आज वित्त मन्त्री श्रीमती निर्मला सीतारमन वित्त वर्ष 2021-22 का बजट लोकसभा में पेश करेंगी। इस बजट में देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर पर लाने के उपाय निहित होंगे, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती मगर देखने वाली बात यह होगी कि वित्त मन्त्री की वरीयता पर कौन-कौन से क्षेत्र रहते हैं। कोरोना संक्रमण के कारण देश की अर्थव्यवस्था इस तरह पटरी से उतरी कि चालू वित्त वर्ष की प्रथम तिमाही अप्रैल से जून तक वृद्धि दर घट कर रिकार्ड न्यूनतम नकारात्मक क्षेत्र में 24 प्रतिशत तक पहुंच गई। भारत की तेज गति से आगे बढ़ने की रफ्तार पकड़े अर्थव्यवस्था के लिए यह बहुत गहरा झटका था। इसका चौतरफा नकारात्मक असर पड़ा और उत्पादन कम होने से लेकर रोजगार तक में भारी कमी दर्ज हुई। इससे अगली तिमाही में थोड़ा सुधार जरूर हुआ मगर नकारात्मक दर फिर भी साढे़ सात प्रतिशत रही। इस स्थिति से उबरने के लिए भारत को आने वाले वर्षों में सकारात्मक वृद्धि दर की वह चौकड़ी भरनी पड़ेगी जिससे ऋणात्मक दर समाप्त हो जाये और यह धनात्मक दर में आगे बढ़ने लगे। यह काम निश्चित रूप से सरल नहीं है क्योंकि कोरोना काल से
पहले के वर्ष में भी वृद्धि दर बामुश्किल पांच प्रतिशत ही रह पाई थी।
पिछले 45 वर्षों में पहली बार भारत की अर्थव्यवस्था मन्दी के चक्र में फंसी और इससे बेरोजगारी दर बढ़ने से लेकर गरीबी की सीमा रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या में भी भारी वृद्धि हुई। यदि हम विश्व की वित्तीय सर्वेक्षक संस्थाओं के आंकलन पर विश्वास करें तो कोरोना काल में जहां देश के 84 प्रतिशत लोगों की आय में कमी आयी वहीं केवल 16 प्रतिशत की आय बढ़ी। इसका मतलब यह है कि गरीब और ज्यादा गरीब हो गये जबकि अमीरों की आमदनी बढ़ी। कोरोना का असर सामाजिक व आर्थिक रूप से जिस तरह महसूस हुआ उसने भारत की समावेशी विकास की कोशिशों पर भी पानी फेरने का काम किया। इस स्थिति से उबरने के लिए वित्त मन्त्री के पास एक ही रास्ता बचता है कि वह योजनागत स्कीमों में सरकारी पूंजीगत खर्च में गुणात्मक वृद्धि करें जिसमें आधारभूत ढांचागत क्षेत्र से लेकर स्वास्थ्य सेवा तन्त्र तक आता है।
विकास को गति देने के लिए जरूरी है कि सरकार गैर योजनागत खर्चों में कटौती करे और विभिन्न क्षेत्रों में पूंजी निवेश का माहौल बनाये। इसके लिए बैंकों की सेहत को सुधारते हुए उनसे अधिक से अधिक गांरटीशुदा ऋणों का बंटवारा किया जाये और मध्यम व मंझोले उद्योगों को अपना उत्पादन बढ़ाने को प्रेरित करने के लिए उन्हें ‘विशेष राहत कर्ज व ब्याज’ दी जाये। सर्वाधिक रोजगार मध्यम उत्पादन इकाइयां ही देती हैं और इनके रोजगार में ही 9 प्रतिशत से अधिक की कमी दर्ज हुई है। साथ ही उत्पादन को बढ़ाने के लिए देश के गरीब तबके के लोगों, जो 28 प्रतिशत से अधिक हैं, को सीधी वित्तीय मदद दी जाये जिससे बाजार में उत्पादित माल की मांग बढे़ और उसके परिणामस्वरूप औद्योगिक इकाइयों में उत्पादन बढे़, मगर यह कार्य अलगाव में नहीं किया जा सकता। इसके लिए जरूरी है कि शुल्क दरों में और अधिक संशोधन किया जाये और सामान्य खपत की वस्तुओं पर जीएसटी दरों में मुलामियत लाई जाये। वित्त मन्त्री का लक्ष्य बाजार में खुले रोकड़ा की मिकदार अधिक से अधिक बढ़ाना होगा तभी सभी आर्थिक अवयवों पर इसका सकारात्मक असर पड़ना लाजिमी है। इस सिलसिले में पेट्रोलियम पदार्थों की शुल्क दरों को तर्कपूर्ण बनाना बहुत जरूरी है क्योंकि पेट्रोल पर उसकी कीमत पर दुगने से भी ज्यादा शुल्क लगा कर हम बाजार में रोकड़ा की आवक को सुखाते ही हैं। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि विश्व मुद्रा कोष की प्रधान अर्थशास्त्री सुश्री गीता गोपीनाथ का यह स्वीकार करना कि आगमी 2025 वर्ष से पहले भारत कोराना काल की पूर्व स्थिति को प्राप्त नहीं कर पायेगा, इस हकीकत के बावजूद चिन्ता बढ़ाता है कि उन्हीं के मत में चालू वित्त वर्ष के समाप्त होने पर अर्थव्यवस्था में सुधार के लक्षण नजर आने लगेंगे। इसका मतलब यह निकलता है कि अगर 2021-22 में हम मन्दी के चक्र से निकल सके तो यह बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। इसके लिए भारत को बाजार में केवल रोकड़ा सुलभता का रास्ता ही नहीं अपनाना होगा बल्कि रोकड़ा प्रवाह का रास्ता पकड़ना होगा अर्थात ‘ऋण के स्थान पर मदद’ के मार्ग पर आगे बढ़ना होगा। यह कार्य हम रोजगार मूलक श्रम दिवसों की संख्या बढ़ाने के साथ ही सीधे गरीबों की मदद करके कर सकते हैं। हालांकि गरीबों की मदद के लिए कई योजनाएं देश में पहले से ही काम कर रही हैं मगर ये सभी सामान्य स्थितियों में गरीबों के उत्थान को ध्यान में रख कर बनाई गई थी। कोरोना ने निम्न आय वर्ग से लेकर मध्यम आय वर्ग तक के लोगों को अपना शिकार बनाया है जिसकी वजह से 84 प्रतिशत लोगों की आय घटी है। अतः वित्त मन्त्री को आम जनता के आर्थिक सशिक्तकरण के लिए ही बजट को केन्द्रित करना होगा।