आन्ध्र प्रदेश की वाईएसआर कांग्रेस पार्टी की जगन रेड्डी सरकार ने अपने राज्य में जातिगत सर्वेक्षण कराने की घोषणा करके पूरे उत्तर भारत को चौंका दिया है। इसकी मुख्य वजह यह मानी जाती है कि आम जन अवधारणा के अनुसार जातिगत समस्या केवल उत्तर प्रदेश व बिहार जैसे राज्य में ही मुख्य रूप से जानी जाती है परन्तु वास्तव में हकीकत एेसी नहीं है क्योंकि दक्षिण भारत के राज्यों में भी सामाजिक संरचना पर जातिगत प्रभाव उत्तर भारत के राज्यों के समान ही है जिसका सबसे बड़ा उदाहरण तमिलनाडु राज्य है जहां 1917 से ही जातिगत आधार पर सामाजिक भेदभाव किये जाने के विरुद्ध आन्दोलन शुरू हुआ था और बाद में गठित 'जस्टिस पार्टी' ने इसकी कमान अपने हाथों में ली थी परन्तु यह केवल सामाजिक भेदभाव का ही मामला नहीं था बल्कि इसके साथ आर्थिक विषमता और निचली कही जाने वाली जातियों का आर्थिक शोषण भी बंधा हुआ था। तमिलनाडु में कालान्तर में स्व. पेरियार ने सामाजिक क्रान्ति की अलख जगाई और शूद्र व पिछड़ी कही जाने वाली जातियों में चेतना जागृत करके उनमें पृथक सांस्कृतिक बोध तक भरा और द्रविड़ कड़गम पार्टी की स्थापना की। परन्तु उनकी पार्टी इसके साथ ही प्रथक द्रविड़ सांस्कृतिक आधार पर स्वतन्त्र हुए भारत की भौगोलिक संप्रभुता को भी चुनौती देती थी जिससे असहमति रखते हुए उन्हीं के शिष्य स्व. सी. अन्नादुरै ने अपनी अलग द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम पार्टी बनाई और भारतीय संविधान व इसकी संप्रभुता में यकीन रखते हुए पहली 1957 विधानसभा चुनावों में भाग लिया। इसके बाद यह पार्टी लगातार चुनावी प्रगति करती रही और केवल दस वर्ष बाद 1967 में तमिलनाडु में कांग्रेस पार्टी को हरा कर भारी बहुमत से सत्ता पर आसीन हो गई।
यह इतिहास लिखने का आशय केवल यह है कि भारत में सामाजिक जातिगत समीकरणों का सम्बन्ध सीधे आर्थिक पुनरुत्थान और राजनैतिक सशक्तिकरण से जाकर जुड़ता है। आन्ध्र प्रदेश की सामाजिक संरचना में भी ये मुद्दे बहुत गहराई तक देखे जा सकते हैं क्योंकि ब्रिटिश काल में इस राज्य के बहुत से इलाके पहले 'मद्रास रेजीडेंसी' में ही आते थे। अतः जगन रेड्डी का जातिगत सर्वेक्षण कराने का फैसला विशुद्ध रूप से राजनैतिक समीकरर्णों को साधने का लगता है क्योंकि कांग्रेस के नेता श्री राहुल गांधी ने पूरे देश में जातिगत जनगणना कराये जाने के सवाल को आज भारत का ज्वलन्त मुद्दा बना दिया है। इसके तार बेशक मंडल आयोग से जोड़े जा सकते हैं परन्तु बात केवल मंडल आयोग तक सीमित नहीं है क्योंकि उत्तर भारत में यह प्रयोग स्व. चौधरी चरण सिंह 1969 में शुरू कर चुके थे जब उन्होंने 1967 में कांग्रेस से अलग होकर 1969 में अपनी अलग पार्टी 'भारतीय क्रान्ति दल' बनाई थी।
