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मंत्रिमंडल फेरबदल और कांग्रेस

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मोदी मन्त्रिमंडल के होने वाले फेरबदल से स्पष्ट है कि सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी आने वाले समय में कुछ राज्यों और लोकसभा के चुनावों की तैयारी में लग गई है मगर इसके विपरीत विपक्षी दल पूरी तरह ढंडे पड़े हुए हैं और उनमें इन चुनावों को लेकर किसी प्रकार की तैयारी नहीं दिखाई पड़ रही है, खासकर प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस में कोई हलचल नहीं है और यह भाग्य भरोसे बैठी हुई है। इसमें किसी प्रकार की हलचल या रद्दोबदल का खटका न होने से यही सन्देश जा रहा है कि इसमें राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव हीन भावना की हद तक आ चुका है। जो राजनीतिक दल परिस्थितियों से समझौता इस हद तक कर लेता है कि उसमें परिवर्तन की चाह ही खत्म होने लगे तो लोकतन्त्र में लोगों का उस पर से विश्वास उठने लगता है।

संगठन के जमीनी स्तर से लेकर शीर्ष स्तर तक उसमें ऊर्जा तभी बनी रहती है जब लोगों का विश्वास उसमें बना रहे। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी जिस मन्त्रिमंडल के फेरबदल को अंजाम दे रहे हैं उसका मूल उद्देश्य यही लगता है कि उनकी सरकार में आम लोगों का विश्वास न डिगने पाये। इसी प्रकार विपक्ष का भी यह कर्त्तव्य होता है कि वह लगातार सत्ता पक्ष के समक्ष चुनौती खड़ी करने की हैसियत बना कर रखे मगर आधे समय विदेश दौरे पर रहने वाले श्री राहुल गांधी के नेतृत्व के चलते यह संभव इसलिए नहीं लग रहा है क्योंकि कांग्रेस पार्टी में नेतृत्वहीनता का माहौल पसरता जा रहा है और उसके कार्यकर्ता दिशाविहीनता के माहौल में इधर-उधर हाथ-पैर मार कर अपने वजूद का संकेत दे रहे हैं। किसी भी लोकतान्त्रिक देश में विपक्ष इस प्रकार राजनीति नहीं कर पाया है। इसलिए जरूरी है कि कांग्रेस में किसी कार्यकारी अध्यक्ष की नियुक्ति की जाये जिससे यह पार्टी सकारात्मक रूप से प्रभावी विपक्ष की भूमिका निभा सके।

इस पद के लिए मुझे प्रियंका गांधी सबसे उपयुक्त उम्मीदवार नज़र आती हैं। बिना शक नेहरू-गांधी परिवार के संरक्षण के बिना इस पार्टी का अस्तित्व संकट में पड़ सकता है क्योंकि आज भी पूरे देश में इसी परिवार के लोगों की पहचान से कांग्रेस पार्टी जानी जाती है और देश के हर प्रदेश में इसका अस्तित्व है। भाजपा के लिए आज भी यदि कोई सबसे बड़ी चुनौती है तो वह कांग्रेस पार्टी ही है क्योंकि इसका इतिहास स्वतन्त्रता संग्राम से लेकर स्वतन्त्र भारत के विकास के इतिहास से जुड़ा हुआ है। यह बात अलग है कि 2009से लेकर 2014 तक के इसके शासनकाल का सम्बन्ध भ्रष्टाचार से जुड़ गया और 2014 के लोकसभा चुनावों में भ्रष्टाचार एक बहुत बड़ा मुद्दा बनकर उभरा जिसका लाभ भाजपा को भरपूर तरीके से मिला मगर जो लोग सोच रहे हैं कि 2019 के चुनावों में भी भ्रष्टाचार कोई मुद्दा बनकर उभरेगा वे गलती पर हैं और इस देश के मतदाताओं की बुद्धिमत्ता और सजगता से वाकिफ नहीं हैं। आगामी चुनावों में मुद्दे बिल्कुल बदले हुए होंगे।

इसी वजह से तो श्री मोदी अपने मन्त्रिमंडल में फेरबदल करके भविष्य में उठने वाले मुद्दों का जवाब ढूंढ रहे हैं, लेकिन सवाल उठना वाजिब है कि क्यों कांग्रेस पार्टी निद्रा की मुद्रा में है और वह आत्मावलोकन करने से घबरा रही है, जबकि उसे पता है कि उसके पास अब कोई इन्दिरा गांधी नहीं है, केवल सोनिया गांधी और राहुल गांधी हैं। इनकी कांग्रेस को एकजुट रखने में महत्वपूर्ण भूमिका तो है मगर इसे ताजादम बनाये रखने में उनकी भूमिका सीमित हो चुकी है जिसे केवल किसी स्फूर्तवान और 24 घंटे सक्रिय रहने वाले कुशल राजनीतिज्ञ के सहारे ही कायम रखा जा सकता है। उस नेता में कम से कम इतनी दूरदर्शिता तो होगी कि वह भाजपा के समानान्तर कोई वैकल्पिक राजनीतिक एजेंडा देशवासियों के समक्ष रख सके। केवल सत्तारूढ़ दल के कार्यकलापों पर प्रतिक्रिया देने से न तो लोकतन्त्र चलता है और न ही सशक्त विकल्प पैदा होता है।

1977 में जनता पार्टी के हाथों बुरी तरह हारने के बाद स्व. इन्दिरा गांधी पुनः 1980 में इसीलिए सत्ता पर वापस आ गई थीं कि उन्होंने देश के समक्ष स्थायी समरूपी सरकार का एजेंडा पेश कर दिया था। वर्तमान समय में मोदी सरकार भी इसी एजेंडे को कस कर पकड़ कर चल रही है इसके बावजूद देश में समस्याओं की भरमार है मगर विपक्षी दल केवल प्रतिक्रिया देने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं सुझा पा रहे हैं जिससे यह आभास होता है कि लोकतन्त्र में वैचारिक शून्यता पसरती जा रही है और कोई हादसा होने पर या तो सड़कों पर प्रदर्शनों तक में यह सिमटता जा रहा है या फिर न्यायपालिका के हस्तक्षेप से जनतन्त्र की आवाज आ रही है।

यह स्थिति स्वयं सत्तारूढ़ दल के लिए भी अच्छी नहीं कही जा सकती क्योंकि इससे उसका इकबाल भी घटता है, मगर श्री मोदी की इस तरफ भी पैनी नजर है इसीलिए उन्होंने अपने मन्त्रिमंडल में फेरबदल का फैसला किया है क्योंकि उन्हें उन जनापेक्षाओं पर खरा उतरना है जो उन्होंने इस देश की जनता के मन में जगाई हैं।  खासकर तब जबकि उन्हीं की पार्टी के मुख्यमन्त्री अपने-अपने राज्यों में दागदारी के दायरे में फंसते जा रहे हैं। यह विकट स्थिति है। विकट से विकट स्थिति से रास्ता निकालना ही राजनीतिक पार्टियों की राजनीति कहलाई जाती है। भाजपा इसमें आगे बढ़ रही है और कांग्रेस सोई हुई है।
भई सूरज, जरा इस आदमी को जगाओ
भई पवन, जरा इस आदमी को हिलाओ
यह आदमी जो सोया पड़ा है
जो सच से बेखबर सपनों में खोया पड़ा है
भई पंछी, इसके कानों पर चिल्लाओ…….

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