लोकसभा चुनावों में केवल 100 दिन का समय शेष रह जाने और राफेल विमानों की खरीद पर उठे बवाल के बीच हम स्वतन्त्र भारत की शौर्यगाथा के उस स्वर्णिम अध्याय को अनदेखा करने की भूल कर गये जिसने पूरे दक्षिण एशिया की न केवल राजनीति को बदल कर रख दिया था बल्कि भारत की सेना को उस ऊंचे पायदान पर लाकर खड़ा कर दिया था जहां पहुंचने का ख्वाब विश्व की महाशक्तियां कहे जाने वाले मुल्क देखा करते थे, 1971 में संसद का शीतकालीन सत्र चालू था और तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी इन्तजार कर रही थीं कि तब के पूर्वी पाकिस्तान में भारतीय सेना और बंगलादेश की मुक्ति वाहिनी अन्ततः पाकिस्तानी सेना को धूल चटा देंगे क्योंकि केवल 14 दिन पहले ही उन्होंने उस समय के थल सेनाध्यक्ष जनरल मानेकशा को मानवीयता की रक्षा के लिए पूर्ण युद्ध छेड़ने का निर्देश दिया था और अपेक्षा की थी कि इस कार्य में एक माह से अधिक समय लग सकता है, परन्तु क्या कमाल हुआ कि केवल 14 दिन में ही भारतीय सेना ने ढाका पहुंचकर एक लाख के लगभग पाकिस्तानी सैनिकों का आत्मसमर्पण करा लिया और हिन्दोस्तानी फौज के कमांडर लेफ्टि. जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने पाकिस्तानी कमांडर जनरल नियाजी अपनी ‘जान-ओ- माल’ की भीख मांगने लगा, दुनिया के नक्शे पर उस दिन एक नये देश ‘बंगलादेश’ का उदय हुआ और अपने लोगों के मुक्ति संग्राम के महायोद्धा शेख मुजीबुर्रहमान ने हुंकार भरी ‘आमार शोनार बांग्ला।’
पूर्वी पाकिस्तान में रहने वाले हर हिन्दू-मुसलमान व बौद्ध ने मुहम्मद अली जिन्ना के 1947 में लिखे इतिहास को फूंकते हुए एेलान किया ‘भूलबे ना बांग्ला।’ भारत में 16 दिसम्बर के बाद जश्न शुरू हो गया और उत्तर से लेकर दक्षिण तक ‘इन्दिरा गांधी जिन्दाबाद’ और ‘जय हिन्द की सेना’ नारे लगने लगे, यह भारत की विजय का अभूतपूर्व दिन था क्योंकि तब पाकिस्तान की मदद के लिए अमेरिका ने बंगाल की खाड़ी में अपना ‘सातवां एटमी जंगी जहाजी बेड़ा’ तैनात करके धमकी दी थी कि वह परमाणु अस्त्रों का प्रयोग पाकिस्तान के हक में कर सकता है, मगर तब इन्दिरा जी ने किसी भी धमकी के आगे झुकने से इन्कार करते हुए साफ कर दिया था कि इस ‘मानवीय युद्ध’ को अन्तिम चरण तक पहुंचने से कोई भी ताकत नहीं रोक सकती और भारत के मित्र देश सोवियत संघ ने जवाबी चेतावनी दे दी थी कि अगर एक भी गोला सातवें बेड़े से छूटा तो उसका मुंहतोड़ उत्तर दिया जाएगा, हमारा पड़ोसी चीन तब पूरी तरह तटस्थ रहने को मजबूर हो गया था क्योंकि श्रीमती गांधी ने पूरी दुनिया में पूर्वी पाकिस्तान के लोगों के पाकिस्तानी सरकार के खिलाफ विद्रोह को मानवीय अधिकारों की लड़ाई में बदल दिया था।
