इसे प्रकृति की मार ही कहा जाएगा कि आकाश से बरस रहा पानी मनुष्य के अस्तित्व पर कहर बरपा रहा है। हर वर्ष वर्षा अपने ठिकाने ढूंढने लगी है और जल स्वयं के लिए रास्ते तलाश लेता है। हम पानी को रोक सकते हैं लेकिन प्रकृति को कौन रोक पाया है। मौसम के व्यवहार में जल के उत्पात को मनुष्य आज तक नहीं जान पाया। महाराष्ट्र में भारी बारिश से तबाही हुई है और वर्षा जनित घटनाओं में 136 लोगों की मौत हो चुकी है। रायगढ़, सतारा, रत्नागिरी, महाबालेश्वर, गोडिया, चन्द्रपुर, ठाणे, पालघर बाढ़ की चपेट में हैं। पहाड़ दरक रहे हैं, नदियां खतरे के निशान से ऊपर बह रही हैं। लोगों के आशियाने ध्वस्त हो चुके हैं, गाड़ियां कागज की नाव की तरह पानी में बह गई हैं। वैसे तो मानसून की फुहार जन-जन के तन-मन को िभगोती रही है, मानसून की बूंदों का इंतजार सभी को रहता है। सवाल फिर हमारे सामने है कि मानसून की वर्षा ने अपना व्यवहार क्यों बदला? क्यों वर्षा मनुष्यों की जानें ले रही है। क्यों वर्षा लोगों द्वारा मेहनत की कमाई से बनाए गए घराें को अपने साथ बहा ले जा रही है। अतिवृष्टि केवल भारत की समस्या ही नहीं बल्कि दुनियाभर में इससे तबाही हो रही है। चीन, जर्मनी और अमेरिका समेत कई यूरोपीय देशों में बाढ़ हमें इस बात का अहसास कराती है कि जलवायु में परिवर्तन हो चुका है। कई देशों ने ऐसी बाढ़ पहले नहीं देखी। उन्होंने ऐसी आपदा से निपटने के लिए कोई तैयारी ही नहीं की थी। दुनिया भर में अपनी धोंस जमाने वाला चीन कुदरत की आफत के आगे बौना दिखाई देता है। विश्व के शक्तिशाली देश अमेरिका के लोग भी वर्षा के कहर से खुद को बचाने के लिए कोई व्यवस्था नहीं कर पा रहे। कहीं बांध टूट रहे हैं, कहीं बांध डूबने के चलते उनके गेट खोलने को विवश होना पड़ रहा है। शहर और गांव डूब रहे हैं।
पर्यावरण विशेषज्ञ कई वर्षों से विकसित और विकासशील देशों को ग्लोबल वार्मिंग के प्रति आगाह कर रहे हैं। आर्थिक रूप से सम्पन्न देशों ने प्रकृति से लगातार छेड़छाड़ जारी रखी और विकासशील देशों ने भी जलवायु परिवर्तन को गम्भीरता से नहीं लिया। अमीर देश ग्लोबल वार्मिंग के लिए विकासशील देशों को जिम्मेदार ठहराते रहे आैर दुनिया विनाश के कगार पर आ पहुंची।
कुछ समय पहले ही हमने देखा कि एक बारिश ने हिमाचल के धर्मशाला में भागसुनाग और मकलोडगंज में बहुत कुछ तबाह कर दिया। भागसुनाग के दृश्य देख पर्यटक भयभीत हैं। आखिर ऐसा परिदृश्य क्यों बना। पर्यटकों पर केन्द्रित व्यापार ने अपने लिए कभी कोई आचार संहिता नहीं बनाई। होटल बढ़ते गए, लेकिन सैरगाह संकरी होती गई। पहाड़ खोदने वालों को डर नहीं था कि इससे पर्यावरणीय अस्थिरता बढ़ेगी। भागसुनाग के नाले को रोकने वाले होटल व्यवसायियों को उस समय डर क्यों नहीं लगा जब वे अतिक्रमण कर रहे थे। 4 दशक पहले तक डलहौजी, धर्मकोट, शिमला, मनाली में देवदार के घने पेड़ देखे जाते थे लेकिन अब देवदार के पेड़ उजड़ चुके हैं। न जाने कितने देवदार के पेड़ उजाड़ दिए गए जो होटल के रास्ते में आ रहे थे। पर्यावरणविद चीखते चिल्लाते रहे, उन्हें किसी ने नहीं सुना। हिमाचल ही क्यों हर पहाड़ी राज्यों में नदियों के किनारे पहाड़ खोद-खोद कर होटल बना दिए गए। पहाड़ खोखले हो चुके हैं और पर्यटक स्थलों की मिट्टी बचाई नहीं जा सकी। ऐसे में पहाड़ दरकेंगे नहीं तो आैर क्या खड़े रहेंगे। मैदानी राज्यों की हालत कोई ज्यादा अच्छी नहीं। पहली ही बारिश में गुरुग्राम जैसे शहर पानी में डूब जाते हैं। बिहार और कर्नाटक पर भी बाढ़ की आफत आ चुकी है।
कोई जवाबदेह नहीं, काई जवाबदेही तय करने वाला तंत्र विकसित नहीं। वर्षा सत्र शुरू होने से पहले नालों की सफाई नहीं होती। केवल कागजों में सफाई होती है और करोड़ों रुपए का खेल हो जाता है। वर्षा के पैटर्न में जो बदलाव आया है उससे बहुत कम समय में बहुत ज्यादा पानी बरस रहा है। यह पानी पलभर में गांव को दफन कर रहा है जहां कभी हंसता-खेलता जीवन होता है, वह क्षणभर में वीरान हो जाते हैं। सब कुछ मिट्टी में दफन हो जाता है। बाढ़ प्रभावित सभी राज्य इस दौड़ में रहते हैं कि उन्हें केन्द्र सरकार से कितना धन मिलता है। समस्या विकास के डिजाइन की भी है। जल निकासी की परियोजनाओं पर है। शहर, कस्बे, धार्मिक और पर्यटक स्थलों का नक्शा बनना चाहिए। पहली ही बारिश में पुल, तटबंध, बांध टूटने के कारण उनके डिजाइनों को देखना होगा कि पानी के बहाव की दिशा बदली तो क्या होगा। इंसान लगातार प्रकृति से छेड़छाड़ करता आ रहा है लेकिन उसने अपनी जिन्दगी को आरामदेह बनाने के लिए खुद अपने जीवन को खतरे में डाल दिया है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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