निर्भया गैंग रेप और हत्या में हैवानियत सामने आने पर लोगों का आक्रोश सड़कों पर फूटा था। आक्रोशित युवा रायसीना हिल्स पर राष्ट्रपति भवन के द्वार तक पहुंच गए थे जिसने सत्ता को हिला कर रख दिया था। उसके बाद बलात्कार के कानूनों को सख्त बनाया गया। महिलाओं की सुरक्षा के लिए निर्भया फंड की स्थापना की गई। बड़ी-बड़ी घोषणाएं की गईं लेकिन तब से लेकर आज तक कुछ नहीं बदला। हाथरस में युवती के साथ जो क्रूरता हुई, उसने तो पूरे देश को शर्मसार कर दिया। महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान की दुहाई देकर बहुत से नियम कानून लागू किए गए। महिला सशक्तिकरण पर भी टीवी चैनलों से लेकर समाज तक गर्मागर्म बहस होती रहती है मगर जमीनी हकीकत यह है कि देशभर में महिलाओं का जीवन सुरक्षित नहीं है और उनका जीना तो काफी दूभर हो चुका है। बदायूं में 50 वर्षीय आंगनबाड़ी कार्यकर्ता से गैंग रेप और हत्या से यह साबित हो गया है कि कड़े से कड़े कानून भी समाज में अपराध रोक नहीं सकते। सबसे शर्मसार करने वाली बात तो यह है कि मंदिर जैसी जिस जगह को महिलाएं सबसे सुरक्षित मानती हैं, वहां भी ऐसा जघन्य अपराध हुआ कि उससे जीने का अधिकार ही छीन लिया गया। पीड़ित रोज शाम को अपने परिवार की सलामती के लिए भगवान से प्रार्थना करने जाती थी, उसे क्या पता था कि वहां पुजारी के रूप में हैवान बैठा है, जो उसे ऐसी मौत देगा जिसे महसूस कर रुह भी कांप उठे। देर रात गए मंदिर का पुजारी और उसके चेले महिला का शव उसके घर छोड़ गए। परिवार वालों से कहा गया कि वह मंदिर में बने कुएं में गिर गई थी। फिर पुलिस और प्रशासन ने पुरानी कहानी दोहराई। 48 घंटे तक शव पड़ा रहा लेकिन किसी को कोई दया न आई। आनन-फानन में पुलिस ने मुख्य अभियुक्त की कहानी पर विश्वास कर मामले को हादसे का रूप देने की कोशिश क्यों की? जब पोस्टमार्टम में बलात्कार और हैवानियत की बात सामने आई तो पुलिस ने चेहरा बचाने के लिए प्राथमिकी दर्ज कर दो आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तुरन्त सख्ती बरतते हुए थानेदार को निलम्बित कर दिया है। मुख्य आरोपी मंदिर का पुजारी सत्यनारायण फरार है और वीडियो बनाकर लोगों को गुमराह कर रहा है।
बलात्कार की घटनाएं मानवता को तार-तार कर देने वाली होती हैं लेकिन गांव के नजदीक धर्म स्थल में महिला कितनी असहाय हो गई कि उसकी चीखें धर्म स्थल में ही दफन हो गईं, कोई उसकी मदद के लिए नहीं आया। इस देश में धर्म का मुखौटा लगाकर अनेक लोगों ने िकतने घिनौने काम किए हैं, इस पर कोई पर्दा नहीं रहा है। किसी मंदिर के पुजारी का चेहरा देखकर कोई नहीं बता सकता कि उसके भीतर एक क्रूर अपराधी िछपा बैठा है। इसलिए सिर्फ कानून-प्रशासन के जरिये बलात्कार मुक्त समाज बनाने की कोशिश एक धोखा ही हैं।
ऐसी घटनाओं पर राजनीति करने से भी समस्या खत्म नहीं हो सकती। फुटपाथ पर बिकने वाले घटिया साहित्य से लेकर टीवी, वीसीआर, वीसीडी और सिनेमा के रास्ते आज हम यू-ट्यूब तक पहुंच चुके हैं लेकिन एक समाज के रूप में हमारी यौन प्रवृतियां बद से बदतर होती गईं। बहुत समय नहीं हुआ जब कठुआ की 8 वर्षीय बच्ची के साथ जघन्य अमानवीय कृत्य भारत में पोर्न साइटों पर पहले स्थान पर ट्रेंड कर रहा था। इससे पहले कानपुर में चार नाबालिग लड़कों ने कथित रूप से छह साल की एक बच्ची के साथ सामूहिक बलात्कार किया और आरोपियों ने पोर्न वीडियो देखते हुए घटना को अंजाम दिया। पोर्न साइटें पूरी तरह दुनिया भर में विशाल बिजनेस बन गया है। यह आसानी से समझ आने वाली बात है कि जिन चीजों को हम बार-बार देखते हैं या जिन बातों के बारे में बार-बार सोचते हैं, वे हमारे मन, वचन और कर्म पर कुछ न कुछ प्रभाव तो छोड़ती ही हैं। ऋषि-मुनियों ने अपनी दैहिक और आध्यात्मिक साधना से भी इसे अनुकूल और प्रमाणित किया है। आधुनिक युग में मनोवैज्ञानिकों ने भी अपने अध्ययन में पाया कि हमारे दिमाग की बनावट इस तरह की है कि बार-बार पढ़े, देखे, सुुने या किये जाने वाले कार्यों और बातों का असर हमारी चिंतनधारा पर होता ही है।
आज जो कुछ परोसा जा रहा है उसका असर दिमाग पर भी होगा। यौन हिंसा को उकसाने वाले और महिलाओं का वस्तुकरण करने वाले वीडियो, गीतों की वकालत करने से पहले हमें सोचना होगा। दुनिया की कोई भी सरकार पोर्न, साहित्य और सिनेमा को पूरी तरह बैन नहीं कर सकती और न ही बैन या सेंसरशिप इसका वास्तविक समाधान है। यह एक सभ्यतामूलक चुनौती है। यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी जीवन में मानवीय मूल्यों के समावेश का उपक्रम है। अहिंसा, करुणा, सहानुभूति और मनुष्य मात्र की गरिमा के प्रति सम्मान की भावना भरने की एक सामाजिक परियोजना है। आज बलात्कार के आरोपिओ को देखें तो इनमें केवल गुंडे और असामाजिक तत्व नहीं इनमें बाबा, संन्यासी, पुलिस कर्मी, वकील, जज, मंत्री, शिक्षक, डाक्टर, इंजीनियर और नामी-गिरामी समाजिक कार्यकर्ता, फिल्म अभिनेता और निर्देशक तक शामिल हैं। ऐसे में यह साफ है कि यह किसी खास आय वर्ग, क्षेत्र या शिक्षित-अशिक्षित होने तक सीमित नहीं है। इसके लिए जरूरी है कि दूषित विचारो को आत्मानुशासन, आत्म नियंत्रण, सोशल मीडिया के विवेकपूर्ण ढंग से उपयोग से ही खत्म किया जा सकता है। यौन विकृतियां हमारे संस्कारों और सभ्यता को चुनौती हैं। इन्हें कैसे खत्म करना है यह जिम्मेदारी समाज की भी है।