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त्रिपुरा में बदलाव का तिहरा प्रभाव!

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उत्तर-पूर्व के तीन राज्यों मेघालय, नागालैंड व त्रिपुरा के चुनाव परिणामों से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भारत के इस क्षेत्र में भी केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा को मतदाताओं ने स्वीकार्यता देनी शुरू कर दी है। बिना शक इन राज्यों में भाजपा ने स्थानीय क्षेत्रीय पार्टियों के सहारे अपनी जमीन बनाने की तरफ सुविचारित रणनीति के तहत यह सफल प्रयोग किया है मगर इसके पीछे केन्द्र में स्थापित उसकी मजबूत सत्ता के प्रमुख आकर्षण को हाशिये पर नहीं डाला जा सकता क्योंकि सभी उत्तर-पूर्वी राज्यों की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार नई दिल्ली से मिलने वाली वित्तीय मदद ही होती है। इसके बावजूद त्रिपुरा जैसे छोटे सीमान्त राज्य में आये राजनैतिक भूचाल को दरकिनार करना हकीकत से आंखें मोड़ना होगा क्योंकि इस राज्य के 60 प्रतिशत बांग्ला भाषी मतदाताओं के बीच अपनी विश्वसनीयता कायम करना भाजपा के लिए आसान काम नहीं था।

बांग्लादेश की सीमाओं को छूने वाले इस राज्य की रणनीतिक व राजनैतिक स्थिति के कई महत्वपूर्ण आयाम हैं। यहां हुए राजनीतिक बदलाव का प्रभाव पड़ोसी राज्य प. बंगाल पर पड़े बिना नहीं रह सकता जहां तृणमूल कांग्रेस की नेता सुश्री ममता बनर्जी की सरकार है। दूसरे मार्क्सवादी या वामदलों के नियन्त्रण में मौजूद एकमात्र राज्य केरल पर भी इस बदलाव की छाया न पड़े इसे भी दरकिनार नहीं किया जा सकता। तीसरे भारत-बांग्लादेश सम्बन्ध भी इससे अछूते नहीं रह सकते क्योंकि त्रिपुरा दोनों देशों के बीच में उस सांस्कृतिक सौहार्द के मजबूत पुल की तरह काम करता रहा है जिसे तोड़ने की नाकाम कोशिशें बांग्लादेश की कट्टरपंथी जमाते इस्लामी जैसी तंजीमें करती रही हैं। अतः त्रिपुरा के चुनाव परिणामों का भारत के लिए महत्व कम नहीं है।

इन सभी मुद्दों पर हमें गंभीरता के साथ विचार करके राष्ट्रीय हितों को सर्वोच्च रखना होगा और देखना होगा कि इस राज्य में वे अलगाववादी ताकतें फिर से सिर न उठा सकें जो पहले त्रिपुरा के आदिवासी क्षेत्रों को पृथक करने की मांग किया करती थीं मगर भाजपा को अपनी विजय पर उल्लास व्यक्त करने का पूरा हक है क्योंकि उसने भारतीय जनसंघ के जन्म के बाद से बांग्ला भाषियों के बीच पहली बार जबर्दस्त सफलता हासिल की है और एेसी सफलता हासिल की है जिसकी कल्पना संभवतः इसके संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने स्वयं बांग्लाभाषी होने के बावजूद नहीं की होगी क्योंकि उनके जीवनकाल में प. बंगाल विधानसभा में जनसंघ की अधिकतम सीटें सात भर रही थीं।

हालांकि भाजपा ने स्थानीय क्षेत्रीय पार्टी त्रिपुरा पीपुल्स फ्रंट के साथ मिलकर यह चुनाव लड़ा है और कहा जा सकता है कि उसके कन्धे पर बैठ कर त्रिपुरावासियों के बीच अपनी केन्द्रीय सत्ता की धमक के सहारे स्थानीय लोगों मंे विकास और​ समृ​िद्ध के प्रति आकर्षण पैदा किया है। चुनाव पूर्व ऐसे राजनैतिक गठबन्धनों को यह कहकर नकारा नहीं जा सकता कि वे अलगाववादियों को राजनैतिक वैधता प्रदान करते हैं। इस तर्क में कोई वजन इसलिए नहीं है क्योंकि 1988 से 1993 तक त्रिपुरा राज्य में ही कांग्रेस पार्टी ने त्रिपुरा उपजाति जुबा समिति के साथ मिलकर सुधीर रंजन मजूमदार व समीर रंजन बर्मन सरकारें चलाई थीं। त्रिपुरा उपजाति जुबा समिति का 2001 में विघटन हो गया था मगर उसकी मांगें भी त्रिपुरा पीपुल्स फ्रंट से मिलती-जुलती ही थीं।

