इस राष्ट्र ने पिछले 70 वर्षों में कई हिंसक आंदोलन देखे हैं। कभी अलग राज्य की मांग को लेकर, कभी भाषा के मसले पर हिंसक आंदोलन चलाए गए लेकिन अंततः हल समझौतों से ही निकला। हिंसा करने वालों ने महसूस किया कि शांति और विकास का मार्ग राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल होकर ही मिल सकता है। अगर ऐसा अहसास नहीं होता ताे देश हिंसा की आग में कब का झुलस गया होता। अलग बोडोलैंड की मांग को लेकर भी आंदोलन चला। इस दौरान 2823 लोगों की मौत हुई, राष्ट्र की सम्पत्ति को काफी नुक्सान पहुंचाया गया।
केन्द्र सरकार लम्बे समय से प्रयासरत थी कि विवाद सुलझ जाए। गृहमंत्री अमित शाह, असम के मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल और असम के वित्त मंत्री हेमंत विश्व शर्मा काफी सक्रिय थे। पूर्वोत्तर के राज्यों से उग्रवाद खत्म करने का वादा करके सत्ता में आई केन्द्र की मोदी सरकार को बड़ी सफलता हाथ लगी जब केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह की मौजूदगी में केन्द्र सरकार, असम सरकार और बोडो उग्रवादियों के प्रतिनिधियों ने समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए। जिन प्रतिनिधियों से समझौता किया गया है उनमें एनडीएफबी के सभी धड़ों का सर्वोच्च नेतृत्व शामिल है। सबसे बेहतर बात यह रही की बोडो प्रतिनिधियों ने अलग बोडोलैंड की मांग से किनारा कर लिया है। समझौते के बाद बोडोलैंड टेरिटोरियल एरिया डिस्ट्रिक्ट को न तो केन्द्र शासित प्रदेश का दर्जा दिया जाएगा और न ही कोई नया गांव या नया इलाका शामिल किया जाएगा।
बोडोलैंड आंदोलन से जुड़े सभी प्रतिनिधियों का कहना है कि समझौते के बाद असम में शांति और स्थिरता के नए युग की शुरूआत होगी। यद्यपि इस समझौते के विरोध में गैर बोडो संगठनों ने बंद का आह्वान किया जिससे कुछ हिस्सों में जनजीवन प्रभावित हुआ। उम्मीद है कि विरोध के स्वर भी शांत हो जाएंगे। पूर्वोत्तर राज्यों में रहने वाले समुदाय अपनी सांस्कृतिक पहचान को लेकर बहुत गम्भीर रहे हैं। बोडो ब्रह्मपुत्र नदी घाटी के उत्तरी हिस्सों में बसी असम की सबसे बड़ी जनजाति है, ये जनजाति खुद को असम का मूल निवासी मानती है।
बोडो जनजाति को शिकायत यह रही कि असम में इनकी जमीन पर दूसरी संस्कृतियों और अलग पहचान वाले समुदाय ने कब्जा जमा लिया। बोडो जनजाति अपने ही घर में सिकुड़ती चली गई। आजादी के बाद से तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बंगलादेश) से लगातार घुसपैठियों के आने की वजह से जनसंख्या का संतुलन बिगड़ गया। इसी के साथ ही बोडो जनजाति में आक्रोश व्याप्त हो गया। लगभग 50 वर्ष पहले असम के बोडो बहुल इलाकों में अलग राज्य की मांग को लेकर हिंसात्मक विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गया, इसका नेतृत्व एनडीएफबी ने किया था। विरोध इतना जबरदस्त था कि तत्कालीन सरकार को एनडीएफबी पर प्रतिबंध लगाना पड़ा। यह भी सच है कि बोडो जनजाति के आक्रोश को शांत करने के लिए केन्द्र सरकारों ने भी जो प्रयास किए, वह आधे अधूरे ही थे।
पूर्वोत्तर राज्यों के विकास को नजरंदाज किया गया। असम के चार जिलों कोकराझार, बाक्सा, उदालपुरी और चिराग को मिलाकर बोडो टेरिटोरियल एरिया डिस्ट्रिक भी बनाया गया लेकिन आक्रोश शांत नहीं हुआ क्योंकि इन जिलों में कई अन्य जातीय समूह भी रहते हैं। वर्ष 1987 में आल बोडो स्टूडेंट यूनियन ने एक बार फिर अलग बोडोलैंड की मांग उठाई। आंदोलन सुलगता रहा। दिसम्बर 2014 में बोडो उग्रवादियों ने कोकराझार और सोनितपुर में 30 लोगों की हत्या कर दी। इससे पहले वर्ष 2012 में बोडो मुस्लिम दंगों में सैकड़ों लोगों की जान गई थी और 5 लाख लोग विस्थापित हुए थे। एनडीएफबी संगठन ने राज्य में हत्याओं, हमलों और धन उगाही की घटनाओं को अंजाम दिया।
सुरक्षा बलों के अभियान के चलते संगठन के कई नेता भूटान और बंगलादेश चले गए। संगठन की कमर टूट गई। बाद में आंदोलन तीन धाराओं में बंट गया। पहले का नेतृत्व एनडीएफबी ने किया, जो असम राज्य चाहता था, दूसरा बोडो लिबरेशन टाइगर था, जिसने ज्यादा स्वायत्तता की मांग की और गैर बोडो समूहों को निशाना बनाया, तीसरा धड़ा आल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन यानी जिसने मध्य मार्ग अपनाते हुए राजनीतिक समाधान की मांग की। असम कई बार जला। अब जबकि केन्द्र, असम सरकार और बोडो प्रतिनिधियों में समझौता हो गया है, जिसके तहत बोडो आदिवासियों को कुछ राजनीतिक अधिकार और समुदाय के लिए आर्थिक पैकेज दिया जाएगा।
संविधान के दायरे में ही यह समझौता किया गया है। तीन समझौते तो पहले भी हो चुके हैं। अब बोडो उग्रवादी 30 जनवरी को हथियार डाल कर राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल हो जाएंगे। केन्द्र और राज्य सरकार को अब बोडो क्षेत्रों में विकास की बयार बहानी होगी। बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद को और अधिकार देने होंगे। लोगों के आर्थिक विकास के लिए रोजगार के अवसर सृजित करने होंगे ताकि वह पुनः हथियार उठाने की सोचे भी नहीं। हर पक्ष को शांति स्थापना के लिए निष्ठा और ईमानदारी से काम करना होगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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