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पिंजरे में बन्द “तोते” की चु​नौतियां

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अन्ततः सर्वोच्च जांच एजैंसी सीबीआई जिसे कभी सर्वोच्च अदालत ने सरकारी पिंजरे में बन्द तोता करार दिया था, उसे नया बॉस मिल ही गया। सीबीआई निदेशक का चयन करने वाली समिति ने मध्यप्रदेश कैडर के 1983 बैच के आईपीएस अधिकारी ऋषि कुमार शुक्ला को नया चीफ बना दिया। वह मध्यप्रदेश पुलिस के महानिदेशक रहे। मध्यप्रदेश में कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद चार दिन पहले ही पुलिस हाउसिंग बोर्ड में स्थानांतरित किया गया था। उनका जोर हमेशा पुलिसिंग पर रहा और यही कारण है कि उन्हें सख्त पुलिस अधिकारी के तौर पर पहचाना जाता है। वह मध्यप्रदेश के कई क्षेत्रों में सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर पहचाने जाते हैं। वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट में भी ऋषि कुमार शुक्ला सबसे आगे रहे लेकिन अफसोस इस बात का है कि सीबीआई यानी तोते के बॉस का चयन सर्वसम्मति से होता तो बेहतर होता लेकिन उसकी नियुक्ति पर भी विवाद हो गया।

चयन समिति के सदस्य लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे का कहना है कि शुक्ला को एंटी करप्शन मामलों की जांच में कोई अनुभव नहीं है और अनुभवहीन शुक्ला को सीबीआई निदेशक बनाना नियमों का उल्लंघन है। छानबीन के कुल अनुभव के मामले में भी वह अन्य दावेदारों के मुकाबले सबसे नीचे थे। उन्हें केवल 117 माह का अनुभव है जबकि एक अन्य अधिकारी के पास सबसे अधिक 303 माह का अनुभव है। चयन समिति में शामिल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने 2-1 से फैसला कर ही दिया। अब सवाल यह है कि तोते के नए बॉस के सामने चुनौतियां बहुत बड़ी हैं। जब सीबीआई का तोता ‘गिद्ध’ बन जाए तो चुनौतियां तो बड़ी होंगी ही। सीबीआई की शुचिता पर गम्भीर सवाल उठ खड़े हुए हैं। संवैधानिक संस्था के प्रमुख रहे आलोक वर्मा और दूसरी पीढ़ी के अफसर राकेश अस्थाना के बीच जिस तरह का शीतयुद्ध छिड़ा था वह बेहद शर्मनाक करने वाला रहा।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक विश्वसनीय संस्था का गला घोटने वाले शीतयुद्ध का अन्जाम क्या हुआ, यह समूचा राष्ट्र जानता है। सीबीआई में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। इसका अन्दाजा तो इसी से लगाया जा सकता है कि सीबीआई के भीतर ही दो अधिकारियों ने एक-दूसरे के खिलाफ करोड़ों की रिश्वत लेने के आरोप लगाए। हालात यहां तक पहुंच गए कि सीबीआई दो खेमों में बंट गई। एक मांस निर्यातक के कारण कई आईपीएस अधिकारी हलाल हो गए। स्थिति यहां तक आ पहुंची कि सीबीआई को अपने ही अफसर के आफिस की तलाशी लेनी पड़ी। लोकतंत्र में संवैधानिक संस्थाओं के लिए यह घोर संकट है। यह प्रमाणित हो चला है कि देश की संवैधानिक संस्थाएं अपने विश्वास और शुचिता को बनाए रखने में नाकाम रही हैं।

दो अफसरों की आपसी जंग में देश का सबसे बड़ा नुक्सान हुआ है। सीबीआई मुख्यालय से जिस तरह का गंदा संदेश निकला उसकी वजह से पवित्र संवैधानिक संस्था का चाल, चरित्र और चेहरा बेनकाब हुआ है। यह साबित हो गया है कि केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो पर आंख मूंदकर भरोसा नहीं किया जा सकता। वहां जांच की आड़ में रिश्वत का खुला खेल चलता है। दौलतमंदों के लिए सीबीआई जैसी संस्था उनके पिंजरे का तोता है। पैसे के बल पर जो चाहें सो कहलवा सकते हैं। अफसरों के शीतयुद्ध में सरकार की छवि पर भी बुरा असर पड़ा है। अवाम की जनता भी यह जान चुकी है कि सीबीआई जैसी संस्था पर अब तक जो अटूट विश्वास था वह गलत साबित हुआ है। हालांकि संस्था पर सवाल पहले से उठते रहे हैं सिर्फ इस घटना से सीबीआई पर सवाल नहीं उठाए जा सकते हैं। लगभग हर सरकार ने इस संस्था में अहम भूमिका निभाई है।

अफसरों के बीच इस फसाद की असली जड़ वरिष्ठता या कैडेट वार भी हो सकता है क्योंकि आमतौर पर चीफ की कुर्सी पर सत्ता का पसंदीदा व्यक्ति होता है। कभी-कभी वरिष्ठता को किनारे कर सरकार इस तरह की नियुक्तियां अपने माफिक करती है। कहा जाता है कि राकेश अस्थाना गुजरात कैडर के अधिकारी हैं जबकि सीबीआई चीफ आलोक वर्मा उन्हें पसन्द नहीं करते थे। सीबीआई में कैडर को लेकर विवाद पूर्व में भी छिड़ चुके हैं। यह मामला भी उसी से जुड़ा है। कहा जा रहा है कि इस विवाद की शुरूआत दो साल पूर्व 2016 में शुरू हो गई थी जब संस्था के दूसरे पीढ़ी के कर्नाटक कैडेट के अफसर आर.के. दत्ता का तबादला गृह मंत्रालय में कर दिया गया था जब​कि सीनियर होने के नाते वह सीबीआई प्रमुख बन सकते थे क्योंकि उस वक्त सीबीआई प्रमुख कुछ दिन में रिटायर होने वाले थे। बाद में राकेश अस्थाना जो कि गुजरात कैडर से हैं उन्हें सीबीआई का अंतरिम निदेशक नियुक्त किया गया। वह चीफ बन जाते लेकिन अस्थाना की छवि पर सवाल उठने से आलोक वर्मा ने चीफ की कमान सम्भाल ली। दोनों अफसरों के बीच छिड़ी जंग की मूल वजह यही है।

विपक्ष आरोप लगाता रहा है कि सरकार उनका मुंह बन्द करने के लिए सीबीआई का राजनीतिक उपयोग कर रही है। अब अहम सवाल यह है कि सीबीआई की साख कैसे बचे? ऋषि कुमार शुक्ला को सबसे पहले खण्ड-खण्ड हो चुकी सीबीआई की साख बहाल करने की जिम्मेदारी आ गई है। सीबीआई की छवि ऐसी संस्था के रूप में कायम करनी होगी जिसे उसे तोता समझने की धारणा खत्म हो सके। जिस उद्देश्य के लिए संस्था की स्थापना की गई है उस उद्देश्य की रक्षा होनी चाहिए। अब समय आ गया है कि जमूरे का खेल बन्द हो और संस्था की डूबती साख और गरिमा को बचाया जाए। देखना है कि शुक्ला अपने कार्यकाल में चुनौ​ितयों को कैसे पार पा लेते हैं।

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