देश की जनता अपने जनप्रतिनिधियों से गरिमापूर्ण व्यवहार की अपेक्षा करती है। जनता इन्हें बड़ी उम्मीदों से चुनती है ताकि उनकी समस्याएं सुलझ सकें और उनकी जरूरतें पूरी हो सकें परन्तु जनप्रतिनिधि सार्वजनिक रूप से ऐसा व्यवहार करने लगे हैं जो सभ्य समाज और लोकतंत्र के लिए बहुत ही घातक है। सवाल यह उठता है कि क्या जनप्रतिनिधियों को अपनी गरिमा का जरा भी ख्याल नहीं रहता? चुनाव जीतने के बाद क्यों वे अपनी आवाज भूल जाते हैं। दरअसल इस तरह की मानसिकता के कुछेक नेता ही दूसरे राजनेताओं को भी शर्मसार करते हैं। धोंस और हेकड़ी दिखाने वाले इन नेताओं के चलते ही राजनीतिज्ञ बदनाम हो रहे हैं। कभी लोकसभा, राज्यसभा और राज्यों की विधानसभाओं में ऐसे राजनीतिज्ञ थे जिनके एक-एक शब्द को लोग सुनते थे। सदन में चर्चा का स्तर काफी उच्च था। पंडित जवाहर लाल नेहरू, वल्लभ भाई पटेल, डा. राममनोहर लोहिया, डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे लोग थे जिनके कहे एक-एक शब्द की विवेचना होती थी।
वैचारिक मतभेदों के बावजूद उनके शालीन व्यवहार से लोग प्रेरणा लेते थे लेकिन आज कोई राजनीतिज्ञों को सुनने को तैयार ही नहीं होता। राजनीति का चरित्र ही काफी विचित्र हो चुका है। कब क्या हो जाए, इस बारे में कोई कुछ नहीं कह सकता। उत्तर प्रदेश के संत कबीर नगर कलैक्ट्रेट में मुख्यमंत्री योगी सरकार के चिकित्सा शिक्षा मंत्री आशुतोष टंडन की अगुवाई में जिला कार्ययोजना समिति की बैठक चल रही थी। इस दौरान सांसद शरद त्रिपाठी और विधायक राकेश सिंह बघेल में शिलापट्ट पर नाम को लेकर आपस में विवाद हो गया। स्थिति यह हो गई कि सांसद शरद त्रिपाठी ने विधायक को जूते से पीट दिया। एक के बाद एक सात बार जूता मारा गया तब विधायक बघेल ने भी उन्हें दो-तीन थप्पड़ जड़ दिए। इस जूतम-पैजार का वीडियो खूब वायरल हुआ। मारपीट के बाद बैठक में भगदड़ जैसी स्थिति बन गई।
सोशल मीडिया पर वायरल हुई वीडियो सोशल मीडिया के योद्धाओं के लिए आनंद और कौतूहल का विषय बन गया। नेताओं से लेकर बुद्धिजीवियों तक ने करारे तंज कसे हैं। लोग सवाल उठा रहे हैं ‘‘जनप्रतिनिधि कर रहे जूतम-पैजार, यह क्या हो रहा सरकार।’’ जनप्रतिनिधि बन्द कमरे की बैठक में हिंसक हो गए, वे पार्टी लाइन भूल गए। आजकल तो हर किसी के हाथ में मोबाइल है, उन्हें शायद इस बात का अहसास ही नहीं रहा होगा, सब कुछ ताक पर रखकर दे दनादन में लग गए। सांसद चप्पलमार हो गए और विधायक थप्पड़मार हो गए। शिलापट्ट पर नाम को लेकर नगरपालिका सदस्य और निगम पार्षदों को गलियों के किनारे लड़ते जरूर देखा जाता रहा है। कभी-कभी किसी पार्षद द्वारा शिलान्यास किए जाने से पहले ही विपक्षी दल के कार्यकर्ता नारियल फोड़कर शिलान्यास करते रहे हैं।
नाम पट्टिकाएं भी उखाड़ी जाती रही हैं। यह सब श्रेय लेने की होड़ में होता रहा है। एक ही पार्टी के सांसद और विधायक में जूतम-पैजार केवल श्रेय लेने की होड़ में हुई या फिर आगामी लोकसभा चुनावों में टिकट के लिए दौड़ के कारण हुई, यह तो वे ही जानते होंगे लेकिन अब भी कोई यह कहे कि अनुशासन मौजूद है तो यह बेमानी होगा। उत्तर प्रदेश के गायत्री प्रसाद प्रजापति हो या अमरमणि त्रिपाठी या फिर महाराष्ट्र के चप्पलमार शिवसेना सांसद रविन्द्र गायकवाड़, पहले ही अपने अशोभनीय आचरण से कुख्यात हो चुके हैं। रविन्द्र गायकवाड़ ने एयर इंडिया के एक कर्मचारी को चप्पल से पीटा था। अपनी सांसदी की धोंस दिखाते हुए उन्होंने बेवजह विमान के भीतर कर्मचारी पर चप्पलों की बरसात कर दी और उसे विमान से नीचे फैंकने की लगातार धमकियां दी थीं।
यह माजरा उन सभी लोगों ने देखा जो उस विमान में सवार थे। कई साल पहले हरियाणा के एक नेता ने उड़ान के दौरान व्योमबाला से शर्मनाक हरकत की थी। प्रत्येक विचार या वाद का प्रतिवाद भी होता है। वाद-प्रतिवाद का मिलन संवाद से होता है। संवाद का मूल वाणी की मधुरता है। शोर-शराबा, मारपीट में शब्द अपना अर्थ खो देते हैं। अर्थ से अनर्थ हो जाते हैं। लोकतंत्र लोक-लज्जा से चलता है। मर्यादा और शील से सुगंधित आचरण में ही जनतंत्र महकता है। अगर जनप्रतिनिधि ही शालीनता त्याग देंगे तो फिर लोकतंत्र कलुषित होगा ही। देश में लोकतंत्र की स्थापना के समय किसी ने भी शायद यह कल्पना नहीं की होगी कि लोकतंत्र में हमारे जनप्रतिनिधियों का आचरण विवादित हो जाएगा।
ऐसे अनेक मामले सामने आते रहे हैं जब मंत्रियों या समकक्ष नेताओं के स्टाफ और ड्राइवरों के साथ स्वयं अथवा उनके परिजनों ने बदतमीजी से व्यवहार किया हो। सत्ता के मद में जनप्रतिनिधि जनता और सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के साथ बंधुआ मजदूरों जैसा व्यवहार करते रहे हैं। किसी को कोई चिन्ता नहीं कि उनके व्यवहार से जनता के बीच क्या संदेश जा रहा है। वैसे सौ बातों की एक बात है कि जो लोग खुद को जनता से ज्यादा सर्वोपरि मानने लगते हैं तो उन्हें जनता ही सबक सिखाती है। जनता उन्हें वोट के माध्यम से चित कर देती है। ऐसे जनप्रतिनिधियों से किनारा करना ही ठीक है।