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खैरात बांटने के घोषणापत्र

उत्तर प्रदेश विधानसभा के हो रहे चुनावों का आज 10 फरवरी को मतदान का पहला चरण है जिसमें कुल 403 में से 58 सीटों के लिए मतदान होगा।

उत्तर प्रदेश विधानसभा के हो रहे चुनावों का आज 10 फरवरी को मतदान का पहला चरण है जिसमें कुल 403 में से 58 सीटों के लिए मतदान होगा। राज्य के चुनावों में भाग ले रही लगभग सभी प्रमुख पार्टियों ने अपने चुनाव घोषणापत्र भी जारी कर दिये हैं। भाजपा, समाजवादी पार्टी व कांग्रेस सभी ने अपने घोषणा पत्रों में मतदाताओं में रिझाने के लिए जिस तरह मुफ्त सौगातों की बरसात करने का वादा किया है उसे देख कर लगता है कि इन सभी पार्टियों को कहीं से  ‘कारू का खजाना’ लग गया है जिसे वे जनता पर लुटा देना चाहती हैं। चुनावों से पहले मतदाताओं को मुफ्त सौगात बांटने के वादों का मामला देश के सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है जिस पर समयानुसार निर्णय आयेगा मगर इससे इतना तो साबित होता ही है कि राजनीतिक दलों के चुनावों से पूर्व हथकंडे कहीं न कहीं लोकतन्त्र की उस मूल भावना के विरुद्ध हैं जिसमें भारत की चुनाव प्रणाली के नियमों के तहत मतदाता को किसी भी प्रकार का लालच देना निषेध होता है। बेशक भारत में लोकल्याणकारी राज की संवैधानिक की व्यवस्था है मगर इसका लक्ष्य गरीब या कमजोर आदमी को दया का पात्र बना कर दान देना नहीं होता बल्कि सत्ता द्वारा उसके आत्म सम्मान की रक्षा करते हुए उसे सम्पन्नता के अधिकार देते हुए बराबरी पर लाने का होता है। 
लोकतान्त्रिक पद्धति से चुनी हुई सरकार या सत्ता उसे जो कुछ भी देती है वह भिक्षा रूप में नहीं बल्कि उसके अधिकार रूप में देती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कानून (मनरेगा) है जिसमें गांवों में रहने वाला कोई भी बेकार व्यक्ति अपने लिए साल भर में कम से कम एक सौ दिनों का रोजगार मांग सकता है। यह कानून सामान्य ग्रामीण बेरोजगार व्यक्ति के आत्म सम्मान को ऊंचा रखते हुए उसे बेरोजगार बनाता है और राष्ट्रीय विकास में उसकी उत्पादनशील  भागीदारी भी सुनिश्चित करता है। इसी प्रकार भोजन का अधिकार भी है। मगर भारत में मतदाताओं को मुफ्त सौगात बांटने के वादों की जो परपंरा दक्षिणी राज्य तमिलनाडु से शुरू होकर उत्तर तक पहुंची है उसकी जड़ में सामन्ती या राजतन्त्रीय मानसिकता काम करती है जिसके प्रभाव में राजनीतिक दलों के नेता स्वयं को लोकतन्त्र के रजवाड़े समझने लगते हैं। दक्षिण से यह परंपरा इसलिए शुरू हुई क्योंकि 1967 के बाद से इस राज्य में व्यक्ति पूजक राजनीति की शुरूआत हुई और कालान्तर में फिल्मी नायक ही जनता के नायक रूप में प्रतिष्ठित होने लगे। 
उत्तर भारत में जैसे-जैसे व्यक्तिमूलक (बहुजन समाज पार्टी) व परिवारवादी (समाजवादी पार्टी) का उदय हुआ तो इस राजनीतिक संस्कृति ने पैर पसारने शुरू किये। इसका सबसे विद्रूप उदाहरण हमें नब्बे के दशक में मुलायम सिंह की समाजवादी सरकार में तब देखने को मिला जब विद्यार्थियों के लिए परीक्षाओं में नकल (पुस्तकें ले जाने को) करने को मान्यता प्रदान कर दी गई। हालांकि इसका कोई सीधा आर्थिक पक्ष नहीं था मगर नई पीढ़ी के उज्ज्वल भविष्य से इसका सीधा लेना-देना था जिसका राष्ट्रीय स्तर पर असर उत्तर प्रदेश के विद्यार्थियों की प्रतिभा के आंकलन पर पड़ा।  