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भाजपा का नया नक्श ‘नड्डा’

केन्द्र में श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में धमाकेदार विजय के बाद सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी का पीढ़ीगत परिवर्तन अब अपने शिखर पर है।

केन्द्र में श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में धमाकेदार विजय के बाद सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी का पीढ़ीगत परिवर्तन अब अपने शिखर पर है। इस पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष पद के लिए पूर्व स्वास्थ्य मन्त्री श्री जे.पी. नड्डा का चुनाव किया जाना बताता है कि पार्टी भविष्य की राजनीति के तेवरों को नये रंग में पेश करने की जुगत में लग गई है जिसमें श्री मोदी का नया मन्तव्य ‘सबका विश्वास’ केन्द्र में रहेगा। स्वतन्त्र भारत में ही जन्मी भाजपा देश की एकमात्र ऐसी पार्टी कही जा सकती है जो समयानुरूप अपने व्यावहारिक चरित्र में बदलाव करने में सिद्धहस्त है। 
पिछले पांच वर्षों के दौरान अपने अध्यक्ष श्री अमित अनिल चन्द्र शाह के नेतृत्व में भाजपा ने पूरे देश में चुनावी विजय का जो अभियान शुरू किया था उसकी परिणति 2019 में पुनः इस पार्टी की सरकार के रूप में हुई। श्री शाह ने 2014 में अपनी पार्टी के कद्दावर नेता श्री राजनाथ सिंह के हाथ से कमान ली थी और भाजपा के राजनैतिक हथियारों को नई धार इस प्रकार दी थी कि प्रखर राष्ट्रवाद को अपना लक्ष्य बनाकर इसने विरोधी पार्टियों खासकर कांग्रेस को भी अपने ही रास्ते पर चलने के लिए मजबूर कर दिया। 
श्री शाह की यह सबसे बड़ी राजनैतिक सफलता कही जायेगी कि उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति के आधारभूत स्थिरांक (कांस्टेंट) की परिभाषा को ही बदल डाला और प. बंगाल जैसे ‘इंकलाबी’ राज्य में राष्ट्रवाद के प्रयोग से वह कमाल कर डाला जो अभी तक भाजपा के यशस्वी से यशस्वी नेता तक नहीं कर पाये थे। प. बंगाल में राज्य स्तर पर डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु के उपरान्त स्व. प्रोफेसर हरिपद भारती से बड़ा नेता अभी तक नहीं हो पाया था और उनके नेतृत्व में 1967 के विधानसभा चुनाव में इस राज्य में जनसंघ को बमुश्किल छह सीटें ही मिल पाई थी परन्तु 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को जिस तरह 18 सीटें मिली हैं वह किसी चमत्कार से कम नहीं कहा जा सकता लेकिन इस काम को केवल श्री शाह ने मुमकिन करके दिखाया है क्योंकि उन्होंने अपनी सारी राजनैतिक बुद्धि इस राज्य में खपा दी थी और व्यावहारिक चतुराई से राज्य की सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस पार्टी की नेता सुश्री ममता बनर्जी को रक्षात्मक पाले में खड़ा कर दिया था। 
दरअसल श्री शाह ने अपनी पांच साला पारी का अन्त भाजपा को उत्तर व पश्चिम भारत से निकाल कर पूर्वी भारत में फैला कर किया है जिसे आगे बढ़ाने का काम अब श्री नड्डा को करना है और उन्हें इस काम में मदद देने के लिये श्री मोदी ने ‘सबका विश्वास’ का मन्त्र पहले ही तैरा दिया है। दूसरी तरफ लोकसभा अध्यक्ष पद पर कोटा के सांसद श्री ओम बिरला का नाम लगभग तय माना जा रहा है जो कम विस्मयकारी नहीं है।  2003 में ही अपने संसदीय राजनैतिक जीवन की शुरूआत करने वाले इस भाजपा सांसद के कन्धे पर यदि लोकतन्त्र की संसदीय प्रणाली को जीवन्त  बनाये रखने की जिम्मेदारी सौंपी जाती है तो देखना होगा कि भाजपा के बलशाली बहुमत के मध्य कमजोर स्थिति में आये विपक्ष को उसका वाजिब रुतबा किस प्रकार मिलेगा? किन्तु इस प्रयोग से इतना साबित होता है कि राष्ट्रीय राजनीति के कलेवर बदलने की पूरी तैयारी है।
