चंडीगढ़-विवाद पर एक बार फिर दो पड़ौसी प्रदेशों में तनातनी चरम पर पहुंच गई है। यह विवाद, वर्ष 1966 ये यानी 58 वर्ष पहले आरम्भ हुआ था। जिस प्रधानमंत्री के कार्यकाल में यह विवाद आरंभ हुआ था, उसके बाद देश में आधा दर्जन प्रधानमंत्री बदल चुके। शाह आयोग, उसके बाद मैथ्यू आयोग, फिर वेंकटचलैया आयोग, राजीव-लौंगोवाल समझौता, उसके बाद चौधरी देवी लाल का न्याययुद्ध, एसवाईएल की खुदाई, फिर आधी-बनी एसवाईएल की रेत से भराई, एक अजब सिलसिला जारी है जो सर्वोच्च न्यायालय तक भी पहुंचा। पंजाब व हरियाणा की सरकारों ने अपने-अपने पक्ष में पैरवी के लिए करोड़ों रुपए खर्च कर डाले। लम्बी खामोशी के बाद एक सप्ताह पूर्व यह विवाद फिर से कुनमुनाने लगा है।
नई पीढ़ी के युवाओं के लिए यह बहुत बड़ा आश्चर्य है। इस पीढ़ी के युवा इसे एक पहेली के रूप में ले रहे हैं। वे हैरान हैं। दो प्रदेशों की सरकारें एक ही सचिवालय की इमारत से पिछले 58 वर्ष से अपना-अपना प्रशासन चला रही हैं। दोनों प्रदेशों के मुख्यमंत्री व मंत्रीगण और उच्चाधिकारीगण इसी इमारत में बैठते हैं। दोनों प्रदेशों के लिए उच्च न्यायपालिका भी एक ही भवन ‘पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट’ से न्याय बांटती है। दोनों प्रदेशों की विधानसभाएं एक ही परिसर से अपने सारे वैधानिक कर्त्तव्यों का कुशलतापूर्वक निर्वहन करती हैं। कई बार ऐसा भी हुआ है कि दोनों सरकारों के बजट-सत्र एक ही समय पर सम्पन्न हो रहे होते हैं। उन दिनों तो इस परिसर के प्रवेश-कक्ष को पंजाब, हरियाणा के पत्रकार भी सांझा करते हैं। ऐसे अवसरों पर प्रेस कक्ष की कैंटीनें भी दोनों सरकारों की साझेदारी में चलती हैं।
दोनों विधानसभाओं में दोनों राज्यों के राज्यपाल अपने-अपने लाव-लश्कर के साथ अपने-अपने अभिभाषणों के लिए पहुंचते हैं। यह सांझेदारी भी 58 वर्ष से चलती आ रही है। दोनों सरकारें एक ही परिसर में बैठकर एक-दूसरे के विरुद्ध हर वर्ष प्रस्ताव भी पारित करती हैं। थोड़ा और आगे बढ़ें। दोनों प्रदेशों के राज्यपालों के मध्य एक किलोमीटर से भी कम का फासला है। दोनों प्रदेशों के मुख्यमंत्री-आवासों के बीच भी एक किलोमीटर का भी फासला नहीं है। युवा-पीढ़ी इसे अविश्वसनीय मानती है। यह कैसे हो सकता है कि चार-पांच किलोमीटर की परिधि से अलग-अलग सरकारें, अलग-अलग राज्यपाल, अलग-अलग मुख्यमंत्री अपने-अपने पूरे प्रशासन तंत्र के साथ सांझेदारी में रह सकता है तो विवादों का समाधान संवादों से क्यों नहीं हो सकता। यह युवा पीढ़ी अभी भी समझ नहीं पा रही कि इस अलगाव, इस दूरी, इस संवादहीनता में तार्किकता क्यों दिखाई नहीं देती।
इस विवाद का एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि इसी नगर से एक तीसरा प्रशासनिक तंत्र भी चलता है। वह है चंडीगढ़-प्रशासन। इसके गृह सचिव अलग है, वित्त सचिव अलग है, पुलिस-प्रशासन अलग है। प्रशासक का पद, पंजाब के राज्यपाल के पास है लेकिन इस प्रशासन में सत्ता के सूत्र जिस अधिकारी के हाथ में हैं, वह ‘प्रशासक का सलाहकार’ कहलाता है। इस तंत्र के लिए उच्चस्तरीय फैसले, केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा किए जाते हैं, यहां तक कि चंडीगढ़-प्रशासन के लिए बजट-प्रावधान केंद्रीय बजट का ही एक अंग होते हैं। दो और सांझी मगर विवादास्पद इकाइयां हैं, पंजाब विश्वविद्यालय और ‘एम्स’ यानी ‘अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान’। पंजाब विश्वविद्यालय के कुलपति का पद देश के उप राष्ट्रपति के पास है। इसमें पंजाब या हरियाणा के राज्यपालों या मुख्यमंत्रियों का कोई दखल नहीं होता।
इस विलक्षण अत्याधुनिक महानगर का एक और पहलू भी है। इसके ‘रॉक गार्डन’, ‘पैरेट गार्डन’, ‘सुखना लेक’ आदि के नाम दोनों सरकारों के बीच विवाद का मुद्दा नहीं है। यह तथ्य भी कम दिलचस्प नहीं है कि दो सरकारों की वर्तमान स्थिति किराएदारों सरीखी है। दो सरकारें यदि अपनी-अपनी अलग इमारतों के निर्माण में कोई तोड़फोड़ या बदलाव करना चाहें तो उन्हें भी चंडीगढ़-प्रशासन से अनुमति लेनी होती है। पानी की व्यवस्था, बिजली की व्यवस्था, सीवरेज़-व्यवस्था, सडक़ों का रखरखाव, सभी की जिम्मेदारी चंडीगढ़-प्रशासन के पास है। इसमें पंजाब या हरियाणा की सरकारों का कोई दखल नहीं है।
अब नया विवाद इस चंडीगढ़ की उस 12 एकड़ भूमि को लेकर है जिसमें हरियाणा अपना अलग विधानसभा-भवन बनाना चाहता है। इस भूमि के एवज में हरियाणा, चंडीगढ़-प्रशासन को उतनी ही भूमि दे रहा है। अब पंजाब अड़ गया है। यानि दोनों सरकारों के मध्य अब विवाद का एक नया मुद्दा छिड़ गया है। नई पीढ़ी इसलिए भी परेशान है कि आखिर दो प्रबुद्ध सरकारें सांझी छतों के नीचे क्यों नहीं रह पा रही? कठिनाई यह भी है कि यह नया विवाद फिर धीरे-धीरे सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचेगा और फिर सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के बावजूद मामला अधर में ही लटका रहेगा।