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मुख्यमंत्री के चेहरे का विवाद

संसदीय चुनाव प्रणाली में चुनाव या मतदान से पूर्व ही मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने की परंपरा बहुत पुरानी नहीं है और इसका इतिहास बामुश्किल पांच दशक पुराना ही है।

संसदीय चुनाव प्रणाली में चुनाव या मतदान से पूर्व ही मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने की परंपरा बहुत पुरानी नहीं है और इसका इतिहास बामुश्किल पांच दशक पुराना ही है। वास्तव में इस प्रणाली के तहत मतदाता अपने निर्वाचन क्षेत्रों से केवल अपने प्रतिनिधि विधायक का चुनाव ही करते हैं। ठीक यही नियम लोकसभा चुनावों पर भी लागू होता है जहां लोग संसद सदस्य का चुनाव करते हैं परन्तु पिछले पांच दशक से विभिन्न राजनीतिक दलों में अपना-अपना मुख्यमंत्री का चेहरा आगे रख कर चुनाव लड़ने की प्रवृत्ति बलवती हुई है जिसका भारत की संवैधानिक संसदीय प्रणाली में कोई स्थान नहीं है क्योंकि किसी भी राज्य का मुख्यमंत्री उस राज्य के चुने हुए विधायकों के बहुमत वाले दल के विधानमंडल दल का नेता होता है। यह विधानमंडल चुने हुए विधायकों से ही बनता है। अतः किसी भी पार्टी के मुख्यमंत्री पद के चेहरे के व्यक्ति के नेतृत्व में उसकी पार्टी द्वारा चुनाव जीत जाने के बावजूद उसका चुनाव संवैधानिक तरीके से विधानमंडल द्वारा किया जाता है और उसकी सूचना राज्यपाल को दी जाती है जो उसे सरकार बनाने का न्यौता बहुमत की शर्त पर देते हैं। अतः सवाल यह है कि चुनावों से पूर्व ही क्या मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करना कोई आवश्यक शर्त है ? 
 चुनाव प्रणाली और संवैधानिक नियमों को देखते हुए ऐसा  करना बिल्कुल भी जरूरी नहीं है बल्कि दूसरे अर्थों में यह लोकतान्त्रिक भावना के प्रतिकूल कहा जा सकता है क्योंकि मतदाता के सामने सामूहिक रूप से राजनीतिक दल चुनाव लड़ते हैं जो विभिन्न चुनाव क्षेत्रों में अपने प्रतिनिधियों को उतारते हैं। लोग इन्हीं प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं और मुख्यमंत्री चुनने का अधिकार इन्हीं प्रतिनिधियों के हाथ में देते हैं। वास्तव में साठ-सत्तर के दशक में देश में यह बहस चली थी कि भारत में राष्ट्रपति चुनाव प्रणाली हो या संसदीय प्रणाली हो। इसकी शुरूआत उस समय भारतीय जनसंघ ने की थी और अपने 1968 के अधिवेशन में इसने राष्ट्रपति प्रणाली को लागू करने की मांग भी की थी। मगर इस मांग को उस समय राजनीतिक क्षेत्र से समर्थन नहीं मिला और बाद में स्व. इन्दिरा गांधी की व्यक्तिगत लोकप्रियता को देखते हुए स्वयं ही पार्टी ने इससे किनारा कर लिया। उस समय स्व. अटल बिहारी वाजपेयी का जनसंघ में डंका बजता था। मगर कालान्तर में जब कांग्रेस के इन्दिरा युग में इस पार्टी में विभिन्न राज्यों में मुख्यमंत्री इस तरह बदले जाने लगे जिस तरह किसी दफ्तर में पानी पिलाने वाले को बदला जाता है तो विपक्षी पार्टियों ने मुख्यमंत्री के चेहरे के साथ चुनाव लड़ना शुरू किया और क्षेत्रीय नेतृत्व को हैसियत देनी शुरू की। धीरे-धीरे यह क्रम आगे बढ़ता रहा मगर कोई भी पार्टी इसे सिद्धान्त रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं थी और समयानुसार अपनी आवश्यकता के अनुरूप राज्यों में मुख्यमंत्री बदलने को तत्पर रहती थी लेकिन अस्सी के दशक में आंध्र प्रदेश में जब स्व. एन.