बिना शक त्रिपुरा के लोगों के लिए वामपंथी विचारधारा का मोह आज भी भंग नहीं हुआ है क्योंकि इन चुनावों में इस पार्टी को 45 प्रतिशत के लगभग वोट मिले हैं मगर उसका मोह वामपंथी प्रशासन प्रणाली में आयी जड़ता से अवश्य भंग हुआ है। आर्थिक उदारीकरण और बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के दौर में मार्क्सवादी प्रशासन प्रणाली समय की मांग और आवश्यकता के साथ सामंजस्य स्थापित करने और इसके अनुरूप पैदा हुई युवा अपेक्षाओं को पूरा करने में पूरी तरह असफल हो रही है, इसका प्रमाण हमें प. बंगाल 12 साल पहले दे चुका है, इसके बावजूद राजनीति में ईमानदारी और सदाचार व सरलता के प्रतीक माने जाने वाले मार्क्सवादी त्रिपुरा के मुख्यमन्त्री श्री माणिक सरकार वे संशोधनवादी कदम उठाने में असमर्थ रहे जिनकी अपेक्षा इस राज्य का युवा वर्ग उनसे कर रहा था। समय की चुनौतियों का सामना न कर पाने का यह ताजा उदाहरण है जबकि इसके विपरीत केरल में वामपंथियों ने बाजारवाद की चुनौतियों का सामना करने का फार्मूला निकाला और वे पांच साल विपक्ष मंे रहने के बाद दो साल पहले पुनः सत्ता में आ गये।

वामपंथियों का राजनैतिक दर्शन आर्थिक बंटवारे से शुरू होकर उसी पर खत्म होता है, इस हकीकत को पकड़ने में माणिक सरकार जैसा राजनीतिज्ञ क्यों चूक गया, यह वास्तव में आश्चर्य का विषय कहा जा सकता है? अतः भाजपा का इसका राजनी​ितक लाभ उठाने से चूकना मूर्खता ही कहलाता इसलिए उसने अपनी पूरी ताकत वामपंथ की विफलता के प्रमाणों पर लगा दी और मतदाताओं को यकीन दिलाया कि उसका शासन बदली हुई आर्थिक परिस्थितियों में जन अपेक्षाओं को पूरा करेगा। इसमें उसे अपार जनसमर्थन उसी प्रकार मिला जिस प्रकार 1978 में मार्क्सवादी पार्टी को पहली बार इस राज्य में स्व. नृपेन चक्रवर्ती के नेतृत्व में मिला था और वह लगातार दस साल तक इस राज्य के मुख्यमन्त्री रहे थे।

उसके बाद कांग्रेस पार्टी का शासन त्रिपुरा उपजाति जुबा समिति के सहयोग से ही आया था। अतः बहुत स्पष्ट है कि त्रिपुरा की राजनीति अब दूसरे चक्र में प्रवेश कर चुकी है मगर नागालैंड और मेघालय के बारे में एेसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि यहां भाजपा की ताकत क्षेत्रीय दलों के मुकाबले बहुत कम है और उसे पीठ पर बिठाने का काम चुनाव के बाद ये क्षेत्रीय दल ही करेंगे। नागालैंड में चाहे एनडीपीपी हो एनपीएफ दोनों ही पार्टियां एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और दोनों के लिए ही भाजपा का महत्व उसकी केन्द्र में सरकार होने से बन्धा है। यह सोचना गलत होगा कि इस राज्य में भाजपा का अपना कोई वोट बैंक है या उसकी अतिवादी राष्ट्रीय विचारधारा की कोई स्वीकार्यता है। राजनीतिक सुविधा के लिए यह विशुद्ध व्यवस्था है।

कमोबेश एेसी ही हालत मेघालय में भी है परन्तु यहां स्व. पूर्णो संगमा का कांग्रेस पार्टी के साथ खट्टे-मीठे सम्बन्धों का तार भाजपा को अपने लिए जगह बनाने की सुविधा देता रहा है। इसके बावजूद इस राज्य में कांग्रेस पार्टी की ताकत कम नहीं हुई है। यदि गौर से देखा जाये तो स्व. संगमा की बेटी व बेटे ने उनकी पार्टी एनपीपी की जो साख बनाई है वह मूल रूप से कांग्रेस के ही जनाधार को तोड़कर बनाई है अतः इस राज्य में कांग्रेस के सबसे बड़े दल के रूप में उभरने पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए हालांकि वह दस वर्ष से सत्ता में थी। इन चुनावों में आये जनादेश का सभी राजनैतिक दलों को पूरा सम्मान करना चाहिए और संविधान के अनुसार स्थापित सरकार बनाने की परंपराओं का शुद्ध अन्तःकरण से पालन करके अवसरवादिता और सौदेबाजी से बचना चाहिए।

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