भारत में सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष की बहुत लम्बी परंपरा रही है जिसका सम्बन्ध हम ईसा से छठी शताब्दी पूर्व बौद्ध व जैन काल तक से जोड़ सकते हैं क्योंकि इन धर्मों का उदय ही हिन्दू धर्म में फैली वर्ण व्यवस्था के बीच जन्मगत जाति के आधार पर मनुष्य के साथ भेदभाव की सामाजिक स्थापना को समाप्त करने के लिए ही हुआ था। इतिहास जब हमें बताता है कि महाप्रतापी सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य अपने जीवन के अन्तिम काल में जैन धर्म का अनुयायी क्यों हो गया था और उसके पौत्र सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म क्यों स्वीकार किया था तो हमें उस समय के सामन्ती समाज की विसंगतियों के बारे में कुछ एहसास इस तरह हो सकता है कि इन राजाओं ने वर्ण व्यवस्था के तहत उल्लिखित क्षात्र धर्म (शासन करने का अधिकार रखने वाली जाति क्षत्रिय) का समाजीकरण या उसे लोक मूलक बना दिया था जिसकी वजह से अंतिम मौर्य सम्राट वृहदरथ के आते-आते उसका प्रधान सेनापति एक ब्राह्मण पुष्यमित्र संघ बन गया था, जिसने वृहदरथ की हत्या करके मगध की गद्दी पर अपना अधिकार जमाया था।
21वीं सदी में हमें उस इतिहास में जाने की कोई जरूरत नहीं है कि किस प्रकार बौद्ध व हिन्दू समाज के लोगों में संघर्ष होता रहा और ‘मनुस्मृति’ को भारतीय राजाओं ने अपने शासन करने का विधान बनाया। इस बारे में भारत में सामाजिक न्याय के बहुत बड़े पुरोधा डा. भीमराव अम्बेडकर ने अपनी पुस्तकों में विस्तार से लिखा है। अतः यह बेसबब नहीं है कि डा. अम्बेडकर ने ही मनुस्मृति पुस्तक की सार्वजनिक रूप से होली जलाई थी और जीवन के अन्त में उन्होंने भी 1956 में बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया था। डा. अम्बेडकर तो इस निष्कर्ष पर भी पहुंचे थे कि मनुस्मृति पुष्यमित्र संघ के कार्यकाल में लिखवाई गई हो सकती है। यदि इस विवाद से पल्ला झाड़ कर हम आगे पिछली 19वीं, 20वीं व वर्तमान 21वीं सदी की तरफ बढे़ं तो पायेंगे कि समाज सुधार के सर्वाधिक आन्दोलन अंग्रेजी शासनकाल के दौरान ही हुए। इसका मतलब यह हुआ कि जैसे-जैसे अंग्रेजों ने 1860 के बाद भारत में कानून के तहत चलने वाले समाज की स्थापना को पोषित करने का प्रयत्न किया वैसे-वैसे ही भारत में सामाजिक न्याय के लिए लड़ाई भी आगे बढ़ने लगी महात्मा ज्योति राव फुले व सावित्री बाईफुले से लेकर दक्षिण में पेरियार व उत्तर पश्चिम में डा. अम्बेडर जैसे महान नेताओं ने इसकी कमान संभाली जिन्हें उस समय आजादी की लड़ाई लड़ने वाले महात्मा गांधी का पूरा समर्थन मिला। अतः भारत के संविधान में सामाजिक न्याय को विशेष महत्ता दी गई और राज्य या सत्ता को इसे प्राप्त करने के लिए जरूरी उपाय करने के लिए निदेशित किया गया। यह तयशुदा बात है कि भारत में सर्वाधिक जनसंख्या प्रारम्भ से ही कर्मशील या खेती पर निर्भर आजीविका मूलक लोगों की रही है क्योंकि 1947 में जब भारत आजाद हुआ तो इसकी 90 प्रतिशत जनसंख्या केवल खेती पर ही निर्भर थी।