श्री नड्डा की छवि एक उदारमना राजनीतिज्ञ की है जो भाजपा को ऐसा नया चेहरा देने का प्रयास कर सकते हैं जिसमें ‘कांग्रेस’ की छवि का आभास होता है। दरअसल सकल भारत की सत्ताधारी पार्टी बनने की यह ऐसी शर्त है जिसे जनसंघ ने 1971-72 में तब स्वीकार किया था जब उसने स्व. बलराज मधोक को दरकिनार करके स्व. अटल बिहारी वाजपेयी का चुनाव किया था। वह स्व. इन्दिरा गांधी के समाजवादी मोहपाश का दौर था जिसमें बलराज मधोक की कट्टर हिन्दुत्ववादी राजनीति लगातार हाशिये पर जा रही थी। भाजपा की छवि को राष्ट्रवादी समाजवादी तेवर देने में स्व. अटल बिहारी वाजपेयी की भूमिका को स्वतन्त्र भारत की राजनीति में कम करके नहीं आंका जा सकता है। 
इसी प्रकार प्रधानमन्त्री मोदी ने जिस प्रकार राष्ट्रवाद के साये में गरीबों के उत्थान की परियोजनाओं को लागू किया उससे भाजपा का चेहरा ऐसे समाजवादी घेरे में आ गया जिसकी काट करने के लिए कांग्रेस को स्वयं भाजपा के तेवरों में आना पड़ा (‘अब होगा न्याय’ का कांग्रेसी चुनावी नारा इसी तथ्य का सबूत था)। अतः यह तो सिद्ध है कि भाजपा ने अपनी रणनीति से कांग्रेस को अपना पिछलग्गू बनाने में सफलता प्राप्त की परन्तु पूरे भारत में विशेष रूप से दक्षिण में फैलने के लिए भाजपा को ही ‘कांग्रेस’ से सबक सीखने की जरूरत पड़ेगी। जगत प्रकाश नड्डा इस मामले में ऐसे नेता साबित हो सकते हैं जिनका किरदार सभी वर्गों के लोगों को साफ तस्वीर जैसा दिखाई पड़ सकता है क्योंकि 1993 में उन्होंने पहला हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव लड़ा और उसके बाद वह विधायक रहते हुए मन्त्री बने और बाद में 2012 में राज्यसभा में आ गये। 
यह सफर बिना हिचकोलों के तब भी रहा जब वह पहली मोदी सरकार में स्वास्थ्य मन्त्री बनाये गये परन्तु श्री शाह के मुकाबले उनकी संगठन क्षमता को आंकना गलत होगा। भाजपा को संगठनात्मक स्तर पर श्री शाह ने जो मजबूती दी है उसका लाभ उठाने का उन्हें अवसर जरूर मिलेगा और भाजपा का संगठन ऐसा संगठन माना जाता है जो केवल एक पखवाड़े के भीतर ही किसी भी नेता को ‘अर्श से फर्श पर तो फर्श से अर्श तक’ पहुंचाने की बेजोड़ क्षमता रखता है। इस हकीकत के मारे कई नेता आज भी भाजपा में ही मौजूद हैं। 
अतः श्री नड्डा के लिए इतना करना ही काफी होगा कि वह अपनी पार्टी कार्यकर्ताओं को ‘सबका विश्वास’ पाने की हुंकार लगा दें। श्री शाह के गृहमन्त्री हो जाने के बाद भाजपा को इस रास्ते पर आगे बढ़ने में ज्यादा दिक्कत नहीं आ सकती। इस पद पर बैठने के बाद स्वयं श्री शाह को भारत की उस गूढ़ विविधता से दो-चार होना पड़ेगा जिसे समझने के लिए ‘सबका विश्वास’ ही मूल मन्त्र बनकर उनकी मदद करेगा। अन्त में भारत तो भारत के ही मानकों से चलेगा और आपस में बन्ध कर मजबूत बनेगा।

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