राजकोट अग्निकांड में फिर उजागर हुई अव्यवस्था

राजकोट अग्निकांड में फिर उजागर हुई अव्यवस्था
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13 जून 1997, जब सन्नी देओल, सुनील शेट्टी की फिल्म बॉर्डर रिलीज हुई। भारत-पाकिस्तान युद्ध पर बनी इस फिल्म को देखने के लिए देशभर में थिएटर्स के बाहर लोगों की कतारें लगी थीं। सिनेमाघरों में एक्स्ट्रा सीट्स लगाकर लोगों को बैठाया जा रहा था। ऐसा ही एक थिएटर था साउथ दिल्ली का उपहार सिनेमा। 160 लोगों की क्षमता वाले इस हॉल में कई लोग एक्स्ट्रा चेयर लगाकर बैठे थे। 3 बजे वाला शो था। कोई 4 बजे सिनेमाघर की पार्किंग में आग लगी, जिसका धुआं हॉल में भर गया। लोगों के निकलने के लिए एक ही दरवाजा था, जो गेटकीपर बंद करके कहीं निकल गया था क्योंकि शो छूटने में पूरे 2 घंटे बाकी थे। हॉल में धुआं भरता गया, लोगों का दम घुटता गया। लोग निकलने की पुरजोर कोशिश करते रहे लेकिन बाहर नहीं जा पाए। एक के बाद एक 59 लोगों ने दम तोड़ दिया। कई गंभीर हालात तक पहुंच गए। इस हादसे को नाम दिया गया उपहार सिनेमा ट्रैजडी। आज भी उस हादसे को याद कर आत्मा सिहर जाती है। पिछले दिनों गुजरात के राजकोट के गेम जोन, मनोरंजन केंद्र की आगजनी में 9 मासूम बच्चों और 28 वयस्कों की मौत हो गई। दिल्ली के एक अवैध 'बेबी केयर सेंटर' में एक साथ कई ऑक्सीजन सिलेंडर फटने से आग लगी और 7 नवजात शिशु जलकर भस्म हो गए। उपहार सिनेमा कांड से पहले भी और बाद में कई ऐसी घटनाएं घट चुकी है, लेकिन हर बार ऐसे हादसों के पीछे लापरवाही, कानून हीनता और पैसे के लालच की कहानियां सामने आती हैं। दोनों ही मामले त्रासदी से बढ़कर हत्याकांड हैं, क्योंकि सुरक्षा-व्यवस्था में छिद्र थे।

दिल्ली के जिस 'बेबी केयर सेंटर में दुखद हादसा हुआ, वहां एक ही छत के नीचे शिशु अस्पताल और ऑक्सीजन सिलेंडर की रिफिलिंग के धंधे चल रहे थे। कथित अस्पताल का पंजीकरण 31 मार्च को खत्म हो चुका था। 'शिशु केयर केंद्र' को चार बिस्तरों की ही अनुमति थी, लेकिन वहां 14 बेड बिछाए गए थे। बिजली और आग के पर्याप्त बंदोबस्त नहीं थे। जो बच्चे यह दुनिया नहीं देख पाए और जिंदगी भी जी नहीं सके, उनके लिए यह सामूहिक हत्याकांड नहीं है, तो और क्या है? फायर विभाग के मुताबिक नवजात अस्पताल के पास फायर एनओसी नहीं थी और यहां तक कि आग को बुझाने के लिए भी उचित इंतजाम नहीं थे। इसके अलावा वहां ऑक्सीजन सिलेंडर भी रखे हुए थे, जो फट गए थे। इस घटना पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने मृतक नवजातों के शोक-संतप्त माता-पिता के साथ संवेदना व्यक्त की थी।
राजकोट का अग्निकांड तो मानव-निर्मित था। लोहे की चद्दर से एक अस्थायी ढांचा बनाया गया था, जिसमें बच्चे और अन्य लोग 'गेम' खेलने आते थे। न निकास की समुचित व्यवस्था, न आग बुझाने के उपकरण और कर्मचारी, बल्कि डीजल के भरे ड्रम और टायरों के ढेर वहां पड़े थे। पूरा ज्वलनशील माहौल। राजकोट के उस परिसर में करीब 2000 लीटर पेट्रोल का भंडारण था। वह मनोरंजन स्थल था अथवा पेट्रोलियम की कोई दुकान। कमाल तो यह है कि गुजरात के शहरी विकास संबंधी कायदे-कानून ऐसी टिन संरचनाओं में ही 'गेम जोन' चलाने की अनुमति देते हैं। गुजरात के 2017 के शहरी विकास कानून में मनोरंजन सुविधाओं के लिए निर्माण और सुरक्षा की 'शून्य' गाइडलाइन हैं। निजी कारोबारियों ने इन स्थितियों को भुनाया है और अस्थायी संरचनाएं खड़ी कर मनोरंजन के धंधे चला रहे हैं। ऐसे न जाने कितने 'लाक्षागृह' गुजरात में होंगे?

