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दिल्ली में कानून को चुनौती !

श्रद्धा हत्याकांड के मुख्य आरोपी आफताब पूनावाला पर दिल्ली की सड़कों पर कल जिस तरह नग्न तलवारों के साथ पुलिस की मौजूदगी में हमला करने का प्रयास किया गया वह सीधे संवैधानिक सत्ता को चुनौती देने का मामला है।

श्रद्धा हत्याकांड के मुख्य आरोपी आफताब पूनावाला पर दिल्ली की सड़कों पर कल जिस तरह नग्न तलवारों के साथ पुलिस की मौजूदगी में हमला करने का प्रयास किया गया वह सीधे संवैधानिक सत्ता को चुनौती देने का मामला है। स्वयं को हिन्दू सेना की हरियाणा शाखा का अध्यक्ष बताने वाला युवक जिस तरह पुलिस की उपस्थिति में ही कानून को अपने हाथ में लेकर आफताब का कत्ल किये जाने की धमकियां अपशब्दों का प्रयोग करके दे रहा था, उससे यही ध्वनि निकल रही थी कि भारत में कानून-व्यवस्था का कोई औचित्य नहीं है। जाहिर है कि आफताब द्वारा श्रद्धा के साथ की गई दरिन्दगी पर पूरे देशवासियों में भारी रोष है मगर इसका मतलब यह कतई नहीं है कि आम नागरिक खुद ही पुलिस और न्यायाधीश बनकर अपराधी को सजा देने निकल पड़े। ऐसा करने वाला हर व्यक्ति स्वयं ही ऐसा मुजरिम बन जायेगा जिसे कानून का पालन करने की कोई फिक्र ही न हो। कानून को अपने हाथ में लेकर न्याय करने वाले लोग समाज के लिए स्वयं एक समस्या व अपराधी होते हैं। न्याय किसी भी व्यक्ति की अपनी मान्यताओं के अनुसार नहीं किया जा सकता बल्कि समग्र परिप्रेक्ष्य में अपराधी के अपराध को संज्ञान में लाकर ही किया जाता है। इसी वजह से पूरा न्याय तंत्र का निर्माण किया जाता है जिससे अपराधी के साथ भी न्याय हो सके और उसका अपराध साबित होने पर ही उसे कानून के तहत सजा मिल सके।
पूरा न्यायतंत्र इसी बुनियाद पर खड़ा हुआ है कि किसी निरपराध को सजा न मिले और अपराधी किसी भी सूरत में बचकर न निकल सके। यदि भारत ने पुलिस को ही न्याय करने का अधिकार दिया होता तो न तो न्यायतंत्र में अदालतों की जरूरत होती और न ही वकीलों की। आफताब के मामले में पुलिस तंत्र अपना काम कर रहा है और ऐसे सबूत जुटा रहा है जिसे अदालत के सामने ले जाये जाने पर उसके विरुद्ध आरोप सत्य साबित हो सकें और उसे समुचित सजा मिल सके। परन्तु त्वरित न्याय की अपेक्षा में जब कानून को अपने हाथ में लेकर न्याय करने का प्रयास किया जाता है तो ‘अराजकता’ की शुरूआत होती है और पूरे समाज से कानून का डर खत्म होने लगता है। कानून को लागू करने के लिए ही पुलिस तंत्र होता है और यदि उसी के सामने तलवारें लहरा कर आरोपी को कत्ल करने की हेकड़ी दिखाई जाती है तो यह सीधे उस सत्ता को चुनौती होती है जिसे भारत के लोगों ने अपने संवैधानिक अधिकार का इस्तेमाल करके गद्दी पर बैठाया है। ऐसा कृत्य राजद्रोह कहलाता है। कथित हिन्दू सेना हो या अन्य कोई संगठन हो जो भी ऐसा काम करता है वह असंवैधानिक श्रेणी में आता है। अतः पुलिस का कर्त्तव्य बनता है कि वह ऐसे संगठन की तफसील निकाल कर इसके सभी सदस्यों की भी धरपकड़ करे। संवैधानिक सत्ता को चुनौती देना वैसा ही आतंकवाद है जैसा नक्सली या माओवादी उग्रवादी करते हैं। आतंकवाद और उग्रवाद में बहुत महीन अन्तर होता है। उग्रवाद आतंकवाद की पहली सीढ़ी होती है जिसमें वैचारिक स्तर पर शस्त्र पकड़ने की प्रेरणा दी जाती है और आतंकवाद में यही शस्त्र प्रयोग होने लगता है। अपने अन्य दस साथियों के साथ जिस तरह कल एक युवक ने आफताब को ले जा रही पुलिस वैन पर हमला करने का प्रयास किया, वह आतंकवाद का ही एक पहलू है क्योंकि वह व्यक्ति कह रहा था कि यदि उसे बन्दूक मिल जाती तो वह आफताब को गोली मार देता। हमें यह भी सोचना चाहिए कि आतंकवाद एक मानसिकता का परिणाम होता है और यह मानसिकता मानवता के खिलाफ होती है। 
भारत का पूरा संविधान ही मानवतावाद पर आधारित है जिसमें जीवन जीने के अधिकार को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है। किसी भी व्यक्ति को किसी दूसरे व्यक्ति का जीवन छीनने का अधिकार नहीं है। इसे रोकने के लिए ही कानून और फौजदारी कानून की विभिन्न धाराएं बनाई गई हैं। कानून लागू करने के मूल में भी यही जीवन जीने का अधिकार आता है। भारत के कानून में तो इससे भी बढ़कर प्रत्येक व्यक्ति को आत्मसम्मान के साथ जीवन जीने का अधिकार है। आफताब निश्चित रूप से आदमी के भेष में दरिन्दा हो सकता है क्योंकि उसने जो कृत्य किया है, वह केवल कोई राक्षस या पिशाच ही कर सकता है मगर यह सिद्ध करने के लिए पूरी न्यायिक प्रक्रिया से गुजरना भी जरूरी है। त्वरित न्याय असभ्य देशों में होता है जो आदमी युग की परंपराओं पर यकीन रखते हैं। हम 21वीं सदी में जी रहे हैं जिसमें विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है कि विविध उपायों द्वारा सच और झूठ का पर्दाफाश आसानी से किया जा सकता है। कानून के राज वाले भारत का सन्देश आम इंसान को यही रहता है कि समाज में अपराध कम से कम हों और इंसानी रिश्तों का बोलबाला हो। आफताब ने इन्हीं रिश्तों का कत्ल किया है जिसकी सजा उसे कानून निश्चित रूप से देगा मगर भारत में यह भी कभी नहीं हो सकता कि किसी आरोपी के पकड़े जाने पर ही उसे फांसी पर लटका दिया जाये। जल्दी में किया गया न्याय भी पछतावे को दावत देने वाला हो सकता है मगर बहुत देर से दिया जाने वाला न्याय भी ‘अन्याय’ बन सकता है। अतः हमें इसके बीच का रास्ता खोजना होगा।

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