जम्मू-कश्मीर, जो भारतीय प्राकृतिक खूबसूरती की सबसे बड़ी धरोहर है, में लोकतंत्र की शक्ल बिगाड़ने की कोशिश में फिरकापरस्त लोग हमेशा लगे रहते हैं। दु:ख तब होता है जब राजनीतिक पार्टियां भी देश के सबसे बड़े लोकतांत्रिक स्वरूप पर प्रहार करने की कोशिश करती हैं।
जो राजनीतिक दल पंचायत चुनावों में शिरकत नहीं करते वे जब उसी जम्मू-कश्मीर में मौका देखकर सरकार बनाने की कोशिशें करते हैं तो उनके मुंह पर तमाचा पड़ना ही चाहिए। जम्मू-कश्मीर में लगभग 5 महीने पहले तक भाजपा की बैसाखियों से पीडीपी की सरकार चल रही थी परंतु जब उसकी आतंकवादी और पाकिस्तान के समर्थन में नीयत और नीतियां बेनकाब हो गईं तो भाजपा ने उससे समर्थन वापिस ले लिया। महबूबा की सरकार गिर गई।
तब से रह-रहकर कोशिशें होती रहीं कि अब वहां मिल-जुलकर सरकार बनाई जाए। यद्यपि आपस में विरोध रखने वाली पार्टियां कभी मिलती नहीं, लेकिन यहां तो मौके का फायदा उठाने के लिए पीडीपी की चीफ महबूबा मुफ्ती सईद, नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस ने कमाल की एकजुटता का परिचय दिया और चार दिन पहले राजभवन में अपना पत्ता फैंक दिया। दलील यह दी कि हमारे पास 56 विधायकों का समर्थन है और हमें सरकार गठन की इजाजत दी जाए।
दरअसल, इन तीन विरोधियों के एक हो जाने की कोशिशें अंदर ही अंदर चल रही थीं परंतु इस सीमांत राज्य में राज्यपाल सत्यपाल जी ने कमाल का संवैधानिक दायित्व निभाया और इस चिट्ठी के मिलते ही उन्होंने विधानसभा को भंग करने का ऐलान कर दिया। कल तक सभी राजनीतिक दल चुनावी प्रक्रिया से दूर रहते रहे हैं और जम्मू-कश्मीर में किसी ने कश्मीरी पंडितों की सुध नहीं ली, जिन पर आतंकवादी आए दिन जुर्म कर रहे हैं। भाजपा ने यह सोचकर कि आतंकवाद का खात्मा और कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़कर चले जाने की धमकियों से स्थायी रूप से निजात दिलाने के लिए महबूबा मुफ्ती को समर्थन दिया था।
जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र को जीवित रखने के लिए भाजपा ने उसकी धुर विरोधी होने के बावजूद यह सोचकर कि साम्प्रदायिक सद्भाव और शांति जरूरी है, पीडीपी की सरकार बनाई थी लेकिन जब आतंकवादियों की पीठ खुद सरकार ठोक रही थी तो सही वक्त पर भाजपा ने अपना दांव चल दिया और ऐसे ही समय में मौकापरस्तों को इस बार राज्यपाल सत्यपाल ने करारा जवाब दिया है। इसे कहते हैं मार। जो मार खा रहा है उसे उसकी औकात और गलती भी पता चल रही है। घाटी का दर्द केवल वे लोग समझ सकते हैं जो राष्ट्र को राष्ट्र समझते हैं।
इस मामले में भाजपा ने वहां बहुत कुर्बानियां दी हैं, लोगों के दिलों में विश्वास जगाने के लिए वहां तिरंगा भी फहराया लेकिन जब सरकारी स्तर पर इसका लाभ जनता तक न पहुंचे तो बताइये कोई क्या कर सकता है।
हमारा मानना है कि कश्मीर घाटी में हालात सामान्य होने ही चाहिएं और इसके लिए भाजपा और मोदी सरकार ने कई प्रयोग भी किए तो इनका स्वागत किया जाना चाहिए। इस कड़ी में गृहमंत्री राजनाथ सिंह, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और एनएसए अजीत डोभाल ने जितने भी शिद्दत से काम किए उनकी प्रशंसा की जानी चाहिए। इन सबको पता है कि पाकिस्तान रह-रहकर वहां अपना खेल खेल रहा है। दु:ख इस बात का है कि पीडीपी सरकार खामोश रही और उसने पत्थरबाजों को माफी दर माफी देने के साथ ही आतंकवादियों का समर्थन करना भी शुरू कर दिया था। ऐसे में अब उसी पार्टी को अगर कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस अपने 12 और 15 सदस्यों का समर्थन दे रही हैं तो राजनीतिक तराजू पर इस मौकापरस्ती को तौलना जरूरी था। राज्यपाल ने सही किया। यही उनका धर्म था।
हालांकि राजनीतिक पंडित इस मामले पर अलग-अलग प्रतिक्रियाएं दे रहे हैं परंतु हमारा मानना है कि जम्मू-कश्मीर में एक जटिल समस्या के समाधान का मार्ग प्रशस्त हो गया है। विधानसभा भंग होने के साथ ही अब वहां चुनाव हो सकते हैं, जो कि लगभग 2020 में होने हैं। हालांकि नियमानुसार चलें तो चुनाव छह माह में हो सकते हैं। तब तक राज्यपाल शासन चलेगा या बीच में कोई और रास्ता निकलेगा इसका जवाब समय ही बताएगा लेकिन एक बात पक्की है कि मौकापरस्ती का लाभ उठाते हुए तीनों विरोधी दल जो एकजुट हो चुके थे, जनता की नजर में बेनकाब हो चुके हैं।
आज की तारीख में जम्मू-कश्मीर को लेकर अनेक लोग पीडीपी के प्रति क्रोध व्यक्त करते हुए अपनी भावनाएं सोशल मीडिया पर अभिव्यक्त करते हैं। भले ही यह उनकी व्यक्तिगत अभिव्यक्ति है परंतु यह भी तो सच है कि इस समय राजनीतिक दलों को मिलकर स्वास्थ्यवर्धक माहौल बनाना चाहिए जो लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करता हो।
लोकतंत्र की पहली सीढ़ी को ही काटकर चलने वाले लोग अगर विधानसभा में उतरने का दम रखते हैं तो उन्हें वोटतंत्र को प्रमोट करना चाहिए। भारतीय लोकतंत्र तभी मजबूत रह सकता है अगर लोग वोटिंग के लिए घरों से निकलें परंतु लोकल बॉडी चुनावों में जो पार्टियां धमकियां देने का काम करती हों वो अब लोकतंत्र में बेनकाब हो रही हैं। आने वाला वक्त उन्हें इसका करारा जवाब देगा लेकिन एक बात प्रमाणित हो चुकी है कि राज्यपाल अगर संवैधानिक शक्तियां अपने पास रखते हैं तो उनका प्रयोग नियमों के तहत करने की ताकत और हिम्मत होनी चाहिए जिसे राज्यपाल महोदय ने जम्मू-कश्मीर में निभाकर मौकापरस्ती और फिरकापरस्ती में यकीन रखने वालों को करारा जवाब दे दिया है।