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महंगाई का बदलता स्वरूप

संसद का बजट सत्र चालू है जिसमें पक्ष-विपक्ष के सांसद जनता से जुड़े विभिन्न मुद्दे उठा रहे हैं और सरकार अपना विधायी कार्य भी कर रही है। बेशक महंगाई एक ऐसा मुद्दा है जिसका सम्बन्ध सामान्य आदमी से होता है

संसद का बजट सत्र चालू है जिसमें पक्ष-विपक्ष के सांसद जनता से जुड़े विभिन्न मुद्दे उठा रहे हैं और सरकार अपना विधायी कार्य भी कर रही है। बेशक महंगाई एक ऐसा मुद्दा है जिसका सम्बन्ध सामान्य आदमी से होता है और सबसे ज्यादा इसका प्रभाव गरीब जनता पर ही पड़ता है क्योंकि उसकी आमदनी बाजार में चीजों के बढ़ते दामों से सामंजस्य नहीं रख पाती किन्तु इसके साथ ही अर्थव्यवस्था की वस्तु स्थिति का संज्ञान भी बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में लेना बहुत जरूरी होता है। यह एेसा विषय है जिस पर राजनीति से ऊपर उठ कर विचार किया जाना चाहिए। लोकतन्त्र में विपक्षी पार्टियों का पहला कर्त्तव्य आम जनता की दुख-तकलीफों से सरकार का परिचय कराना ही होता है मगर यह कार्य आर्थिक नियामकों से अलगाव रख कर नहीं किया जाना चाहिए। यह हकीकत है कि भारत पैट्रोलियम पदार्थों का भारी निर्यात करता है और कुल खपत का 80 प्रतिशत तक करता है । अतः घरेलू बाजार में पैट्रोल व डीजल के भाव अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों से जुड़े रहते हैं। अतः कच्चे तेल के भाव विश्व बाजार में बढ़ने का सीधा असर घरेलू बाजार में बिकने वाले पैट्रोल व डीजल पर पड़ना स्वाभाविक है। 
रूस और यूक्रेन के बीच जारी युद्ध की वजह से कच्चे तेल के दामों में भारी उछाल आया है और इसके दाम पिछले तीन महीनों में ही 74 डालर प्रति बैरल से बढ़ कर 120 डालर प्रति बैरल तक पहुंच चुके हैं। सरकार की तरफ से आज खुदरा पैट्रोल व डीजल की कीमतों में लगभग 80 पैसे प्रति लीटर के हिसाब से बढ़ाैतरी की गई है और ईंधन गैस के सिलेंडर के दाम 50 रुपए बढ़ाये गये हैं जिसे लेकर राज्यसभा में विपक्ष की तरफ से नियम 267 के तहत ‘काम रोको’ प्रस्ताव के जरिये चर्चा कराने की मांग की गई जिसे सदन के सभापति ने खारिज कर दिया और सुझाव दिया कि इस पर बजट पर चल रही चर्चा के दौरान सदस्य अपने विचार व्यक्त कर सकते हैं। 5 राज्यों के चुनावों में विपक्ष पार्टियों ने महंगाई खास कर पैट्रोल व डीजल के बढे़ हुए दामों व बेरोजगारी को ही प्रमुख मुद्दा बनाया था। इसके बावजूद उनकी करारी हार हुई। विपक्षी दलों को गंभीरता से विचार करना चाहिए और सोचना चाहिए कि बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में क्या मतदाता बाजार की परिस्थितियों के अनुरूप जीना सीख चुके हैं? 
सत्तर के दशक में यदि पैट्रोल के दामों में 10 पैसे प्रति लीटर की भी वृद्धि हो जाती थी तो विपक्ष में बैठी पार्टियां खास कर जनसंघ जमीन-आसमान एक कर देती थीं।  मगर वह जमाना सब्सिडी का जमाना था। तब मोटर, कार या स्कूटर तक रखना विलासिता समझी जाती थी। इसके साथ ही डालर के विरुद्ध रुपये की कीमत को नियन्त्रित रखना भी सरकार का मुख्य काम होता था।  आज की तार​ीख में भारत के लोगों की अर्थ मानसिकता में परिवर्तन आना शुरू हुआ और 2022 के आते-आते आज यह हालत है कि साइकिल की जगह गांवों तक में मोटरसाइकिल या स्कूटी आम आदमी का वाहन बन चुकी है और बड़े शहरों में कार सामान्य मध्यम वर्ग के परिवार की जरूरत बन गई है। यदि गौर से देखा जाये तो वर्तमान में महंगाई अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चमकती हुई दिखाई पड़ रही है। अमेरिका जैसे देश में भी महंगाई का रिकार्ड स्तर है जिसे देखते हुए भारत की स्थिति बहुत बेहतर कही जा सकती है क्योंकि यहां ब्याज दरों में वृद्धि नहीं हुई है। कोरोना काल के दो वर्षों के भयंकर आर्थिक संकट के बावजूद भारत की विकास वृद्धि दर अब 8.9 प्रतिशत आंकी जा रही है। मगर महंगाई का जिक्र हर दौर में होता रहा है और कीमतें भी बढ़ती रही हैं। अब गर्मियों का मौसम आ रहा है जिसमें फलों व सब्जियों की आवक बाजार में बहुत कम हो जायेगी और इनके दाम भी बढ़ेंगे। यह मौसमी महंगाई होगी। मगर कुछ चीजें सरकार के नियन्त्रण में भी होती हैं। मसलन खाद्य तेलों की कमी आशंका हो सकती है मगर इसके समानान्तर यह भी सच है कि इस वर्ष सरसों की बम्पर फसल होने का अनुमान है जिसे हमारे किसानों की बुद्धिमानी कही जायेगी। उत्तर भारत में किसानों ने इस बार सरसों की खेती जम कर की है। पिछले वर्ष सरसों की कीमतों में भारी इजाफा हुआ था जिसे देख कर किसानों ने इसकी बुवाई खूब की। यही बाजार की ताकत का कमाल है। अतः महंगाई को हमें बीते दशकों के नजरिये से अलग करके देखना होगा। 

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