टी. रामराव के नेतृत्व में बनी तेलगूदेशम पार्टी ने स्व. इदिरा गांधी के केन्द्र में प्रधानमन्त्री रहते ही राज्य में अपना झंडा गाड़ा तो भारत के विभिन्न प्रदेशों में क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व बढ़ने लगा और उनके नेताओं के नेतृत्व को राज्य में स्थापित करने की गरज से चुनाव से पूर्व ही मुख्यमंत्री तय होने लगे परन्तु भारत की राजनीति का यह पड़ाव मात्र था क्योंकि इसके बाद देश के विभिन्न राज्यों में क्षेत्रीय दलों का उदय जाति व समुदाय और सम्प्रदाय विशेष को केन्द्र में रख कर होने लगा और पूरे उत्तर भारत में इन दलों का प्रभाव बढ़ने के साथ ही चुनावों से पहले ही यह तय होने लगा कि विजय की स्थिति में मुख्यमंत्री के पद पर केवल वही नेता आसीन हो सकता है जिसकी पहचान पारिवारिक व जातिगत विरासत से राजनीति में की जाने लगी हो। यही से भारत में परिवारवाद की राजनीति की जड़ें जमनी शुरू हुईं और मुख्यमंत्री का पद विशेष परिवार के सदस्यों की बपौती माने जाने लगा। 
उत्तर भारत के अलावा धुर पूर्वी राज्य ओडिशा में इस सिद्धान्त का परिपालन जमीनी स्तर पर हुआ कि राज्य के मुख्यमंत्री का पद स्व. बीजू पटनायक के पुत्र नवीन पटनायक के नाम पार्टी की विजय होने की स्थिति में लिख दिया गया परन्तु क्षेत्रीय क्षत्रपों की इस महन्तगिरी को तोड़ने के लिए राष्ट्रीय दलों कांग्रेस व भाजपा ने भी तोड़ निकालना शुरू किया और चुनाव से पूर्व इन क्षत्रपों के विरुद्ध अपने-अपने कद्दावर नेताओं के नाम घोषित करने शुरू किये जिसका असर मिलाजुला रहा परन्तु दूसरा तोड़ इन दलों ने यह भी निकाला कि अपने सत्तारूढ़ राज्यों में आसन्न चुनावों से पहले ही मुख्यमंत्री बदलने शुरू किये और लोगों को सन्देश देना शुरू किया कि चुनावों के बाद नया व्यक्ति ही मुख्यमंत्री रहेगा परन्तु समय-समय पर इसमें भी संशोधन किया गया। 
आज हम पंजाब में देख रहे हैं कि सत्तारूढ़ कांग्रेस के ही नेता मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित करने की मांग कर रहे हैं जबकि यहां श्री चरणजीत सिंह चन्नी को इस पद पर कुछ महीने पहले ही कैप्टन अमरिन्दर सिंह के स्थान पर बैठाया गया है। दूसरी ओर उत्तर प्रदेश में किसी को शंका नहीं है कि भाजपा के जीतने पर वर्तमान मुख्यमंत्री  योगी आदित्यनाथ ही इस पद पर रहेंगे और सपा-लोकदल के जीतने पर अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बनेंगे परन्तु अन्य तीन राज्यों उत्तराखंड, मणिपुर व गोवा में ऐसी  स्थिति नहीं है। इसकी वजह यही है कि संविधान के अनुसार विधानसभाओं में पहुंचने वाले चुने हुए विधायक ही अपने नेता अर्थात मुख्यमंत्री का चुनाव करेंगे।

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