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ममता दी के बदले ‘बोल’

प. बंगाल की मुख्यमन्त्री एवं तृणमूल कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष ममता दीदी ने कर्नाटक के चुनावों के बाद जिस तरह अपने ‘बोल’ बदले हैं उनमें निकट भविष्य की राष्ट्रीय राजनीति के समीकरण छिपे हुए हैं। यह समीकरण राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस पार्टी काे भाजपा के विरुद्ध ठोस विकल्प के रूप में देखा जाना है परन्तु यह कार्य तभी संभव है जब विभिन्न मजबूत क्षेत्रीय दलों के साथ कांग्रेस पार्टी का सकारात्मक गठबन्धन तैयार हो। मगर इसमें भी एक पेंच यह है कि क्षेत्रीय दलों को राष्ट्रीय राजनीति में अपनी सीमित भूमिका को स्वीकार करना होगा और कांग्रेस के छाते के नीचे आकर ही अखिल भारतीय स्तर पर मतदाताओं को यह विश्वास दिलाना होगा कि केन्द्र सरकार के संचालन में कांग्रेस के लम्बे अनुभव की उन सभी को दरकार है। इसकी वजह यह है कि कांग्रेस पार्टी के पास देश की विविध घरेलू नीतियों से लेकर विदेश व अन्तर्राष्ट्रीय नीतियों तक के बारे में ऐसा सुस्पष्ट विचार व विमर्श है जो भाजपा के विमर्श के मुकाबले मतदाताओं के समक्ष पेश किया जा सकता है। मगर इसका मतलब यह कतई नहीं है कि इसमें क्षेत्रीय दलों की कोई भूमिका नहीं है बल्कि यह है कि कांग्रेस के विमर्श से अधिसंख्य क्षेत्रीय दल नीतिगत सहमति रखते हैं। केवल कम्युनिस्ट पार्टियां ही आर्थिक नीतियों के सन्दर्भ में कांग्रेस के विमर्श से असहमत हो सकती हैं परन्तु अन्य घरेलू व अन्तर्राष्ट्रीय नीतियों पर कम्युनिस्टों का भी कमोबेश समर्थन ही माना जा सकता है। अतः देश के गैर भाजपा दलों के बीच सहयोग के लिए ममता दी ने जो फार्मूला यह कहते हुए दिया है कि जिन राज्यों में क्षेत्रीय दल मजबूत हैं उनमें कांग्रेस उनका समर्थन करें और जहां कांग्रेस मजबूत है वहां क्षेत्रीय दल उसका समर्थन करें। अब तो सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने भी ममता बनर्जी के सुर में सुर मिला दिया है।

ममता दी की राय में कांग्रेस पार्टी लोकसभा की कुल 545 सीटों में से 200 के लगभग सीटों पर मजबूत मानी जाती है, अतः वह इन सीटों पर चुनाव लड़े जहां क्षेत्रीय दल उसका समर्थन करें और शेष पर विभिन्न क्षेत्रीय दलों के प्रत्याशियों का वह समर्थन करे। मगर ममता दी को यह मालूम होना चाहिए कि 2024 में लोकसभा चुनाव होने हैं और इन चुनावों में मतदाता राष्ट्रीय मुद्दों को सामने रखकर मतदान करेंगे। प्रादेशिक या क्षेत्रीय चुनावों में मत देते समय मतदाताओं की मनःस्थिति वह नहीं होती जो राष्ट्रीय चुनावों के समय होती है। अतः मतदाता यह अपेक्षा करेंगे कि लोकसभा चुनावों में राष्ट्रीय दलों के गठबन्धनों के बीच ही सीधा मुकाबला हो। मगर कांग्रेस के साथ एक दिक्कत यह है कि अधिसंख्य क्षेत्रीय दलों ने इसके मूल जनाधार (वोट बैंक) पर कब्जा करके ही अपनी ताकत बढ़ाई है। खास कर कम से कम उन पार्टियों ने जिनके नाम से पहले या बाद में कांग्रेस लिखा हुआ है। 

राष्ट्रीय चुनावों में यदि यह वोट बैंक भाजपा के मुखालिफ पुनः कांग्रेस की झोली में आ जाता है तो क्षेत्रीय दलों को भारी दिक्कत आ जायेगी। कर्नाटक के चुनाव बेशक प्रादेशिक चुनाव थे मगर यहां असली मुकाबला भाजपा के राष्ट्रीय विमर्श और कांग्रेस के राष्ट्रीय विमर्शों के बीच ही हुआ। हालांकि कुछ विश्लेषक मान रहे हैं कि कांग्रेस ने राज्य की समस्याओं को ही केन्द्र में रखकर यह चुनाव लड़ा और भारी विजय प्राप्त की परन्तु हकीकत यह है कि चुनाव के अन्तिम सप्ताह में मुद्दे पूरी तरह बदल गये और चुनाव कांग्रेस व भाजपा के समग्र राष्ट्रीय नीतिगत विमर्श पर आकर टिक गया। कर्नाटक के चुनाव इस मामले में विलक्षण माने जायेंगे। धार्मिक मुद्दे उठने के बावजूद मतदाताओं का इस आधार पर ध्रुवीकरण नहीं हुआ जिसमें एक समान नागरिक आचार संहिता का विषय तक शामिल हो गया था और बजरंग दल के बहाने बजरंग बली हनुमान जी भी चुनावी मुद्दा बन गये थे। अतः ममता दी का डर यह है कि कहीं उनके राज्य प. बंगाल में भी लोकसभा चुनावों के समय बंगाली मतदाता राष्ट्रीय फलक की सोच रखते हुए कांग्रेस के खेमे में न लौट आएं और कुछ स्थानों पर वाम मोर्चा की पार्टियां अपने उग्र आर्थिक विमर्श से तृणमूल कांग्रेस का मुकाबला करने की स्थिति में न आ जाएं परन्तु उत्तर भारत में उत्तर प्रदेश व बिहार में ऐसी स्थिति नहीं है।

इन दोनों राज्यों में कुल 120 लोकसभा सीटें हैं। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी व बिहार में नीतीश बाबू की जनता दल (यू) व लालू जी की राष्ट्रीय जनता दल पार्टी के पास जबर्दस्त जनाधार है। इस जनाधार में भी राष्ट्रीय चुनावों में खलबली मच सकती है मगर राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा, पंजाब व दक्षिण में तेलंगाना और आन्ध्र प्रदेश में कांग्रेस पार्टी में अपने दम-खम के बूते पर चुनाव लड़ने की पूरी क्षमता है। अतः उत्तर प्रदेश व बिहार में उसे इन राज्यों के क्षेत्रीय दलों के साथ ऐसा सम्मानजनक समझौता करना होगा कि चुनावी मैदान में भाजपा के साथ सीधा मुकाबला हो। दक्षिण के केरल में उसकी लड़ाई वामपंथी पार्टी से ही होगी जिसे चुनावी भाषा में ‘दोस्ताना लड़ाई’ कहा जा सकता है। ममता दी चाहती हैं कि ऐसी दोस्ताना लड़ाई उनके राज्य प. बंगाल में न हो पाये। फिलहाल तो उनके वक्तव्य का यही अर्थ निकाला जा सकता है क्योंकि महाराष्ट्र में इस खतरे को ध्यान में रखते हुए ही इस राज्य के कुशाग्र राजनेता श्री शरद पवार ने महाविकास अघाड़ी के तीनों दलों शिवसेना (उद्धव), राष्ट्रवादी कांग्रेस व कांग्रेस के बीच मजबूत तालमेल बैठाने की तैयारी शुरू कर दी है।