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चन्नी की चुनौतियां और पंजाब

पंजाब के नये मुख्यमन्त्री श्री चरणजीत सिंह चन्नी ने दिल्ली आकर प्रधानमन्त्री से मुलाकात करके राजनीतिक सन्देश दिया है कि उन्हें राज्य में अपनी पार्टी कांग्रेस के भीतर चल रही खींचतान से अपनी कुर्सी के लिए कोई खतरा नहीं है

पंजाब के नये मुख्यमन्त्री श्री चरणजीत सिंह चन्नी ने दिल्ली आकर प्रधानमन्त्री से मुलाकात करके राजनीतिक सन्देश दिया है कि उन्हें राज्य में अपनी पार्टी कांग्रेस के भीतर चल रही खींचतान से अपनी कुर्सी के लिए कोई खतरा नहीं है और पंजाब प्रदेश विधानमंडल दल पूरी तरह उनके साथ है। चन्नी ने यह सन्देश कल तक अपने मार्गदर्शक माने जाने वाले कैप्टन अमरिन्दर सिंह के तेवरों को देखते हुए दिया है। कैप्टन कांग्रेस के खिलाफ विद्रोही तेवरों में लगते हैं और अगर कच्ची-पक्की खबरों की मानें तो वह जल्दी ही अपनी अलग पार्टी भी गठित कर सकते हैं। चन्नी के लिए कैप्टन ऐसे व्यक्ति रहे हैं जो 2010 में उन्हें पुनः कांग्रेस पार्टी में लाये थे क्योंकि इससे पहले चन्नी ने विधानसभा का चुनाव खुद बागी बन कर एक निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में लड़ा था और जीता था। इसके बाद चन्नी अकालियों के शासन के दौरान विधानसभा में विपक्ष के नेता भी कुछ वर्ष के लिए रहे। इस हिसाब से चन्नी को लोकतन्त्र के दोनों सिरों की राजनीति करने का अच्छा अनुभव है।  
किसी भी नये मुख्यमन्त्री के लिए देश की राजधानी आकर प्रधान्मन्त्री से भेंट करना राजनीतिक शिष्टाचार का एक नियम होता है और भेंट औपचारिक ही होती है परन्तु चन्नी ने अपनी इस औपचारिक भेंट को जिस तरह राज्य की हंगामी राजनीतिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में पेश करने का प्रयास किया उससे उनकी राजनीतिक परिपक्वता का सबूत मिलता है। चन्नी ने प्रधानमन्त्री से तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने की गुजारिश करते हुए धान की फसल की खरीद पारंपरिक तय समय से करने की दरख्वास्त की। इससे कुछ दिन पहले ही पंजाब के मुख्यमन्त्री की कुर्सी संभालने के बाद उन्होंने पहला निर्णय राज्य के छोटे किसानों के कर्जे माफ करने का ऐलान किया था और उसके बाद प्रदेश के गरीबों के बकाया बिजली बिलों को माफ करने का फैसला किया था। उनके इन दोनों फैसलों में कांग्रेस आलाकमान की हिदायत नजर आ रही थी क्योंकि कैप्टन साहब मुख्यमन्त्री पद पर रहते हुए एेसे फैसले करने में आना-कानी कर रहे थे। चन्नी जानते हैं कि राज्य के अगले चुनावों को देखते हुए उनके पास अधिक समय नहीं है और इसी सीमित समय में उन्हें राज्य के राजनीतिक माहौल को अपनी पार्टी के पक्ष में इस तरह बनाना पड़ेगा कि उनकी विरोधी पार्टियों द्वारा कैप्टन के शासन की की जा रही आलोचना उनके शासन पर चस्पा न हो सके।  
चन्नी ने ये फैसले तब लिये जब कांग्रेस अध्यक्ष पद पर बैठे नवजोत सिंह अपना सियासी गुणा-भाग लगा रहे थे और सोच रहे थे कि चन्नी किसी भी प्रशासनिक फैसले को करने से पहले उनकी राय लेना इसलिए जरूरी समझेंगे क्योंकि कैप्टन के खिलाफ हवा बंधाने में उनकी (सिद्धू की) भूमिका प्रमुख रही है। मगर चन्नी ने अपने संवैधानिक पद की प्रतिष्ठा के अनुरूप पार्टी व सरकार के काम को अलग रखते हुए पंजाब के लोगों के हित में फैसले लेना अपना दायित्व समझा और उसके अनुरूप निर्णय किये। इससे यह सन्देश पंजाब की जनता में चला गया कि चन्नी ‘दब्बू’  मुख्यमन्त्री के रूप में काम नहीं करेंगे। राजनीति में बेशक उनकी छवि पिछली पंक्ति में बैठने वाले नेता की रही हो मगर अपने पद की जिम्मेदारी के अनुरूप भूमिका निभानी उन्हें खूब आती है। 
1966 में पंजाब राज्य के हरियाणा व हिमाचल में बंट जाने के बाद अभी तक जितने भी मुख्यमन्त्री हुए हैं उनमें स्व. दरबारा सिंह एेसे व्यक्ति थे जिनकी छवि की तुलना श्री चन्नी से की जा सकती है। दरबारा सिंह बहुत सरल व सादे कांग्रेसी थे मगर अपने संवैधानिक दायित्व के मामले में बहुत सख्त राजनीतिज्ञ थे। वह 1980 से लेकर 1983 के अक्टूबर महीने तक तब मुख्यमन्त्री रहे थे जब राज्य में हिंसा का दौर चल रहा था और राजनीतिक रूप से स्थिति बहुत ही संजीदा थी। मगर श्री चन्नी के मामले में पंजाब की स्थिति बहुत मजबूत है, उन्हें केवल राजनीतिक स्थिरता को बनाये रखना है वह भी तब जब उन्हीं की पार्टी के पूर्व मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह इस माहौल को बदलने की क्षमता रखते हैं लेकिन पंजाब के हर राजनीतिक दल के नेता को यह विचार भी करना होगा कि दलीय हितों से राष्ट्रीय हित बहुत ऊपर और बड़े होते हैं। पंजाब ऐसा राज्य है जहां राजनीतिक अस्थिरता पड़ौसी देश पाकिस्तान के लिए प्रसन्नता की बात हो सकती है अतः चुनावों तक यदि पंजाब में राजनीतिक अस्थिरता पैदा करने का कोई भी प्रयास करता है तो उसे राष्ट्रहित के विपरीत ही कहा जायेगा क्योंकि केवल चार महीने बाद चुनावों में राज्य की जनता अपना नया फैसला सुना देगी। सबसे बड़ी जिम्मेदारी कांग्रेसी विधायकों की ही बनती है कि वे अपने भीतर किसी भी कीमत पर फूट न पड़ने दें और चुनावों तक इन्तजार करें। 

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