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कैशलेस इंडिया का सपना

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स्वीडन दुनिया का पहला ऐसा देश है जो कैशलेस हो चुका है। इसके अलावा कनाडा में क्रेडिट और डेबिट कार्ड के माध्यम से 70 फीसदी पेमेंट होता है, जबकि दुनिया में कैशलेस लेन-देन की संख्या 40 फीसदी है। दुनिया के अन्य देश जो कि कैशलेस बनने की राह पर अग्रसर हैं, उनमें अफ्रीका के सबसे गरीब माने जाने वाले सो​मालिया, केन्या और नाइजीरिया हैं। इसके अलावा आस्ट्रेलिया, सिंगापुर, हांगकांग, अमेरिका भी इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। आजकल विश्व के हर देश का कैशलेस होना मजबूरी ही नहीं बल्कि समय की मांग है। कैशलेस समाज की स्थापना से देश के हर एक नागरिक को आगे आने वाले समय में फायदा होगा। भारत के लिए यह कदम काफी चुनौतीपूर्ण है क्योंकि यहां की 70 फीसदी आबादी अभी भी गांवों में रहती है जिनके पास सुविधाएं नहीं हैं।

भारत के परिप्रेक्ष्य में यह कदम चुनौतीपूर्ण जरूर है लेकिन असंभव बिल्कुल नहीं। नोटबंदी के बाद से भारत में डिजिटल लेन-देन में लगातार बढ़ौतरी हुई है। अप्रैल से सितम्बर 2017 में केवल 2 लाख 18 हजार 700 करोड़ का कैशलेस लेन-देन हुआ है। अगर यही रफ्तार रही तो इस वित्त वर्ष के अंत तक यह 4 लाख 37 हजार करोड़ का हो जाएगा। केन्द्र सरकार देश को 1 ट्रिलियन इकोनॉमी बनाने के लगातार प्रयास कर रही है। कैशलेस लेन-देन काे बढ़ावा देने के लिए मोदी सरकार ने एक अच्छा फैसला किया है कि जब भी आप डेबिट कार्ड से किसी दुकान से दो हजार तक की खरीदारी करेंगे तो आपको मर्चेंट डिस्काउंट रेट (एमडीआर) के तौर पर कोई अतिरिक्त चार्ज चुकाना नहीं पड़ेगा। केन्द्र सरकार 2 साल के लिए एमडीआर चार्ज खुद ही वहन करेगी।

केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने इस फैसले पर मुहर लगा दी है और यह कदम नए वर्ष में जनवरी से लागू होगा। इससे पहले रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने एमडीआर के चार्जेज घटा दिए थे, इन लेकर कारोबारियों ने आपत्ति जताई थी। उनका कहना था कि इससे व्यापारियों का खर्च बढ़ेगा। एक जनवरी से ही एमडीआर के नए नियम लागू होने वाले हैं। नए नियमों के मुताबिक अब एमडीआर भुगतान की राशि के बजाय दुकानदार के टर्नओवर पर निर्भर करेगा। 20 लाख से ज्यादा टर्नओवर वाले व्यापारियों को 0.9 प्रतिशत एमडीआर लगेगा जबकि 20 लाख से कम टर्नओवर वाले व्यापारियों को पेमेंट का 0.4 फीसदी एमडीआर देना होगा। एमडीआर रेट वह रेट होता है, जो बैंक किसी भी दुकानदार अथवा कारोबारी से कार्ड पेमेंट सेवा के लिए लेता है। ज्यादातर कारोबारी एमडीआर चार्जेज का भार ग्राहकों पर डालते हैं और बैंकों को दी जाने वाली फीस का अपनी जेब पर भार कम करने के लिए ग्राहकों से भी इसके बूते फीस वसूलते हैं।

कैशलेस अर्थव्यवस्था का सपना बुरा नहीं लेकिन इस सपने को हकीकत का रूप देने से पहले सरकार को कुछ वास्तविकताओं को भी जानना होगा। सवा अरब की आबादी वाले देश में इसे लेकर तमाम चुनौतियां और खतरे भी हैं, जिन्हें नजरंदाज नहीं किया जा सकता, खासकर भारत में, जिसमें 80 फीसदी बाजार आैर उसकी व्यवस्था नकद लेन-देन पर टिकी है। देश में 70 करोड़ के करीब लोगों के पास मोबाइल कनैक्शन हैं। भारत में स्मार्ट फोन इस्तेमाल करने वालों की बड़ी आबादी अभी भी 2जी जैसी सस्ती सर्विस पर ही निर्भर है। चीन तो 6जी तक पहुंच चुका है। भारत अभी 4जी में ही घूम रहा है। देश की 35 करोड़ आबादी निरक्षर है। अभी भी एटीएम से पैसा निकालने के लिए निरंतर लोगों को दूसरों की मदद की जरूरत पड़ती है। विकास की गति तकनीक के सहारे आगे बढ़ाना अच्छा कदम है लेकिन ऐसा लगता है कि सरकारें पेड़ की जड़ों को पानी देने की बजाय पत्तियों पर छींटे मार रही हैं।

सरकार को पहले सभी नागरिकों के लिए जीवन जीने की जरूरी सुविधाएं देनी चाहिएं, विकसित होने की पहली शर्त ही पढ़ा-लिखा होना है। यह सही है कि देश के लिए डिजिटल व्यवस्था ई-गवर्नेंस अच्छा है लेकिन हर व्यवस्था की निर्धारित प्रक्रिया होती है। यह भी सही है कि कैशलेस व्यवस्था से कर चोरी रुकेगी, जाली नोटों की समस्या से निजात मिलेगी। बैंकों के पास विकास के लिए पंूजी भी होगी आैर बैंकिंग, टैक्स व्यवस्था और निगरानी आधुनिक होगी। दूसरी ओर प्रौद्योगिकी की अपनी सीमाएं होती हैं। अशिक्षित आबादी कैशलेस कैसे होगी, जहां सुविधाओं और आधारभूत संरचना की कमी है, वहां बैंकों और वित्तीय संस्थानों की मनमानी का डर बना रहेगा। हद से ज्यादा निगरानी के खतरे बढ़ेंगे आैर साइबर क्राइम और जालसाजी के खतरे तो मंडरा ही रहे हैं। चुनौ​ितयां तो बहुत हैं लेकिन देश को इस राह पर चलना है क्योंकि सरकार द्वारा उठाए गए कदमों से फायदा उपभोक्ताओं को ही है। कार्ड से पैट्रोल खरीदने, रेल टिकट, हाइवे या टोल, बीमा खरीदने पर कई छूट की घोषणा पहले ही की जा चुकी है। छोटी-छोटी बचत से लोगों को ही फायदा है आैर समय की भी बचत होगी। एक न एक दिन भारत कैशलेस हो ही जाएगा।

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