भारत की कूटनीति और सैनिक शक्ति का मिलाजुला स्वरूप जिस तरह 1971 में प्रकट हुआ उसने पाकिस्तान को बीच से चीर कर दो हिस्सों में बांट दिया और इसके हुक्मरानों को तब अमेरिका ने भी पनाह देने से हाथ खींच लिए। यह थी भारत की ताकत जो 1971 में प्रकट हुई थी और इसके अमन व शान्ति के सन्देश के अजीम जज्बे का इजहार हुआ था, लेकिन बंगलादेश का युद्ध 1971 के समय पूर्व हुए लोकसभा चुनावों के बाद हुआ था और इन चुनावों के दौरान श्रीमती इन्दिरा गांधी ने 14 निजी बैकों के राष्ट्रीयकरण सम्बन्धी अध्यादेश को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अवैध करार देने को चुनावी मुद्दा बना दिया था जबकि रक्षा मोर्चे पर उन्होंने पाकिस्तान के भारतीय सीमाओं पर उड़ने वाले जहाजों पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया था, इस मुद्दे पर पाकिस्तान ने हेग के अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय में भारत को चुनौती दे रखी थी और पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेम्बली के हुए चुनावों में बंगबन्धु शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग को पूर्ण बहुमत प्राप्त हो चुका था मगर वहां के फौजी हुक्मरान हुकूमत की बागडोर उनके हाथ में नहीं देना चाहते थे और बार-बार उनके साथ फरेब कर रहे थे, जिसके चलते उन्होंने पाकिस्तान से अलग होकर पृथक बंगलादेश बनाने के लिए आन्दोलन शुरू कर दिया था।
एेसी विकट विपरीत परिस्थितियों में भारत में चुनाव हो रहे थे किन्तु इन्दिरा गांधी को भारत के मतदाताओं की अक्ल पर पूरा भरोसा था जिसके बूते उन्होंने अपनी हस्ती दांव पर लगा दी थी लेकिन अन्ततः विजय उन मतदाताओं की हुई जिन्होंने इन्दिरा गांधी को इन चुनावों में भारी बहुमत देकर जिताया परन्तु पश्चिमी देशों को इन्दिरा गांधी के इस विशाल व्यक्तित्व का उदय पसन्द नहीं आया और उन्होंने इसके बाद हुए 1971 के बंगलादेश युद्ध में पाकिस्तान की पूरी मदद करने की कोशिश की क्योंकि इसी के माध्यम से वे भारतीय उपमहाद्वीप में सैनिक सामग्री की प्रतियोगिता को जारी रख सकते थे, लेकिन श्रीमती गांधी ने भारत की पूर्वी सरहद की पूरी तरह रंगत बदल कर इसे प्रेम और मोहब्बत में तब्दील कर दिया। यह कार्य उन्होंने सेना की मदद से किया और इस तरह किया कि पूरी दुनिया के सामने यह असमंजस की स्थिति आ गई कि वह मानवीय ताकतों का साथ दे या ‘अमानवीय पाकिस्तान’ के पाले में खड़ी नजर आये, अतः आज का दिन भारतीय इतिहास का एेसा मील का पत्थर है जिसे देखकर आने वाली पीढि़यां भी अपना रास्ता तय करेंगी।
अतः आज हम जिस उलझन में फंसे हुए हैं उसका जवाब भी बंगलादेश दे रहा है, संयोग है कि इस देश में भी आम चुनाव इसी महीने में हो रहे हैं मगर हैरानी की बात यह है कि इस देश में चुनावी मुद्दा यह नहीं है कि इसकी सीमा में स्थित सैकड़ों हिन्दू व बौद्ध धर्मस्थलों को बंगलादेश की सरकार अपनी राष्ट्रीय धरोहर क्यों मानती है जबकि उसका राजधर्म इस्लाम है बल्कि यह है कि इस्लामी जेहादी व कट्टरपंथी ताकतों को राष्ट्रीय राजनीति में किस प्रकार हाशिये पर डाला जाए जिससे यह देश अपने आर्थिक विकास के रास्ते पर एकजुट होकर आगे बढ़ सके, हमारी फौज पूरी तरह ‘अराजनैतिक’ है, इसका किसी पार्टी से कोई लेना-देना नहीं होता। यह भारत की फौज ही है जो मानवीयता के रक्षार्थ अपना शौर्य दिखाने से पीछे नहीं हटती। हम भारतवासियों को आज ‘मानवीयता दिवस’ मनाना चाहिए और हर फौजी को सलाम करना चाहिए।