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जातिगत जनगणना के आंकड़े

भारत में सामाजिक न्याय की मांग इतनी पुरानी है कि 1850 में अंग्रेजी शासन के दौरान भारत के वायसराय लार्ड डलहौजी ने ‘जातिगत अयोग्यता’ को समाप्त करने के लिए बंगाल के महान समाज सुधारक ईश्वर चन्द्र विद्यासागर’ की मदद से यह कानून बना

भारत में सामाजिक न्याय की मांग इतनी पुरानी है कि 1850 में अंग्रेजी शासन के दौरान भारत के वायसराय लार्ड डलहौजी ने ‘जातिगत अयोग्यता’ को समाप्त करने के लिए बंगाल के महान समाज सुधारक ‘ईश्वर चन्द्र विद्यासागर’ की मदद से यह कानून बना कर उस समय अछूत कहे जाने वाले दलित समाज के लोगों के लिए पढ़ाई-लिखाई के रास्ते खोले। आधुनिक भारत के हिन्दू समाज में बदलाव की यह क्रान्तिकारी घटना थी, बेशक यह अंग्रेजों द्वारा की गई थी। इसी प्रकार वर्तमान भारत में 1990 में पिछड़े समाज के लिए मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किये जाने के फैसले को भी हम इसी दृष्टि से देख सकते हैं हालांकि इन्हें पूर्णतः राजनैतिक हितों के नजरिये से लागू किया गया था परन्तु उद्देश्य सामाजिक न्याय का था। भारत में जाति की पहचान इतनी जबर्दस्त प्राचीन ऐतिहासिक काल से ही रही कि इनमें जन्म लेने वाले व्यक्तियों के काम व आजीविका का बंटवारा भी जातिगत पहचान के आधार पर होता रहा जिसकी वजह से पिछड़ी या छोटी कही जाने वाली जातियों में जन्मे व्यक्तियों का जीवन लगातार सामाजिक व शैक्षणिक रूप से व निचले पायदान पर बना रहा जिसकी वजह से उनका सम्यक विकास रुका रहा। 
मंडल आयोग ने इन जातियों के आधार पर पिछड़ेपन की पहचान की और इन्हें नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण देने की सिफारिश की। मगर यह आरक्षण मोटे अनुमान के आधार पर ही किया गया और पिछड़ी जातियों की जनगणना का काम नहीं किया गया। मगर जातिगत जनगणना की मांग 1990 के बाद से ही लगातार उठती रही जिसे पुरजोर उठाने में एक पिछले समय के ग्रामीण राजनीति के पुरोधा माने जाने वाले स्व. शरद यादव सबसे आगे रहे। श्री शरद यादव एेसे नेता थे जो मूल रूप से जातिवाद के खिलाफ थे मगर मानते थे कि भारतीय समाज में जाति एक हकीकत है और इसके आधार पर भारत की आर्थिक- सामाजिक व्यवस्था  अन्यायपूर्ण रही है । अतः जातिगत जनगणना करा कर समाज के पिछड़ी जाति के लोगों के साथ बराबर का न्याय किये जाने की सख्त जरूरत है। वह यह भी चाहते थे कि संसद में भारत की जाति व्यवस्था के बारे में खुलकर बहस भी होनी चाहिए मगर उनकी यह इच्छा आठ बार संसद सदस्य रहने के बावजूद पूरी नहीं हो सकी। 2010 के दौरान जब केन्द्र में कांग्रेस नीत डा. मनमोहन सिंह की सरकार थी तो लोकसभा में जातिगत जनगणना कराये जाने के मुद्दे पर बहुत गरमगरम बहस हुई थी जिसमें स्व. मुलायम सिंह यादव से लेकर लालू जी व शरद यादव तक ने जमकर हंगामा इस हद तक किया था कि सदन की बैठक ही स्थगित करनी पड़ी थी। इसके बाद मनमोहन सिंह सरकार ने इस मांग को स्वीकार कर लिया था और कांग्रेसी सांसदों ने भी इसका समर्थन किया था। सदन में प्रस्ताव पारित करके तब मनमोहन सरकार ने जातिगत जनगणना को मंजूरी दी थी और 2011-12 में यह जनगणना पूरी करा ली गई थी परन्तु मनमोहन सरकार को तब इस जनगणना के आंकड़े समायोजित करने का समय नहीं मिल पाया और लोकसभा के नये चुनाव 2014 के अप्रैल-मई महीने में हो गये और केन्द्र में सरकार बदल गई। उस समय भी लोकसभा में नेताओं ने यह तर्क दिया था कि 1931 में अंग्रेजी शासनकाल के दौरान अंतिम बार कायदे से जातिगत जनगणना हुई थी और वे ही पुराने आंकड़े सही समझे जा रहे हैं । हालांकि अंग्रेजों ने 1941-42 में भी जातिगत जनगणना कराई थी मगर वह द्वितीय विश्व युद्ध का समय था जिसकी वजह से वह जनगणना आधी-अधूरी रही थी और उसके आंकड़ों का समायोजन भी नहीं हुआ था। इसके बाद जातिगत जनगणना सीधे 2011 में ही हुई मगर उसके आंकड़ों के बारे में देश अनभिज्ञ है। जातिगत जनगणना की वर्तमान में सबसे पहले मांग बिहार के मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार ने उठाई और अपने ही स्तर पर बिहार राज्य में जातिगत जनगणना कराने के आदेश भी जारी कर दिये। 
दरअसल भारत में हर दस साल बाद जनगणना कराये जाने का नियम है। मगर 2011 के बाद 2021 में पूरे देश में कोविड महामारी के चलते यह काम नहीं हो सका। अतः कांग्रेस के नेता श्री राहुल गांधी ने विगत दिनों कर्नाटक की एक चुनाव सभा में मांग की कि केन्द्र सरकार 2011 के जातिगत जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक करे जिससे देश के लोगों को यह पता चल सके कि भारत की कुल जनसंख्या में कितने ओबीसी या पिछड़े और अनुसूचित जाति, जनजाति व अन्य जातियों के लोग हैं जिससे उनकी जनसंख्या के अनुपात में उन्हें सरकारी सुविधाएं व आरक्षण दिया जा सके। इसके साथ ही उन्होंने 50 प्रतिशत की आरक्षण सीमा भी समाप्त करने की मांग की। 
आरक्षण दिये जाने के मामले में भारत में स्वतन्त्रता के बाद से कई परिवर्तन हुए हैं मगर सबसे बड़ा परिवर्तन पिछड़ों को आरक्षण देने सम्बन्धी है। साथ ही मोदी सरकार ने आर्थिक रूप से विभिन्न सभी वर्गों के लोगों को भी दस प्रतिशत आरक्षण देने का कानून बनाया। लोकतन्त्र में यह भी निश्चित होता है कि प्रत्येक राजनैतिक दल अपने वोट बैंक या जनाधार की तलाश में रहता है मगर यह जनाधार कुछ मूल मुद्दों को लेकर ही तैयार होता है। ये मुद्दे कुछ भी हो सकते हैं क्योंकि बहुदलीय राजनैतिक व्यवस्था में विभिन्न दल अपने-अपने मुद्दे अपने हिसाब से इस प्रकार तय करने में मशगूल रहते हैं जिससे उन्हें अधिकाधिक जन समर्थन मिले। अतः पिछड़े वर्गों की जातिगत जनगणना के आंकड़ों को भी हम इस दायरे से बाहर नहीं रख सकते। 

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