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चन्द्रयान : हम होंगे कामयाब…

वैज्ञानिकों ने पूरी तरह अपने बूते पर वैज्ञानिक शोध का यह बीड़ा उठाकर पूरी दुनिया के सामने सिद्ध कर दिया है कि वे ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में किसी भी चुनौती को स्वीकारने में सक्षम हैं।

चन्द्रयान-2 अभियान की आंशिक सफलता से भारत को निराश होने की जरूरत इसलिए नहीं है क्योंकि भारतीय वैज्ञानिकों ने पूरी तरह अपने बूते पर वैज्ञानिक शोध का यह बीड़ा उठाकर पूरी दुनिया के सामने सिद्ध कर दिया है कि वे ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में किसी भी चुनौती को स्वीकारने में सक्षम हैं। चन्द्रमा के दक्षिणी ध्रुव की सतह पर परीक्षण यान उतारने का साहस भारत के वे वैज्ञानिक ही कर सकते थे जिन्हें अपनी विकसित की हुई अभियान्त्रिकी और तकनीक पर पक्का यकीन हो क्योंकि विज्ञान में ‘असफलता’ नाम का कोई शब्द नहीं होता, प्रयोग के बाद प्रयोग करते रहना ही विज्ञान में अन्तिम सफलता की सीढ़ी होती है और इस पर चढ़ने के लिए भारतीय अन्तरिक्ष शोध संगठन(इसरो ) के वैज्ञानिक कटिबद्ध हैं। 
यह इस संगठन के वैज्ञानिकों का ही हौंसला है कि 1963 में केरल के तिरुवनन्तपुरम शहर के निकट विकसित ‘थुम्बा राकेट प्रक्षेपण स्टेशन’ से इसरो के वैज्ञानिकों ने जब पहला राकेट अन्तरिक्ष में छोड़ा था तो ऐलान कर दिया था कि विकासशील देश भारत की वैज्ञानिक क्षमताओं की कोई सीमा निर्धारित करना दुनिया के लिए मुश्किल काम होगा। यह कार्य भारत के अन्तरिक्ष विज्ञान के पितामह कहे जाने वाले वैज्ञानिक डा.विक्रम साराभाई के निर्देशन में हुआ था। अतः चन्द्रयान-2 के शोध उपकरण (लेंडर) को विक्रम नाम दिया गया। भारत की अन्तरिक्ष यात्रा की कहानी इतनी दिलचस्प है कि विज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत लोग भी कल्पना जगत में खो जायें क्योंकि 1963 में समुद्र किनारे बने एक चर्च से सोवियत संघ व फ्रांस के सहयोग से बने राकेट को छोड़ने के बाद 1965 से भारत ने स्वयं ही राकेटों का निर्माण शुरू कर दिया और उसके बाद फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 
इसकी वैज्ञानिक यात्रा में रूस व फ्रांस दोनों देशों ने महत्वपूर्ण सहयोग भी दिया परन्तु भारतीय वैज्ञानिकों की प्रतिभा और योग्यता से भारत लगातार अपने पैरों पर खड़ा होता चला गया और 2008 में चन्द्रयान-1 अभियान को सफल बनाने के साथ ही इसने घोषणा कर दी चन्द्रमा की सतह पर जल की उपस्थिति के लक्षण मौजूद हैं।  मंगल गृह पर प्रथम प्रयास में ही इसरो के वैज्ञानिकों ने भारत को उतारने में सफलता प्राप्त की भारत की अतः स्व निर्मित वैज्ञानिक अभियान्त्रिकी और तकनीक के भरोसे चन्द्रयान-2 अभियान की सफलता को लेकर भारत के लोगों में जबर्दस्त जिज्ञासा थी क्योंकि इसरो ने इस यान को चन्द्रमा के दक्षिणी ध्रुव की अजानी सतह पर उतारने का फैसला किया था जहां रोशनी के स्थान पर छाया का साम्राज्य माना जाता है और बर्फ की तहें व पहाड़ी चट्टानें हैं। 
