सोशल मीडिया का शिकार होता बचपन

बच्चों में स्मार्टफोन की बढ़ती लत आम बात हो चुकी है। मोबाइल फोन के चलते बच्चे पढ़ाई के साथ-साथ फिजिकल एक्टिविटी से भी दूर हो रहे हैं।
सोशल मीडिया का शिकार होता बचपन
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बच्चों में स्मार्टफोन की बढ़ती लत आम बात हो चुकी है। मोबाइल फोन के चलते बच्चे पढ़ाई के साथ-साथ फिजिकल एक्टिविटी से भी दूर हो रहे हैं। इससे उनके स्वास्थ्य पर भी असर देखने को मिल रहा है। ऐसे में ऑस्ट्रेलिया ने 16 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया पर बैन लगाने का फैसला लिया है। ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री एंथनी अल्बनीज ने कहा कि यह सोशल मीडिया और टेक कंपनियों की जिम्मेदारी होगी और उन्हें सुनिश्चित करना होगा कि यूजर्स की उम्र सीमा के हिसाब से हो। उनका कहना था कि यह बच्चों के पेरेंट्स की जिम्मेदारी नहीं होगी। क्योंकि वे पहले से ही बच्चों की ऑनलाइन सिक्योरिटी को लेकर चिंतिंत हैं। ऐसे में अगर 16 साल से कम उम्र के बच्चे सोशल मीडिया इस्तेमाल करते हैं तो जुर्माना माता-पिता या युवाओं पर नहीं होगा। मोबाइल फोन के चलते बच्चे पढ़ाई के साथ-साथ फिजिकल एक्टिविटी से भी दूर हो रहे हैं। इससे उनके स्वास्थ्य पर भी असर देखने को मिल रहा है। बच्चों का मन बहुत नाजुक और चंचल होता है और सोशल मीडिया आसानी से उनकी सोच और व्यवहार को बदल सकता है। छोटी उम्र में बच्चे अच्छे और बुरे में फर्क नहीं कर पाते हैं और पेरेंट्स होने के नाते आपके लिए यह जानना जरूरी है कि सोशल मीडिया का बुरा प्रभाव भी होता है। बच्चों पर सोशल मीडिया के कुछ ऐसे नकारात्मक प्रभाव हो सकते हैं।

सोशल मीडिया इतना बड़ा है कि बच्चा कहां, कब और कैसे क्या जानकारी ले, आप उसे कंट्रोल ही नहीं कर सकते हैं। ऐसी स्थितियां बच्चों को अश्लील, हानिकारक या ग्राफिक वेबसाइटों तक पहुंचा सकती हैं, जो उनकी सोचने की प्रक्रिया को प्रभावित कर सकती हैं। सोशल मीडिया वेबसाइट के बीच साइबर बुलिंग भी बहुत बढ़ गया है। साइबर बुलिंग का खतरनाक असर पड़ सकता है। हर साल कई बच्चे साइबर बुलिंग का शिकार होते हैं। ऑस्ट्रेलिया में सबसे ज्यादा किशोर और युवा साइबर बुलिंग का शिकार होते हैं।

सोशल मीडिया के कुछ फायदे हैं लेकिन इसकी अति नुकसानदायक भी होती है। सोशल मीडिया पर बहुत ज्यादा समय बिताने का नकारात्मक असर बच्चों पर पड़ता है और अक्सर बच्चों को सोशल मीडिया की लत लग जाती है। सोशल मीडिया की लत के कई लक्षण होते हैं

वर्ष 2015 में ब्रिटिश साइकोलॉजिकल सोसायटी के अध्ययन में पता चला कि पूरे दिन सोशल मीडिया पर पोस्ट लाइक करने, मैसेज का जवाब देने और दोस्तों से चैट करते रहना का असर बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है। यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन की स्टडी में देखा गया है कि फेसबुक के इस्तेमाल से बच्चे अपनी जिंदगी से कम असंतुष्ट रहने लगे हैं। सोशल मीडिया तक अबाध पहुंच बच्चों को हिंसक बना रही है। उनके व्यवहार में बड़ा फर्क आ रहा है। एक तरफ बच्चों में अपराध की प्रवृत्ति बढ़ रही है, तो दूसरी ओर, सोशल मीडिया के लगातार इस्तेमाल से बच्चियों और किशोरियों के व्यवहार में फर्क आया है। सोशल मीडिया पर हिंसा, आक्रामकता, अश्लीलता और भयादोहन की शिकार लड़कियां ज्यादातर चुप रहती हैं। इससे उनकी पढ़ाई तो प्रभावित हो ही रही है, उनका व्यक्तित्व भी प्रभावित हो रहा है। अगर सोशल मीडिया तक उनकी पहुंच को रोका नहीं गया, तो आगे चलकर बड़ा नुकसान हो जायेगा।