मुगल शासनकाल में जमींदारी या जागीरदारी प्रथा को जो वैधानिक स्वरूप मिला था उससे कृषि जगत में नये सुधारों का जन्म हुआ था मगर ये सुधार सत्ता को मजबूत बनाने की गरज से ही किये गये थे जिसकी वजह से कृषि पर निर्भर हिन्दू समाज की विभिन्न जातियां जागीरदारों या मनसबदारों के अधीन ही रहीं और धार्मिक रूप से भी समाज में निम्न स्तर की भागी बनी रहीं जिससे उनका शैक्षणिक व आर्थिक विकास अवरुद्ध रहा। जातियों के खांचे में कृषि मूलक जातियों को निचले पायदान पर रखा गया। एेसा नहीं है कि इन लोगों में धर्म परिवर्तन करके मुस्लिम बने लोग शामिल नहीं थे मगर इस्लाम कबूल करने के बावजूद इनके ही समाज में इनके साथ जातिगत भेदभाव जारी रहा। अतः स्वतन्त्र भारत में सामाजिक न्याय की लड़ाई बहुत सरल या सामान्य नहीं है बल्कि यह बहुत उलझी हुई पहेली की तरह है जिसे आधुनिक भारत में सबसे पहले स्व. पेरियार ने दक्षिण में सुलझाने के लिए व्यापक आन्दोलन चलाया और जातिगत भेदभाव के खिलाफ पूरे तमिल समाज को आन्दोलित किया और उसकी सांस्कृतिक जड़ों तक पर जमकर हमला किया। अतः दक्षिण भारत को आज भी सामाजिक न्याय का पुरोधा माना जाता है।
सर्व प्रथम आरक्षण की प्रक्रिया तमिलनाडु राज्य से ही शुरू हुई और आजादी के तुरन्त बाद पं. नेहरू के कार्यकाल में ही हुई जिसका विरोध उस समय चक्रवर्ती राजगोपालाचारी तक ने किया था। हालांकि यह मामला एक विधवा स्त्री को उसके पति के स्थान पर नौकरी देने का था। लेकिन आज पुनः दक्षिण भारत से ही पिछड़ी जातियों या ओबीसी को न्याय देने के लिए उनकी जातिगत जनगणना कराने की पुरजोर मांग उठ रही है और इसके पीछे तर्क यह है कि जब भारत में प्रत्येक व्यक्ति को एक वोट देने का समान अधिकार प्राप्त है तो यह कैसे संभव हो सकता है कि समाज के जिन लोगों की जनसंख्या सबसे अधिक हो उन्हीं की लोकतान्त्रिक शासन में हिस्सेदारी सबसे कम हो। यह सवाल वाजिब कहा जा सकता है लोकतन्त्र का ही यह नियम होता है कि जिसके वोट सर्वाधिक होते हैं राज भी उसी का होता है। इस तरफ भी सबसे पहले ध्यान समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया ने ही दिलाया था और कहा था कि एक समय एेसा जरूर आ सकता है जब पिछड़ी जातियों के लोग समूचे शासन तन्त्र में अपना आनुपातिक हिस्सा मांगेगी अतः अपने जीते जी ही डा. लोहिया अपनी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से लोकसभा व विधानसभा की सीटों पर अधिकाधिक पिछड़े उम्मीदवार उतारते थे। वह पिछड़ी जातियों को सीधे राजनैतिक हिस्सेदारी देने के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने उस समय ‘जन’ पत्रिका में एक लेख लिखकर पिछड़ों को उनका हक देने की वकालत भी की थी। अतः आज तमिलनाडु के मुख्यमन्त्री व द्रमुक के नेता श्री एम.के. स्टालिन इस मुद्दे पर जिस प्रकार देश के सभी विपक्षी दलों का एका कर रहे हैं उनका आशय सिर्फ इतना ही है कि ‘वोट हमारा-राज तुम्हारा, नहीं चलेगा- नहीं चलेगा’। संयोग से यह नारा 1972 में भाजपा के ही नेता डा. मुरली मनोहर जोशी ने तत्कालीन इन्दिरा शासन के खिलाफ दिया था। अतः पिछड़ों की जातिगत जनगणना आने वाले समय में बहुत बड़ा मुद्दा बन सकती है।