चौधरी चरण सिंह भारत के ग्रामीण पृष्ठभूमि के पहले प्रधानमन्त्री भी अल्पकाल के लिए 1979 से 1980 तक भी रहे। उन्होंने भारत की गरीब-गुरबा व मेहनतकश व कामगार जातियों के लोगों को ग्रामीण भारत की ताकत के रूप में खड़ा किया और उसे 'असली भारत' बताया। उनकी इस राजनीति ने उस दौर में कांग्रेस व जनसंघ दोनों के ही होश उड़ा दिये और राजनीतिक सत्ता में हाशिये पर खड़े लोगों को उनके वोट की ताकत का एहसास कराया। इसकी काट तब केन्द्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस की नेता श्रीमती इंदिरा गांधी को ढूंढनी पड़ी और उन्होंने इसी पिछड़े व ग्रामीण समाज में अपनी सरकार की विश्वसनीयता जमाने के लिए प्रखर समाजवादी नीतियों का सहारा लिया जिसमें बैंकों का राष्ट्रीयकरण व पूर्व राजे-रजवाड़ों को मिलने वाले सालाना वार्षिक वजीफे (प्रविपर्स) का खात्मा था। इस नीति ने भारत की राजनीति में जो क्रान्तिकारी बदलाव किया उसके असर में इस देश के लोग अयोध्या में राम मन्दिर आन्दोलन शुरू होने और उसके प्रत्युत्तर में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने तक रहे। मगर 1991 में कांग्रेस के ही प्रधानमन्त्री स्व. पी.वी. नरसिम्हाराव ने इन्दिरा गांधी द्वारा बनाई गई भारत की आर्थिक इमारत को जड़ से ही पलट कर ऊपर से नीचे कर दिया और इसे आर्थिक उदारीकरण का नाम दिया।
इस अर्थ तन्त्र ने सामाजिक प्रगति व बदलाव में पूंजी की सत्ता स्थापित की जिसके प्रभाव में राजनीति भी बिना आये नहीं रह सकी। इससे भारत का वह आर्थिक बुनियादी ढांचा भरभरा कर गिर पड़ा जिसमें सरकार का सीधा हस्तक्षेप आर्थिक गैर- बराबरी दूर करने में होता था। यह ढांचा सरकारी सेवारत नागरिकों को ताउम्र आर्थिक सुरक्षा भी प्रदान करता था परन्तु पूंजी की सत्ता ने इस ढांचे को जिस प्रकार धीरे-धीरे ध्वस्त किया उसके असर में नई पीढि़यों का आना बहुत स्वाभाविक प्रक्रिया थी। यही वजह है कि आज पूरे देश में पुरानी पेंशन स्कीम (ओपीएस) बहुत बड़ा चुनावी मुद्दा बन चुकी है और सरकारी कम्पनियों का निजीकरण सामाजिक व आर्थिक सुरक्षा से जुड़ चुका है। इसका सम्बन्ध भारत की जातिगत व्यवस्था से जाकर जुड़ता है क्योंकि अनुसूचित जातियों व जन जातियों के अलावा मंडल आयोग द्वारा पिछड़ी जातियों को मिला आरक्षण केवल कागजी बनता जा रहा है जिसकी वजह से जातिगत जनगणना की बात लगातार जोर पकड़ती जा रही है। जगन रेड्डी ने अगले वर्ष अपने राज्य में होने वाले चुनावों को देखते हुए 'उड़ती चिड़िया को हल्दी' लगाने की कोशिश की है।
भारत जैसे बहुसांस्कृतिक व विविध सामाजिक संरचना से भरे कृषि मूलक देश में ग्रामीण सामाजिक संरचना का ऊपरी स्वरूप अलग जरूर दिखाई दे सकता है परन्तु उसका आन्तरिक ताना-बाना जातिगत आधार पर बना हुआ है। पूंजीवादी सत्ताधिकार इसे और अधिक विद्रूप स्वरूप में जमीन पर अपनी आर्थिक आवश्यकताओं की वजह से उतार रहा है। इस तरफ इस देश के महान विभूति महात्मा गांधी ने अपनी छोटी सी पुस्तक 'ग्राम स्वराज' में बहुत पहले चेताया था। गांधी यह भी कहते थे कि हर पीढ़ी को अपनी आगे आने वाली पीढ़ी को एक सुरक्षित भविष्य छोड़ कर जाना चाहिए और लोकतन्त्र में राजनीति का आधार भी यही होता है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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