23 दिसंबर 1995 को हरियाणा के सिरसा जिले के डबवाली के डीएवी स्कूल में साल का जश्न मनाया जा रहा था। लेकिन इस खुशी में ऐसी खलल पड़ी कि खुशी का माहौल मातम में बदल गया और देखते ही देखते 442 लोग जिंदा जल गए थे। डबवाली के डीएवी स्कूल में वार्षिक महोत्सव के दौरान आग लगने से 248 बच्चे और 150 महिलाओं समेत कुल 442 लोग जिंदा जल गए थे। शवों के अंतिम संस्कार के लिए श्मशान घाट भी छोटा पड़ गया था। 23 दिसंबर के उस काले दिन को डबवाली के लोग आज भी भुला नहीं पाते। ये तारीख आज भी डबवाली के लोगों को झकझोर कर रख देती है और वो जख्म आज भी ताजा कर देती है।
दिसंबर 2019 में दिल्ली के रानी झांसी रोड पर अनाज मंडी के रिहायशी इलाके में चल रही एक पेपर फैक्ट्री में आग लगने से 40 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई। दो चार दिन के हो हल्ले और मुस्तैदी के बाद दोबारा गाड़ी उसी पटरी पर दौड़ने लगी। 4 जून 2022 को उतर प्रदेश के हापुड़ में एक पटाखा फैक्टरी में विस्फोट होने से 11 मजदूर जिन्दा जल गए तथा 15 मजदूर गंभीर रुप से घायल हो गए। गत 22 फरवरी 2022 को हिमाचल के जिला ऊना के हरोली उपमंडल के बाथू अवैध पटाखा फैक्टरी में विस्फोट होने से 6 महिलाएं जिंदा जल गई थी मरने वालों में एक मां व बेटी भी थी और 11 कामगार गंभीर रूप से घायल हो गए थे। सिर्फ आगजनी ही नहीं, किसी और वजह से भी ऐसे कांड हुए हैं कि जिनमें लोगों की जिंदगी समाप्त हो गई। गुजरात में ही मोरबी पुल टूटा और 135 मासूम लोग मारे गए।

कोल्लम मंदिर में आगजनी से ही 109 मौतें हो गईं। 2018 में वाराणसी फ्लाईओवर ध्वस्त हुआ, जिसमें 18 लोग मरे और राजधानी दिल्ली के मुंडका इलाके की वह आगजनी आज भी आंखों के सामने कौंध जाती है, जिसमें जलकर 27 लोग मारे गए थे। सभी मामलों में प्रशासनिक लापरवाही ही सामने आई। दिल्ली अग्निशमन सेवा यानी डीएफएस के आंकड़ों के मुताबिक आग लगने से जनवरी में 16, फरवरी में 16, मार्च में 12 अप्रैल में चार और 26 मई तक 7 लोगों की मौत हुई। आग लगने की घटनाओं में जनवरी में 51, फरवरी में 32, मार्च में 62, अप्रैल में 78 और 26 मई तक 71 लोगो घायल हुए हैं। कमोबेश ऐसी ही खबरें देशभर से आती रही हैं। कुछ सर्वेक्षणों में यह निष्कर्ष सामने आया है कि देशभर के 10 में से 8 लोगों के घरों और दफ्तरों में आग से बचाव की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। करीब 18 फीसदी लोग ही सुरक्षित घरों में रह रहे हैं। करीब 19 फीसदी को पता ही नहीं है कि आग बुझाने का सिस्टम काम करता है अथवा नहीं। करीब 27 फीसदी लोगों ने कबूल किया है कि उन्होंने सुरक्षा मानदंडों का कभी पालन ही नहीं किया। भोपाल गैस कांड या डबवाली जैसी दुर्घटनाएं होने पर सरकार मातमपुरसी के लिए जरूर चैकस हो जाती है, लेकिन संभावित बड़ी दुर्घटनाओं को रोकने की कोशिश किसी स्तर पर नहीं होती।

आम जनता और जनप्रतिनिधि भी ऐसे मामलों मे उदासीन रहते है। शहरों में बढ़ती आबादी के कारण पुरानी बसाहट वाले इलाकों में सर्वत्र अव्यवस्था का बोलबाला नजर आता है। कुछ दिन हल्ला मचेगा और सरकारी विभाग भी मुस्तैदी दिखाएंगे लेकिन इसी बीच कहीं दूसरी घटना हो जायेगी जिसके बाद पूरा ध्यान उस पर केन्द्रित हो जायेगा।गलतियों से नहीं सीखना हमारा राष्ट्रीय चरित्र बन गया है। इन दो हत्याकांड से भी कितने और कौन सबक लेता है, यह देखना भी महत्वपूर्ण होगा। अलबत्ता अभी तक तो ये सिलसिले यूं ही जारी रहे हैं। स्थानीय पुलिस प्रशासन को नियमित तौर पर संवेदनशील व सुरक्षा के लिहाज से अहम स्थलों का नियमित जांच करती रहनी चाहिए। और सुरक्षा और संरक्षा नियमों के पालन में कोई कोताही बरदाषत नहीं करनी चाहिए। आग लगने पर आग बुझाने के उपाय करने से बेहतर यह होगा कि ऐसे पुख्ता बंदोबस्त किये जाएं जिससे ऐसी दुखद घटनाएं घटित ही न हों।

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