भारत चीन के सैनिक कमांडरों के बीच 31 जुलाई को जो बैठक हुई है उसका नतीजा यही निकाला जा सकता है कि दोनों देश सीमा पर तनाव को कम करने का प्रयास जारी रखेंगे। मगर हकीकत यह है कि चीन के कब्जे में भारत की भूमि पड़ी हुई है जो उसने पिछले वर्ष ही ली थी। तिब्बत से लगती भारत की सीमा पर चीन ने सीना जोरी पिछले वर्ष मई महीने में ही की थी जिसमें जून महीने में दोनों सेनाओं के बीच खूनी संघर्ष भी हुआ था और भारतीय जवान शहीद भी हुए थे। इस शहादत को याद रखते हुए हर भारतवासी का कर्त्तव्य है कि वह यह जाने कि अब सीमा पर स्थिति क्या है और चीन के होश ठिकाने आये हैं कि नहीं। 31 जुलाई को हुई वार्ता का यह 12वां दौर था जिसका परिणाम ज्यादा उत्साहजनक नहीं कहा जा सकता है। मूल प्रश्न यह है कि तिब्बत के इलाके में चीन अपनी पूर्व स्थिति पर गया है अथवा नहीं। इसके साथ ही देपसंग के पठारी या मैदानी इलाके से उसने अपना कब्जा हटाया है या नहीं। इस इलाके में चीन 12 कि.मी. तक अन्दर घुस आया है।
यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि यह सब तिब्बत-भारत सीमा का इलाका है और तिब्बत वह स्वतन्त्र इलाका था जिसे चीन ने 1949 में अपने आजाद होने के बाद तुरन्त कब्जाया था। तिब्बत को कब्जा कर चीन ने सिद्ध कर दिया था कि उसका यकीन न केवल अपनी भौगोलिक सीमाओं का विस्तार करना है बल्कि आम जनता की स्वतन्त्रता का हनन करना भी है। तिब्बत के दलाई लामा की निर्वासित सरकार अभी भी हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला से काम करती है। इसके साथ यह भी हकीकत है कि 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण सिर्फ इसी वजह से किया था कि भारत ने तिब्बत के सरपरस्त दलाई लामा को और वहां की बौद्ध जनता को शरण दी थी। भारत ने तिब्बत को चीन का अंग मानने से हमेशा इनकार किया और तिब्बत की जनता के मौलिक व नागरिक अधिकारों की हमेशा वकालत की। मगर भारत ने तब ऐतिहासिक गलती की जब 2003 में स्व. वाजपेयी की सरकार ने तिब्बत को चीन का अंग स्वीकार कर लिया और बदले में जो पाया वह ठीक उसी प्रकार था जैसे किसी बच्चे को खिलौना देकर बहला दिया जाता है।
चीन ने सिक्किम को भारत का अंग स्वीकार किया जबकि सिक्किम 1974 में ही भारत का अभिन्न अंग बन चुका था और राष्ट्रसंघ ने भी इसे मान्यता प्रदान कर दी थी। मगर 2003 के बाद चीन ने अरुणाचल प्रदेश को अपना हिस्सा बताना शुरू कर दिया। अतः चीन के किसी भी झांसे में आये बगैर भारत को यह सुनिश्चित करना पड़ेगा कि चीन ने पिछले साल से जितनी जमीन भारत की दाबी हुई है वह वापस करे और अपनी सेनाओं को पुनः पुराने स्थानों पर तैनात करे। इसमें जरा सी भी गफलत की गुंजाइश नहीं है क्योंकि चाहे पेगांग झील का इलाका हो या देपसंग पठार का अथवा गोगरा या हाट स्प्रिंग्स का सभी से चीन को अपनी पुरानी जगह भेजना भारत का लक्ष्य होना चाहिए। यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि चीन ऐसा देश है जो कूटनीतिक जुबान कम और सैनिक जुबान ज्यादा समझता है क्योंकि इस देश के हुक्मरानों की सोच ‘सैनिक मानसिकता’ वाली है। अब यह देश आर्थिक शक्ति भी बन चुका है अतः इस मोर्चे पर भारत इसे सबक सिखा सकता है। हालांकि चीन के सकल विश्व व्यापार में भारत का हिस्सा बहुत कम है मगर जितना कुछ भी है उसे और घटा कर हम चीन पर दबाव बना सकते हैं मगर इसके उलट हम देख रहे हैं कि चीन का भारत के साथ व्यापार लगातार बढ़ रहा है और इसमें तनाव के चलते बजाय घटने के बढ़ोतरी हई है।
चीन ने जिस तरह भारत के बाजार पर कब्जा किया है उसे केवल चीनी माल पर अधिक आयात शुल्क लगा कर ही कम किया जा सकता है। चीनी माल का बहिष्कार करने की अपील कोरा ढकोसला है जिसका असर भारत की जनता पर नहीं हो सकता क्योंकि बाजार से कोई भी माल सस्ते से सस्ता पाना नागरिकों का अधिकार होता है। अतः चीन को सबक सिखाने के लिए हमें अपने सैनिक व आर्थिक मोर्चे पर कारगर उपाय करने होंगे और इस प्रकार करने होंगे कि इनका असर चीन को महसूस हो। मगर यह कार्य हमें इस एहतियात के साथ करना होगा कि हम चीन के खिलाफ अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका के नेतृत्व में बन रही गुटबाजी से अलग रहें। इसकी वजह यह है कि चीन अब हमारा सबसे निकट का ऐसा पड़ोसी है जिसके साथ हमारी सीमाएं छह स्थानों पर लगती हैं। अपनी सीमाओं को सुरक्षित रखते हुए हमें चीन को न्यायसंगत रहने का सबक पढ़ाना होगा। भारत जब 1947 में आजाद हुआ था तो ऐसी स्थिति नहीं थी क्योंकि बीच में तिब्बत देश था जिसके साथ भारत का गहरा सांस्कृतिक और रोटी-बेटी का व्यवहार था। हालांकि अमेरिका तिब्बत के प्रश्न पर चीन को अभी भी खड़ा रखना चाहता है और तिब्बत के लोगों के अधिकार की बात करता है परन्तु 2003 में हमने अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी मार ली है। यही वजह थी कि जब हाल ही में अमेरिका के विदेश मन्त्री श्री ब्लिंकन भारत यात्रा पर आये थे तो वह भारत स्थित तिब्बत की निर्वासित सरकार के प्रधानमन्त्री से भी मिले थे।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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