यह भी याद रखना चाहिए कि बच्चों को सोशल मीडिया से दूर रखने की यूरोपीय संघ की कोशिश इससे पहले विफल हो चुकी है, क्योंकि तब टेक कंपनियों ने इसका विरोध किया था। देखने वाली बात यह है कि ऑस्ट्रेलिया की सरकार के प्रस्ताव का भारतीय अभिभावकों के एक बड़े वर्ग ने स्वागत किया है। उनका मानना है कि इंस्टाग्राम, यूट्यूब और एक्स का नशा बच्चों और किशोरों के मानसिक विकास और निर्णय लेने की क्षमता को प्रभावित कर रहा है। इसमें दो राय नहीं कि सोशल मीडिया का सबसे ज्यादा बुरा असर किशोरों और युवाओं पर पड़ रहा है। उनके लिए सोशल मीडिया दोधारी तलवार है।

इस बारे में अनेक रिपोर्टें आ चुकी हैं कि सोशल मीडिया किस तरह हमारे यहां बच्चों और किशोरों के व्यवहार और सोच को प्रभावित कर रहा है। सोशल मीडिया के लगातार इस्तेमाल से बच्चे हिंसक, चिड़चिड़े और आपराधिक प्रवृत्ति के हो रहे हैं। रील बनाकर यूट्यूब पर डालने की लत कितनी खतरनाक है, इसका पता रील बनाते वक्त हो रहे हादसों से चलता है। इस बार छठ पूजा पर नदियों के किनारे रील बनाते हुए कई किशोर डूबकर मर गये। मोबाइल एक नशा बन गया है। सुबह से लेकर रात तक किशोर और युवाओं की आंखें मोबाइल से चिपकी रहती हैं। घर में बच्चे तो बिना मोबाइल लिये खाना तक खाने से मना कर देते हैं। मां-बाप उनके समक्ष मजबूर व असहाय दिखते हैं, लेकिन सोशल मीडिया पर परोसी जा रही हिंसा और अश्लीलता से परेशान भी होते हैं।

शहरों के एकल परिवारों में बच्चों की पहुंच आसानी से मोबाइल और सोशल मीडिया तक हो जाती है जबकि ऐसा है नहीं। ग्रामीण भारत के बच्चों और किशोरों में भी इसकी लत लग चुकी है। गांवों की किशोरियां तक मोबाइल और सोशल मीडिया की आदी हो गयी हैं। बाहर कमाने गये तमाम लोग पत्नी से बात करने के लिए उसे एंड्रायड फोन थमा जाते हैं। इन बच्चों के लिए मोबाइल एक नशा है। कई बार रोते हुए बच्चों को चुप कराने के लिए मां-बाप उन्हें मोबाइल पकड़ा देते हैं, बच्चों में मोबाइल की लत से अनेक मां-बाप अवसाद तक में चले जाते हैं। उनकी समझ में नहीं आता कि बच्चों को इससे दूर रखने के लिए वे क्या करें? मौजूदा डिजिटल दौर में बच्चों और किशोरों के लिए सोशल मीडिया पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाने की बात भले ही युक्तिसंगत न हो, पर बच्चों पर पड़ रहे इसके दुष्प्रभाव को देखते हुए उन पर नजर रखने की जरूरत तो है ही। इसके लिए परिवार और समाज को ही आगे आना होगा।

जिस समय स्कूलों में उन्हें कम्प्यूटर या इंटरनेट का उपयोग सिखाया जाता है, उसी समय उन्हें यह भी बताया जा सकता है कि सोशल मीडिया का सुरक्षित और जिम्मेदारी के साथ उपयोग कैसे किया जाए। थोड़ी कोशिशें अभिभावकों को भी करनी पड़ेंगी। वे अपने बच्चों के स्टडी टाइम, गेम टाइम की तरह उनका स्क्रीन टाइम भी फिक्स कर सकते हैं। इसके अलावा बीच-बीच में बच्चों की मॉनीटरिंग करते रहना भी जरूरी होता है कि कहीं उनका ऑनलाइन व्यवहार उनके लिए नुकसानदेह तो नहीं बनने जा रहा या कि वे किससे इंटरेक्ट कर रहे हैं और किस किस्म की बातें कर रहे हैं। इसके अलावा वे उन्हें आउटडोर एक्टिविटीज में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। इससे बच्चों के जीवन और सोच में सकारात्मक बदलाव आएगा और उनके साथ कुछ अप्रिय होने का खतरा भी टल जाएगा।

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