इससे पूर्व 1967 में भी उत्तर प्रदेश में लगभग ऐसा  ही एक बेवकूफी भरा निर्णय राज्य की तत्कालीन चौधरी चरण सिंह की संविद सरकार के शिक्षामन्त्री स्व. राम प्रकाश गुप्ता (जो बाद में कल्याण सिंह के बाद उ.प्र. के मुख्यमन्त्री भी बने) ने किया था जब उन्होंने हाई स्कूल व इंटरमीडियेट परीक्षा से अंग्रेजी विषय को अनिवार्य की जगह वैकल्पिक बना दिया था। ये सब ऐसे  मूर्खतापूर्ण युवा पीढ़ी के भविष्य से खिलवाड़ करने वाले फैसले थे जिनकी कीमत बाद में इस पीढ़ी को ही चुकानी पड़ी। ठीक ऐसी  ही नीति राजनीतिक दल अब किसानों के सन्दर्भ में भी अपना रहे हैं और हर पार्टी अपनी सरकार बनने के बाद उनके कर्जे माफ करने की घोषणाएं कर रही हैं। इससे पता चलता है कि देश के कृषि विकास के बारे में उनकी कोई सोच नहीं है। किसान की धरती वही रहेगी, उसकी खेती वही रहेगी और आमदनी वही रहेगी तो सरकारें कितनी बार उसके कर्जे माफ करके उसे गरीब का गरीब ही बनाये रखेंगी। याद रखा जाना चाहिए कि दान या भिक्षा द्वारा यथास्थिति को कायम रखने की तरकीबें भिड़ाई जाती हैं उसे बदलने की नहीं। इसी प्रकार लैपटाप, साइकिल, टैबलेट या कन्या विवाह धनराशि या शिक्षा धनराशि देने से भी गरीबों की शिक्षा को विस्तार देने का काम नहीं किया जा सकता बल्कि उल्टे आर्थिक रूप से विभिन्न समाज को भिक्षा पाने का गुलाम बनाया जाता है। जरूरत इस बात की होती है कि लोकतन्त्र में सबसे पहले सभी अमीर-गरीबों की शिक्षा एक ही गुणवत्ता की एक समान हो और इसमें भी केवल उच्च मध्यम वर्ग को छोड़ कर समाज के सभी वर्गों के बच्चों की शिक्षा कम से कम हाई स्कूल तक पूरी तरह मुफ्त हो।
 समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया अपने जीवन भर यही कहते रहे कि ‘राष्ट्रपति का बेटा हो या चपरासी की हो सन्तान, टाटा या बिड़ला का छोरा सबकी शिक्षा एक समान’ ऐसा  नहीं है कि भारत यह लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकता है बल्कि हकीकत यह है कि इस लक्ष्य को बड़ी आसानी से प्राप्त किया जा सकता है क्योंकि केन्द्र से लेकर राज्यों की सरकारें जिस तरह शिक्षा के नाम पर जो भिन्न-भिन्न योजनाएं चलाती रहती हैं यदि उन पर आने वाले सकल खर्च को जोड़ा जाये तो उतने में ही पूरे देश में उच्च स्तर के सरकारी हाई स्कूलों का निर्माण करके किसी दर्जी या ठठेरे के बच्चों से लेकर किसी आईएएस या बड़े सेठ के बच्चों को एक समान मुफ्त शिक्षा उपलब्ध कराई जा सकती है। अधिकतर लोकतान्त्रिक यूरोपीय देशों में यही प्रणाली है। मगर हम तो आजकल स्कूलों में ‘हिजाब’ की समस्या से जूझ रहे हैं। इसी तरह ब्याह-शादियों पर हम फिजूल खर्ची को बरकरार रखने को बढ़ावा देते हैं न कि सम्पन्न लोगों को सादगी से यह रीति सम्पन्न करने के लिए कोई नियम बनाते हैं। मुफ्त सौगात बांटने की चुनावी परंपरा अपना कर हम साफ सन्देश दे रहे हैं कि गरीब गरीब ही रहेगा और अमीर मौज मनाता रहेगा। लोकतन्त्र सरकारी खैरात से नहीं बल्कि सरकारी ‘इमदाद’ से चलता है और इमदाद का मतलब ‘सहयोग’ होता है।

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