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पंजाब में कैप्टन का इस्तीफा !

पंजाब के मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह ने जिन नाटकीय परिस्थितियों में इस्तीफा दिया है उससे कांग्रेस पार्टी आलाकमान की प्रतिष्ठा को धक्का लगना स्वाभाविक है

पंजाब के मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह ने जिन नाटकीय परिस्थितियों में इस्तीफा दिया है उससे कांग्रेस पार्टी आलाकमान की प्रतिष्ठा को धक्का लगना स्वाभाविक है क्योंकि कैप्टन ने यह कह कर पंजाब की जनता और कांग्रेस के सामान्य कार्यकर्ता की सहानुभूति बटोरने की कोशिश की है कि पिछले दो ढाई महीनों के दौरान उन्हें कम से कम तीन बार बेइज्जत करने की कोशिश की गई  अतः उन्होंने इस्तीफा देना बेहतर समझा। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि कैप्टन कांग्रेस पार्टी के कद्दावर नेता हैं और पंजाब के लोकप्रिय नेताओं में उनकी गिनती होती है परन्तु पिछला 2017 का विधानसभा चुनाव लड़ते हुए उन्होंने स्वयं ही घोेषणा की थी कि यह चुनाव उनका आखिरी चुनाव होगा। इसलिए कांग्रेस आला कमान उनके विकल्प को यदि खोज  रहा था तो इसमें किसी को आश्चर्य भी नहीं होना चाहिए। परन्तु यह भी कांग्रेस आलाकमान की जिम्मेदारी बनती थी कि कैप्टन जैसे कांग्रेस के समर्पित सिपाही और वरिष्ठ नेता की मुख्यमन्त्री पद से ​विदाई सम्मानजनक ढंग से की जाती। परन्तु ऐसा नहीं हो सका और नवनिर्वाचित अपेक्षाकृत युवा कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू उनकी शान में बार-बार गुस्ताखी करते रहे।
सिद्धू का प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बने अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है और उन्होंने कैप्टन की सरकार पर कई बार ऐसे हमले किये जिनसे मुख्यमन्त्री गहराई से आहत हुए। इसके बावजूद कैप्टन ने शालीनता और भद्रता का दामन छोड़ना उचित नहीं समझा और हर बार सिद्धू को पार्टी अध्यक्ष के नाते समुचित सम्मान देने का प्रयास किया। इससे कैप्टन के बड़प्पन की छाप पंजाब की जनता के दिल पर बनी है परन्तु जमीनी हकीकत यह भी है कि पाकिस्तान के साथ करतारपुर साहिब कोरीडोर निर्माण करा कर सिद्धू ने पंजाब की जनता के बीच खासी लोकप्रियता अर्जित कर ली है। साथ ही वह अभी युवा भी हैं। हालांकि राजनीति में उम्र कोई खास मायने नहीं रखती बल्कि दिमाग मायने रखता है। यह तो वक्त ही बतायेगा कि पंजाब में अब राजनीति किस करवट बैठती है क्योंकि कैप्टन ने साफ कह दिया है कि फिलहाल वह कांग्रेस में ही हैं मगर भविष्य में उनका अगला कदम क्या होगा, इस बारे में वह अपने समर्थकों के साथ सलाह- मशविरा करके फैसला करेंगे। उनका यह कथन बहुत सारे सवालों को समेटे हुए है क्योंकि राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं है। मगर कैप्टन ने जिस तरह कहा कि उन्हें  पिछले कुछ महीनों के दौरान ही अपमान का घूंट पीना पड़ा, उससे एक बात साफ होती है कि कांग्रेस जैसी देश की सबसे पुरानी पार्टी की राजनीतिक संस्कृति में आधारभूत बदलाव आ रहा है। यह बदलाव पार्टी का भविष्य किस ओर मोड़ेगा कोई नहीं जानता? क्योंकि इसके समानान्तर फिलहाल देश की सबसे बड़ी सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा ने अपने तीन राज्यों के मुख्यमन्त्रियों को रातोंरात जिस तरह बदला उसमें आंतरिक सिर-फुटोव्वल और फजीहत बिल्कुल नहीं हुई बल्कि जाने वाले मुख्यमन्त्री ने ही नये बनने वाले मुख्यमन्त्री के नाम का प्रस्ताव किया। 
बेशक कांग्रेस के आन्तरिक लोकतन्त्र की तुलना किसी अन्य पार्टी से नहीं की जा सकती है मगर इसका मतलब यह भी नहीं होता है कि ‘घर की हांडी चौराहे पर ही लाकर फोड़ी जाये’ नवजोत सिंह सिद्धू कांग्रेस पार्टी में प्रवेश करने के साथ ही जब कैप्टन के नेतृत्व में बनी सरकार में मन्त्री बने थे तो तभी से उनके निशाने पर कैप्टन चल रहे थे। पार्टी हाईकमान को एेसी स्थिति आने से रोकना चाहिए था, जो नहीं किया गया। हद तो तब हो गई जब सिद्धू ने कैप्टन पर यह आरोप तक लगा दिया कि उनकी सरकार राज्य के प्रमुख विपक्षी दल अकाली दल के प्रति नरम रुख अपनाते हुए चल रही है। 
दुनिया जानती है कि पंजाब में अकाली व कांग्रेस दो ध्रुव कहे जाते हैं। दोनों पार्टियों की राजनीति करने के सिद्धान्त  अलग-अलग रहे हैं। आजादी के बाद 1956 तक नया पंजाब गठित होने तक पेप्सू राज्य पर ज्यादातर अकालियों का ही प्रभाव रहा और पंजाब में कांग्रेस पार्टी की तूती बोलती रही थी। अकाली दल 1967 के बाद ही पहली बार सत्ता में जनसंघ से हाथ मिला कर काबिज हो पाया था। मगर इसके बाद कांग्रेस व अकाली बारी-बारी सत्तारूढ़ होते रहे। बेशक आपरेशन ब्लू स्टार के बाद कैप्टन स्वयं भी कुछ समय तक अकाली दल में रहे थे मगर जल्दी ही वह पुनः कांग्रेस में आ गये थे। लेकिन सिद्धू कैप्टन व अकाली दल की कथित दोस्ती को एक मुद्दा बनाने की कोशिश की जिससे राजनीति मटमैली ही हुई। हालांकि राज्य में कैप्टन का विकल्प ढूंढना भी कांग्रेस आलाकमान की कोई मजबूरी नहीं थी क्योंकि कैप्टन की आम जनता के बीच हैसियत को देखते हुए उन्हें आगामी चुनावों के बाद भी मुख्यमन्त्री पद पर बने रहने के लिए राजी किया जा सकता था। अब छह महीने बाद ही उत्तर प्रदेश के साथ पंजाब के चुनाव होने हैं और इस राज्य की स्थिति एेसी मानी जाती है जहां कांग्रेस के विरोध में  कोई भी पार्टी मजबूत नहीं है । संभवतः यही देखते हुए आलाकमान ने लगे हाथ नेतृत्व परिवर्तन का मन भी बनाया हो। मगर यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि पिछला 2017 का चुनाव कैप्टन ने अकेले अपने बूते पर कांग्रेस को जिताया था और शानदार जीत दिलाई थी किन्तु राजनीति में स्थितियां हमेशा एक जैसी नहीं बनी रहतीं और समय के अनुसार बहुत तेजी से बदल भी जाती हैं। अतः कांग्रेस आलाकमान जो प्रयोग करने जा रहा है उसका जवाब भविष्य ही दे सकता है। यह इस बात पर भी निर्भर करेगा कि कैप्टन की भविष्य में राजनीति क्या रहती है ?

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