 81 पालिकाओं में 2720 सीटें हैं। इनमें से 2085 पर भाजपा प्रत्याशी जीते जबकि कांग्रेसियों के हिस्से में केवल 388 सीटें ही गईं। ये आंकड़े बताते हैं कि भाजपा को ग्रामीण स्तर पर भी जबर्दस्त समर्थन मिला जबकि शहरी इलाकों में भी उसकी पकड़ मजबूत रही। गुजरात परिणामों का हवाला भाजपा अब उन राज्यों में जरूर देना चाहेगी जहां इसी महीने के अंत से मतदान शुरू हो जाएगा। पांच राज्यों के मतदान से पहले गुजरातियों ने बेशक भाजपा को यह तोहफा दिया है, देखना केवल यह होगा कि इसका असर किस तरह पड़ता है। वैसे पंचायत व नगर निकाय स्तर के चुनाव लोकतन्त्र में जनता की नब्ज पहचानने का ‘यन्त्र’ भी माने जाते हैं। परन्तु यही फार्मूला अन्य राज्यों पर भी लागू हाेेता है। इसका सीधा मतलब यही निकलता है कि राज्यवार राजनीतिक वरीयताएं अदलती-बदलती रहती हैं। यह भारत के लोकतन्त्र के बहुआयामी होने का भी प्रमाण है। मगर इससे यह तथ्य नहीं बदल सकता कांग्रेस पार्टी शिथिलता के चक्र में फंसती जा रही है। जिसकी वजह से उसके द्वारा दिखाया जा रहा वैकल्पिक रास्ता मतदाताओं को आकर्षित नहीं कर रहा है। यदि भाजपा की तरफ से आज इन चुनावों का विश्लेषण करके यह कहा जा रहा है कि पार्टी को मिली विजय का विधानसभा स्तर पर रूपान्तरण करने पर उसे विधानसभा की कुल 182 में से 155 सीटें मिलेंगी, तो इसे हकीकत से दूर कैसे कहा जा सकता है। 

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