इन परिस्थितियों में चन्द्रयान के प्रमुख उपकरणों को सावधानी व आराम से उतारने की तकनीक का विकसित करना बहुत बड़ी चुनौती थी क्योंकि चन्द्रमा की सतह पर पहुंचने के समय चन्द्रयान का वेग शून्य गति के करीब पहुंचाना इस अभियान की सफलता की कुंजी थी। इस कार्य को करने में इसरो के वैज्ञानिकों ने लगभग सफलता हासिल कर ली थी क्योंकि चन्द्रमा की सतह से केवल दो किलोमीटर दूर रह जाने पर ही  इसरो का  संचार सम्पर्क इससे टूट गया। जाहिर है कि विक्रम के चन्द्रमा की सतह छूने में कहीं कोई अवरोध पैदा हुआ है परन्तु चन्द्रयान द्वारा चन्द्रमा की निकटतम परिक्रमा में स्थापित उपकरण (ओरबिटर) पूरी तरह चालू हालत में काम कर रहा है और पृथ्वी पर संकेत भेज रहा है।
इसके माध्यम से भी वैज्ञानिकों को चन्द्रमा की दक्षिणी ध्रुव सतह के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां हासिल होंगी। अतः एक साथ सौ से अधिक अपने द्वारा विकसित प्रक्षेपण स्टेशन (लांचिंग पैड) से उपग्रह छोड़ने वाले  इसरो के वैज्ञानिकों की इस सफलता पर भी जश्न मनाया जा सकता है और भारत का माथा गर्व से ऊंचा रह सकता है। अतः इसरो के  वैज्ञानिकों को प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने ढाढस बन्धाते हुए उनकी  प्रशंसा में जो कहा है कि भारत हमेशा उनके साथ खड़ा रहेगा और उन्हें लगातार प्रयोग करने की सहूलियतें उपलब्ध कराता रहेगा, सफलता की तरफ उठाया गया कदम ही है। यह क्या कोई छोटी बात है कि दुनिया के सबसे बड़े अमेरिकी अन्तरिक्ष शोध संस्थान में तीस प्रतिशत से ज्यादा भारतीय मूल के वैज्ञानिक ही काम करते हैं। 
इससे साबित तो यही होता है कि भारत की वैज्ञानिक क्षमताओं का मूल्यांकन असीमित है। स्वतन्त्रता के बाद हमने जिस रफ्तार से तरक्की की है उसे देखकर दुनिया दांतों तले अंगुली दबा सकती है क्योंकि अंग्रेजों ने अपने दो सौ साल के शासन के दौरान जो सबसे बड़ा अन्याय भारतीयों के साथ किया था वह उन्हें विज्ञान की विधाओं से मरहूम रखकर ही किया था जिसकी वजह से 1947 तक इस देश में सुई तक बनाने वाले कारखाने नहीं थे और केवल कृषि पर ही इसकी पूरी अर्थव्यवस्था टिकी हुई थी परन्तु हमने परमाणु क्षेत्र से लेकर अन्तरिक्ष और भूगर्भ क्षेत्र से लेकर कम्प्यूटर तक के क्षेत्र में जो प्रगति की है वह उन्हीं भारतीयों का कमाल है जिन्हें अंग्रेजों ने सिर्फ अपना जड़ खरीद गुलाम समझ कर इस देश की सम्पत्ति का उपयोग अपने साम्राज्य के विस्तार में किया था और उन्हें एक बिजली के प्लग तक के लिए आयातित माल का मोहताज बना डाला था, लेकिन यह 21वीं सदी का भारत है जिसकी युवा पीढ़ी ने पूरी दुनिया को अपने ज्ञान की रोशनी से चौंधिया रखा है। 
अतः कामयाबी को हमारे कदम चूमने से कोई नहीं रोक सकता। इसरो के वैज्ञानिक एक दिन जरूर चन्द्रमा की पर्तें खोल कर रखेंगे और अंतरिक्ष क्षेत्र में पैदा होने वाले व्यावसायिक अवसरों का लाभ उठाने के लिए भारतीयों को प्रेरित करेंगे क्योंकि आने वाला समय अन्तरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में होने वाले शोधों से आगे बढ़ने का है। स्मार्ट मोबाइल फोन तो इसकी शुरूआत भर है। आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए कि अन्तरिक्ष व्यापार की क्षमता दस खरब डालर अर्थात एक हजार अरब डालर या आज की विनिमय दर के अनुसार 72 हजार अरब रुपये की है।

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