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कब्रगाह बनते अस्पताल

उत्तर प्रदेश के अस्पतालों में एक बार फिर से मासूमों पर मौत तांडव कर रही है। 2017 में गोरखपुर में बच्चों की मौत के बाद बहराइच में दिमागी

उत्तर प्रदेश के अस्पतालों में एक बार फिर से मासूमों पर मौत तांडव कर रही है। 2017 में गोरखपुर में बच्चों की मौत के बाद बहराइच में दिमागी बुखार ने कहर बरपा रखा है। पिछले 50 दिनों में 71 से ज्यादा बच्चों की मौत हो चुकी है। मौतों का आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है। अस्पतालों में कोई सुविधा नहीं, कोई बैड भी खाली नहीं। इसी कारण मरीजों का इलाज जमीन पर बिठाकर किया जा रहा है। इस दौरान जनप्रतिनिधियों की असंवेदनशीलता का परिचय देने के उदाहरण सामने आए हैं।

बहराइच की विधायक और उत्तर प्रदेश बेसिक शिक्षा एवं बाल विकास मंत्री अनुपमा जायसवाल मासूमों का दर्द झेल रहे परिजनों के आंसुओं से बेखबर एक कार्यक्रम में पति संग डांस करती नजर आईं। पिछले वर्ष गोरखपुर का बीआरडी अस्पताल मासूम बच्चों की कब्रगाह बना था। सिर्फ अगस्त महीने में अस्पताल में 386 बच्चों की मौत हुई थी।

इसमें 36 मौतें तो आक्सीजन की कमी से हुई थीं जिस पर बड़ा हंगामा मचा था। रुहेलखंड और मध्य प्रदेश के कई जिलों में फैले रहस्यमय बुखार के कारण अब तक 700 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। इससे अधिक चिन्ताजनक बात तो यह है कि बुखार की प्रकृति और कारण की पहचान भी अभी तक नहीं की जा सकी है। इसी कारण से स्वाभाविक रूप से इस पर काबू नहीं पाया जा सका है।

अधिकतर मौतें रुहेलखंड के बरेली, पीलीभीत, बदायूं और शाहजहांपुर जिलों में हुई हैं। अब इसका प्रकोप बहराइच, हरदोई और सीतापुर समेत कई अन्य जिलों में फैल रहा है। हालांकि स्वास्थ्य अधिकारी मौतों के लिए मलेरिया, टायफाइड और वायरल बुखार को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं लेकिन कोई भी अधिकारी यह बताने की स्थिति में नहीं कि मामूली इलाज से ठीक हो जाने वाला मलेरिया पर टायफाइड अचानक इतने बड़े पैमाने पर जानलेवा कैसा बन गया? दूसरी तरफ देश की राजधानी के महर्षि वाल्मीकि अस्पताल में डिप्थीरिया का बैक्टीरिया बच्चों की मौत का कारण बन रहा है। 15 बच्चों की मौत के बाद भी प्रशासन असंवेदनशीलता ही दिखा रहा है।

उत्तर प्रदेश से लेकर दिल्ली तक लोग दहशत में हैं। दिल्ली के अस्पताल में न तो दवा है आैर न ही एंटी डॉट सिरप। अस्पताल के डाक्टर आैर नर्सें बेबस हैं, अस्पताल प्रशासन केवल लीपापोती ही कर रहा है। महर्षि वाल्मीकि अस्पताल डिप्थी​रिया के इलाज के लिए उत्तर भारत का अकेला सरकारी अस्पताल है मगर इलाज के लिए दवा ही नहीं हो तो डाक्टर भी क्या करें। निजी अस्पतालों में इलाज बहुत महंगा है, इसलिए मरीज सरकारी अस्पतालों में ज्यादा दाखिल होते हैं। अगर मरीजों के तिमारदारों को प्राइवेट कैमिस्ट से 10-10 हजार में सिरप खरीदना पड़े तो हालात का अनुमान लगाया जा सकता है। दिल्ली सरकार ने कहा है कि अगर नगर निगम उनसे सम्पर्क करता है तो दिल्ली सरकार दवा खरीद में मदद करने को तैयार है।

हमारे देश में स्वास्थ्य सेवाएं अत्यधिक महंगी हैं जो गरीबों की पहुंच से काफी दूर हो गई हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा, भोजन और आवास जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं हैं। हम एक राष्ट्र के रूप में इस लक्ष्य की प्राप्ति में असफल रहे हैं। भारत संक्रामक रोगों का पसंदीदा स्थल तो है ही, साथ में गैर-संक्रामक रोगों से ग्रस्त लोगों की संख्या में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। प्रत्येक वर्ष लगभग 5.8 लाख भारतीय हृदय और फेफड़े से सम्बन्धित बीमारियों के कारण काल के गाल में समा जाते हैं। स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता में विषमता का मुद्दा काफी गम्भीर है। शहरी क्षेत्रों के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति ज्यादा बदतर है। तीव्र और अनियोजित शहरीकरण के कारण निर्धन आबादी और विशेषकर झुग्गी-झोंपड़ियों में रहने वालों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है।

आबादी का यह हिस्सा सरकारी और निजी अस्पतालों के समीप रहने के बावजूद स्वास्थ्य सुविधाओं को पर्याप्त रूप से नहीं प्राप्त कर पाता। महंगी होती चिकित्सा व्यवस्था से आम आदमी द्वारा स्वास्थ्य पर किए जाने वाले खर्च में बेतहाशा वृद्धि हुई है। केवल इलाज पर खर्च के कारण ही प्रतिवर्ष करोड़ों की संख्या में लोग निर्धनता का शिकार हो रहे हैं। एक तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आयुष्मान योजना लागू कर रहे हैं ताकि लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हो सकें, गरीब प​िरवारों को 5 लाख तक का सुरक्षा कवर ​दिया जाएगा लेकिन राज्य सरकारों के स्वास्थ्य विभाग और स्थानीय निकायों द्वारा लापरवाही बरती जा रही है। भारत दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश है और इसकी वजह से स्वास्थ्य सेवाओं पर अत्यधिक दबाव है।

जन्म दर आैर मृत्यु दर के सम्बन्ध में आदर्श स्थिति यह है कि दोनों में कमी आनी चाहिए। आर्थिक विकास के कारण उपलब्ध राजकोषीय क्षमता में वृद्धि हुई है। इसी के अनुरूप स्वास्थ्य पर बजट में बढ़ौतरी भी हुई है लेकिन जब हम भारत में बदहाल स्वास्थ्य सेवाओं पर नजर दौड़ाते हैं तो यह समझना मुश्किल हो जाता है कि इतना खर्च करने के बाद भी हम वांछित प​िरणाम से क्यों वंचित हैं।

अस्पताल मौत की कब्रगाह क्यों बनते जा रहे हैं? देश को एक ऐसी नई स्वास्थ्य नीति की आवश्यकता है, जो जनता के प्रति संवेदनशील और उत्तरदायी हो। बहुत से आंकड़े बताते हैं कि भारत के लोग भी बीमारियों के प्रति सजग नहीं रहते। हमें नीतियों में इस बात का समावेश करना होगा कि हमारा खर्च रोगों के इलाज में कम रहे जबकि रोकथाम में अधिक। राज्य सरकारों को ठोस नीतियां अपनानी होंगी।

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