किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से

किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
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विश्व पुस्तक मेला-2024 देश के कुछ राज्यों में व्याप्त कुछ तनावों के बावजूद पूरी धूमधाम से सम्पन्न हो गया। यह अलग बात है कि इस मेले में राजनेताओं ने अपनी दूरी बनाए रखी। केजरीवाल साहब को इस बात से ज्यादा सरोकार नहीं था कि उनकी अपनी दिल्ली में बौद्धिकता की त्रिवेणी इतने दिन तक बहती रहे और वह या उनके अधिकांश मंत्री वहां एक डुबकी भी लगा नहीं पाए। अखिलेश यादव या पंजाब-हरियाणा-उत्तर प्रदेश के नेता लोग भी इस त्रिवेणी-स्थान से वंचित रह गए। इन सबकी अनुपस्थिति के बावजूद यह मेला खूब जमा। लगभग 5 से 6 लाख लोग आए। विश्वभर से लगभग छह हजार प्रकाशक, वितरक, प्रदर्शनीकार भी वहां आए। विदेशी भी एक बड़ी संख्या में वहां आते रहे।
इस मेले के कुछेक निष्कर्ष, उत्साहवर्धक भी रहे
क्षेत्रीय भाषाओं के पाठकों ने इस मेले में विशेष दिलचस्पी दिखाई। ममता बनर्जी स्वयं भी कविताएं लिखती हैं और किताबें भी छपवाती हैं। उनकी काव्य पुस्तकाएं व पेंटिंग्स भी खूब बिकती हैं। मगर प्रदेश की सियासी उठापटक ने उन्हें इस त्रिवेणी में स्नान का अवसर नहीं दिया। बंगला, उडि़या, तेलुगू, मलयालम, तमिल व पंजाबी की पुस्तकों व लेखकों की धूम मची रही। मगर हिन्दी में इस बार उतनी पुस्तकें नहीं आ पाईं, जितनी अपेक्षा थी। लेकिन अधिकांश चर्चित हिंदी लेखक अवश्य आए। केंद्रीय साहित्य अकादमी, भारत सरकार के प्रकाशन विभाग, नेशनल बुक ट्रस्ट के अलावा इस बार कुछ नए प्रकाशकों ने भी अपने स्टाल लगाए। गीता प्रैस गोरखपुर इस बार भी आकर्षण का केंद्र बना रहा।
एक तथ्य यह भी उभरा कि ई-बुक्स, किंडल व ऑनलाइन-पुस्तकों का आना लगा रहा। मगर लगता था कि इस बार पाठकों ने ठान लिया था कि गुलजार साहब के 90वें जन्म दिवस के आसपास उनकी एक चर्चित शिकायत दूर कर देंगे। गुलज़ार ने कुछ वर्ष पूर्व एक नज़्म लिखी थी, जो खूब पढ़ी गई :-
'किताबें झांकती हैं
बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाक़ातें नहीं होतीं
जो शामें उन की सोहबत में
कटा करती थीं, अब अक्सर
गुजऱ जाती हैं कम्पयूटर के पर्दों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
बड़ी हसरत से तकती हैं
जो क़द्रें वो सुनाती थीं
कि जिन के सैल कभी मरते नहीं थे
वो क़द्रें अब नजऱ आती नहीं घर में
जो रिश्ते वो सुनाती थीं
वो सारे उधड़े उधड़े हैं
कोई सफ्हा पलटता हूं तो
इक सिसकी निकलती है
कई लफ्ज़़ों के मानी गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के सूखे तुंड लगते हैं वो सब अल्फाज
जिन पर अब कोई मानी नहीं उगते
बहुत सी इस्तेलाहें हैं, जो मिट्टी के सकोरों की तरह बिखरी पड़ी हैं
गिलासों ने उन्हें मतरूक कर डाला
ज़बां पर ज़ाइक़ा आता था जो सफ्फ़े पलटने का
अब उंगली क्लिक करने से बस इक
झपकी गुजऱती है
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, कट गया है
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
कभी घुटनों को अपने रेहल की सूरत बना कर
नीम सजदे में पढ़ा करते थे छूते थे, जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइंदा भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल और महके हुए रुक्के
किताबें मांगने गिरने उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे, उन का क्या होगा
वो शायद अब नहीं होंगे !!
एक समय था जब मास्को का प्रगति प्रकाशन और अमेरिकी सूचना केंद्र की धूम भी मची रहती थी। मगर टाॅलस्टाय और गोर्की, इस बार अन्य प्रकाशकों तक सिमट कर रह गए। अमेरिकी दूतावास भी दुबका रहा। मगर सर्वाधिक बिक्री के मामले में राम पर केंद्रीत पुस्तकें चर्चा में रही व खूब पसंद भी की गईं। कुछेक प्रकाशकों ने 'राम साहित्य' पर अपने अलग मंडप भी लगाए हुए थे और उन पर खूब खरीदारी भी होती रही। गीता प्रैस के अलावा भी प्रभात प्रकाशन आदि ने अपनी पुस्तकों को चर्चा में बनाए रखा। श्रीमती किरण चोपड़ा जी की पुस्तक का भी यहीं लोकार्पण हुआ। प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस कृति की खरीदारी भी खूब हुई। इन पंक्तियों के लेखक की पुस्तकें भी आकर्षित करती रही पाठकों व ग्राहकों को।
सुखद बात यह भी थी इस पुस्तक मेले में राजनीति व राजनीतिज्ञ ज्यादा नहीं आए। शायद एक कारण यह भी रहा कि लेखक अभी तक इस खेमाबंदी का शिकार नहीं हो पाया। पाश भी खूब पसंद किए गए और फैज़, अमृता, निर्मल वर्मा आदि भी। इस बार कुछ प्रकाशकों ने लेखकों, कवियों की कविताओं के पोस्टर भी खूब प्रचारित िकए और वे बिके भी। पोस्टर-बिक्री में गोरखपांडे, मुक्तिबोध, धूमिल, गालिब व सूफी दार्शनिक रूमी आदि पसंद किए गए। सर्वाधिक चर्चा व तलाश सूफी साहित्य की थी। बहरहाल, अब राजनेताओं को भी यह समझ लेना चाहिए कि भले ही लेखक, कवि, कलाकार वोट बैंक नहीं बन पाते लेकिन उन्हें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ये जनमानस की चेतना पर गहरा असर डालते हैं। इसी संदर्भ में मुक्तिबोध का एक पोस्टर भी चर्चा में रहा…
पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है…
ओ मेरे आदर्शवादी मन
ओ मेरे सिद्धांतवादी मन
अब तक क्या किया
जीवन क्या जिया !!

– डॉ. चंद्र त्रिखा

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