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डोकलाम पर चीन ने बदला रुख

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भूटान की सीमा पर स्थित डोकलाम पठार पर भारत व चीन की सेनाओं के बीच बढ़ते तनाव को शांत करने में सफलता मिल गई है। भारत ने अपनी सेनाएं इस तिराहा क्षेत्र से वापस बुला लेने पर रजामंदी दिखाई है, जबकि चीन ने भी कहा है कि वह यथानुसार अपनी सैनिक चौकसी में सुधार व संशोधन करेगा। इसके साथ ही चीन ने यह भी जोड़ डाला कि इस क्षेत्र की निगरानी करता रहेगा। असल में चीन दोनों देशाें के बीच हुई राजनयिक वार्ता से निकले शां​ितपूर्ण हल में भी अपना सिर ऊंचा रखना चाहता है आैर यह मानने को पूरी तरह तैयार नहीं है कि वह अपने सैनिकों की भारत की भांति ही वापसी कर लेगा, लेकिन इसके बावजूद इस क्षेत्र में तनाव कम होगा और इसे भारत की कूटनीतिक सफलता भी एक मायने में कहा जा सकता है, क्यों​​िक चीन डोकलाम पठार में सड़क बनाने की जिद पर अड़ा हुआ था और कह रहा था कि उसे अपनी सीमा में निर्माण कार्य करने से कोई नहीं रोक सकता, जबकि भूटान का कहना था कि डोकलाम पठार उसके नि​यंत्रण में है आैर कानूनी तौर पर उसी का कब्जा है, जबकि चीन दावा कर रहा था कि यह उस चुम्बी घाटी का हिस्सा है जो उसके कब्जे में है। इसके साथ ही चीन यह भी स्वीकार कर रहा था कि डोकलाम विवाद को सुलझाने के ​िलए उसके आैर भूटान के बीच वार्ता तंत्र स्थापित है इसके बावजूद उसने अपनी सेना को बुलडोजरों के साथ डोकलाम पठार पर निर्माण कार्य करने के आदेश दे दिये थे भारत और भूटान के बीच 1949 से चली आ रही विशेष सं​िध के तहत उसकी राष्ट्रीय सीमाओं की रक्षा की जिम्मेदारी भारतीय सेनाओं की ही बनती है जिसको लेकर भूटान ने भारत से गुहार लगाई और भारत ने अपने दायित्व का निर्वाह करते हुए चीन से धैर्य रखने के लिए कहा और अपनी सेनाओं को इलाके की निगरानी में लगा दिया। इसके साथ ही भारत ने चीन को चेताया कि डोकलाम में सड़क बनाने से उसकी राष्ट्रीय सुरक्षा को भी भारी खतरा पैदा हो सकता है, क्योंक प. बंगाल के दार्जििलंग से उत्तर-पूर्वी राज्यों को जोड़ने वाली संकरी सड़क चीन द्वारा बनाई जा रही सड़क से कुछ ही किमी दूरी पर रह जाएगी। इस आपत्ति पर चीन बहक गया और उसने भारत को गंभीर परिणाम भुगतने तक की धमकी दे डाली और सैनिक समाधान तक की बात कही, लेकिन भारत ने अपना धैर्य नहीं खोया और इस समस्या का कूटनीतिक हल तलाशना जारी रखा। जून महीने में शुरू हुई चीन की हठधर्मिता का अंत अब जाकर हुआ है। इसकी एक वजह और भी है कि आगामी तीन सितम्बर को प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ब्रिक्स ः भारत, रूस, ब्राजील, चीन, द. अफ्रीका संगठन की शीर्ष बैठक में हिस्सा लेने चीन जा रहे हैं। इस संगठन में ये केवल पांच देश ही हैं और इनके आपसी सहयोग से दुनिया में समानान्तर शक्तिशाली ध्रुव तैयार हो सकता है। ये पांचों ही देश विश्व की तेजी से विकास करती अर्थ व्यवस्था वाले देश हैं। इन पांचाें में से दो देशों की बीच यदि विवादों का स्तर सैनिक समाधान की हद तक पहुंचता है तो इस संगठन की विश्वसनीयता पर भी सवाल खड़ा किया जा सकता है इसलिए चीन का डोकलाम से सेना हटाने या उसकी तैनाती में संशोधन का प्रस्ताव स्वीकार करना बताता है कि कूटनीतिक रूप से वह कमजोर पाले में है। चीन पर भारत के साथ शान्तिपूर्ण संबंध बनाये रखने की ऐतिहासिक जिम्मेदारी भी है, क्योंकि 1962 में जब उसने अपनी सेनाएं हमारे असम के तेजपुर तक में भेज दी थीं तो उसे पं. नेहरू की विश्व स्तर पर छाई हुई शांतिदूत की छवि को स्वीकार करते हुए अंतर्राष्ट्रीय दबाव में पीछे हटना पड़ा था। कूटनीतिक मोर्चे पर यह कोई छोटी घटना नहीं थी बावजूद इसके कि भारत युद्ध में बुरी तरह हार गया था। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उस समय भारत के रुतबे का भी अंदाजा लगाया जा सकता है। मगर चीन इसके बाद पूरी तरह चैन से ही बैठ गया हो एेसा नहीं कहा जा सकता। बीच-बीच में वह अपनी दादागिरी दिखाने की धमक पैदा करने की कोशिश में रहा मगर हर बार उसे भारत की तरफ से सटीक उत्तर मिला चाहे वह 1967 हो या 1986। डोकलाम के मुद्दे पर भी वह भारत पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाना चाहता था मगर भारत ने उसे करारा सबक सिखाने के लिए ही भूटान के साथ ही अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंताओं से अवगत कराया और शान्ति बरतने के लिए मजबूर किया। हालांकि भारत की आजादी के दिन 15 अगस्त को चीन की सेनाओं ने तिब्बत की सीमा पर तैनात भारतीय सैनिकों से झड़प दिखाकर यह कोशिश जरूर की कि वह डोकलाम के अलावा दूसरे स्थानों पर भी मोर्चा खोल सकता है मगर उसकी यह चाल भी सफल नहीं हुई, ​क्योंकि पूरे सीमा क्षेत्र में शांति और सौहार्द बनाये रखने के कई समझौते से चीन बंधा हुआ है। डोकलाम विवाद सुलझ जाने के बावजूद हमें पूरी सावधानी के साथ चीन की नीयत पर पैनी निगाह रखनी होगी, क्योंकि अपने देश की राष्ट्रवादी लाबी को प्रसन्न करने के लिए चीन एेसी हरकतें बार-बार करता रहता है और भारतीय इलाकों पर अपना नाजायज दावा ठोकता रहता है।

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