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छत्तीसगढ़ : लड़ैयों की लड़ाई!

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आदिवासी अस्मिता के नाम पर मध्य प्रदेश से नवम्बर 2000 में काट कर बने राज्य छत्तीसगढ़ में आज चौथी बार विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। इस राज्य की सबसे बड़ी खासियत यह है कि पिछले तीनों ही चुनावों में राज्य के मुख्यमन्त्री श्री रमन सिंह की अगुवाई में भारतीय जनता पार्टी स्पष्ट बहुमत के साथ अपनी सरकार बनाने में कामयाब रही है। अतः आज मंगलवार को हो रहे मतदान में भाजपा से भी ज्यादा यदि किसी की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है तो वह श्री रमन सिंह की ही है। अभी तक केवल वामपंथी पार्टियों के शासन वाले राज्यों में ही मुख्यमन्त्री की सत्ता को पार्टी के भीतर से चुनौती नहीं देने की परंपरा रही है। इनमें प. बंगाल के स्व. ज्योति बसु और त्रिपुरा के मुख्यमन्त्री रहे श्री माणिक सरकार प्रमुख रहे हैं किन्तु इन दोनों ही वामपंथी मुख्यमन्त्रियों के शासनकाल में सम्बद्ध राज्यों की शासन व्यवस्था भ्रष्टाचार के आरोपों से दूर रही जबकि छत्तीसगढ़ के रमन सिंह के साथ एेसा नहीं रहा। उनके शासनकाल में भूमि घोटाले से लेकर बैंक घोटाला, कोयला घोटाला और चावल घोटाले आदि के आरोप लगे और सबसे ऊपर उनके पुत्र का नाम पनामा पेपर्स कांड में आया।

इसके बावजूद श्री रमन सिंह की व्यक्तिगत छवि बेदाग और सादगी से भरी मानी जाती है। वर्तमान राजनैतिक दौर में यह किसी भी राजनीतिज्ञ के लिए उपलब्धि कही जा सकती है परन्तु इसका आम जनता और प्रशासन के जन पक्ष से कोई लेना-देना नहीं है। छत्तीसगढ़ के वर्तमान चुनाव इस राज्य की असली कहानी अपने चुनाव परिणामों में बयान कर सकते हैं क्योंकि जिस प्रकार की राजनैतिक चौसर इस बार के चुनावों में बिछी वह इस छोटे से राज्य के लिए नई घटना है। इसे बिछाने में राज्य के प्रथम मुख्यमन्त्री श्री अजीत जोगी ने ही अपना रणनीतिक कौशल लगाया है और कांग्रेस से अलग होकर अपनी अलग ‘जनता कांग्रेस’ पार्टी बनाकर बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबन्धन करके राज्य में जातिगत आधार पर लोगों को बांटने की शुरूआत की है। अभी तक हुए पिछले तीनों चुनावों में राज्य के मतदाताओं ने जातिगत आग्रहों से ऊपर उठकर ही विशुद्ध वैचारिक मतभेद के अनुसार ही मतदान किया है। यह लड़ाई मुख्य रूप से भाजपा व कांग्रेस के बीच होती रही है मगर इस बार एक नये क्षेत्रीय दल के होने से तस्वीर बदली हुई मानी जा रही है मगर यह राजनैतिक विश्लेषकों का कोरा भ्रम भी हो सकता है क्योंकि राज्य के मतदाताओं की चतुरता को कोई भी पार्टी चुनौती देने की स्थिति में नहीं है।

इस राज्य के बारे में यह शुरू से ही कहा जाता रहा है कि यहां की धरती बहुत अमीर है और यहां के लोग बहुत गरीब हैं। इस स्थिति का लाभ राजनैतिक दलों ने जमकर उठाया है और बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के इस दौर में यहां के प्राकृतिक स्रोतों की जमकर नीलामी की गई है जिसका लाभ कार्पोरेट जगत को जमकर मिला है मगर यहां के लोग गरीब के गरीब ही रह गये हैं। यह वास्तव में चिन्ता का विषय है क्योंकि वर्ष 2000 में जब श्री अजीत जोगी इस राज्य के मुख्यमन्त्री बनाये गये थे तो उन्होंने पूरी व्यवस्था का ही कार्पोरेटीकरण कर डाला था और जंगल, जमीन से लेकर आदिवासियों के जल की भी सौदेबाजी कर डाली थी। अतः यह बेवजह नहीं था कि 2003 में हुए पहले विधानसभा चुनावों में भाजपा स्पष्ट बहुमत से चुन ली गई परन्तु पिछले 2013 में हुए चुनावों में केवल एक प्रतिशत से कम मतों के अंतर से ही रमन सिंह सरकार सत्ता पर पुनः काबिज हो पाई थी। अतः लड़ाई दिलचस्प होगी और इस कदर होगी कि परिणाम आने पर चौंकने तक की स्थिति बन सकती है। जब छत्तीसगढ़ बना था तो मध्य प्रदेश राज्य के दस जिले ‘छत्तीसगढ़ी’ बोली बोलने वाले और छह जिले ‘गोडावणी’ भाषा बोलने वाले जोड़े गये थे।

इसका उद्देश्य यही था कि इस इलाके के लोगों की बड़े राज्य मध्य प्रदेश मंे रहते हुए जिस प्रकार अनदेखी हो रही थी वह न होने पाये और जिस प्रकार राज्य में नक्सलवाद की समस्या पनपी है उस पर नियन्त्रण हो सके। छत्तीसगढ़ की सार्थकता इस तथ्य में निहित थी कि यहां के मूल निवासियों की अर्थव्यवस्था से लेकर प्रशासन में भागीदारी बढ़-चढ़ कर हो। इसमें कितनी सफलता मिल पाई है, यह खोज का विषय हो सकता है मगर दुनिया जानती है कि राज्य के बस्तर व दंतेवाड़ा जैसे जिलों में नक्सलियों का समानान्तर शासन चलता है और चुनावों में यहां के आम लोगों की शिरकत नाममात्र की ही रहती है। इस स्थिति को बदलने में सफलता मिलने की जगह तस्वीर यह बनी है कि इन दोनों जिलों समेत अन्य नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से आम जनता शहरों की तरफ पलायन कर रही है और इनकी आबादी में लगातार गिरावट आ रही है। वास्तव में राज्य की यही सबसे बड़ी समस्या है।

इसके अलावा जिस तरह राज्य के किसानों को आधार कार्ड की अनिवार्यता ने जिस प्रकार बिचौलियों, मुनाफाखोरों के चंगुल में डाला है उसने राजनैतिक धरातल पर भारी कोहराम भी मचाया है। एक चुनावी समीकरण जिसे राजनैतिक पंडित या विश्लेषक समझ नहीं रहे हैं अथवा समझना नहीं चाहते हैं वह यह है कि सत्ता विरोधी भाव (यदि कोई है) तो वह केवल उसी के पक्ष में काम करता है जिसे सत्ता में पहले आने का अवसर न मिला हो। अजीत जोगी का राज इस प्रदेश की जनता देख चुकी है। उनके आदिवासी होने तक के बारे में भिन्न-भिन्न मत हैं। यहां चुनाव बिना विपक्षी एकता के हो रहे हैं अतः चुनावी लड़ाई भी ‘लड़ैयों’ के बीच ही रहेगी इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती।

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