भारत और चीन के बीच नियन्त्रण रेखा पर तनाव कम करने के लिए दोनों देशों के बीच सैनिक व कूटनीतिक स्तर की जो बातचीत जून 2020 के बाद से जारी है उसका अभी तक का नतीजा सन्तोषप्रद नहीं कहा जा सकता। इसका मुख्य कारण चीन की विस्तारवादी सोच है जिसके चलते इस देश की सेनाएं यदा-कदा नियन्त्रण रेखा को पार कर जाती हैं और बाद में बहाना बनाती हैं कि यह उनकी अवधारणा के चलते होता है। भारत के सन्दर्भ में चीन एक आक्रमणकारी देश है जिसने 1962 में भारत पर हमला उस समय किया था जब भारत उसकी दोस्ती की तरफ से आशवस्त था। उस समय उसकी सेनाएं असम के तेजपुर तक पहुंच गई थीं। चीन ने तब भारत की पीठ में छुरा घोंपते हुए भारत को यह सोचने पर मजबूर कर दिया था कि चीन का अपने पड़ोसी के बारे में नजरिया सैनिक शक्ति से बंधा हुआ है। वह अपनी सेना की ताकत पर भारतीय जमीन हड़पना चाहता है। उस समय पूरा देश सकते में आ गया था क्योंकि केवल तीन वर्ष पहले ही भारत में तत्कालीन चीनी प्रधानमन्त्री चाऊ-एन-लाई के आने पर 'हिन्दी-चीनी भाई-भाई' के नारे लगे थे। तब चीन ने भारत की पंचशील सिद्धान्त पर आधारित विदेश नीति के परखचे उड़ाकर एेलान कर दिया था कि वह अपनी भौगोलिक सीमाओं का निर्धारण स्वयं करेगा। उस समय देश के प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू जैसे दूरदर्शी राजनेता थे। उस समय दुनिया के लगभग सभी लोकतान्त्रिक देशों ने भारत का समर्थन किया था और अन्तर्राष्ट्रीय दबाव में मजबूर होकर चीन की सेनाओं को वापस लौटना पड़ा था मगर इसके बावजूद उसने भारत के बड़े भू-भाग को अपने कब्जे में ले लिया था। तब से दोनों देशों के बीच नियन्त्रण रेखा की अवधारणा जमीन पर उतरी क्योंकि 1914 में भारत-चीन-तिब्बत के बीच खिंची मैकमोहन रेखा को चीन ने मानने से इन्कार इस वजह से कर दिया था क्योंकि वह तिब्बत को एक स्वतन्त्र देश नहीं मानता था।
चीन ने 1949 में आजाद होते ही तिब्बत पर आक्रमण शुरू कर दिये थे और 1959 में इसका पूरा अधिग्रहण कर लिया था जिसकी वजह से तिब्बत के धार्मिक व राजनैतिक मुखिया दलाई लामा भारत में शरण लेने आ गये थे। पं. नेहरू ने दलाई लामा को भारत में अपनी निर्वासित सरकार बनाने की इजाजत दे दी थी। मगर 2003 में भारत के रुख में आमूलचूल परिवर्तन तब आया जब देश में भाजपा नीत वाजपेयी सरकार थी। इसने तिब्बत को चीन का स्वायत्तशासी अंग स्वीकार कर लिया और बदले में चीन ने सिक्किम को भारत का हिस्सा मंजूर कर लिया। परन्तु इसके बाद से चीन भारत के अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा करने लगा और वह अभी भी जारी है। चीन को सैनिक मोर्चे पर नियन्त्रित रखना जरूरी है उतना ही कूटनीतिक मोर्चे पर भी उसे काबू में रखना महत्वपूर्ण है। इसमें दो राय नहीं होनी चाहिए कि जून 2020 में जब चीन की सेनाओं ने पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी पर अतिक्रमण किया था तो भारत के प्रति उसके नजरिये में ज्यादा बदलाव नहीं था और वह मानता था कि उसकी सैन्य शक्ति के आगे भारत झुक जायेगा परन्तु हमारे बीस वीर सैनिकों ने अपनी शहादत देकर चीनी सेना को गलवान घाटी में ही सबक सिखाया। मगर चीन ने इसके साथ अपनी सैनिक रणनीति में आधारभूत परिवर्तन किया लद्दाख व अरुणाचल इलाके में छिटपुट तरीके से घुसपैठ करने की रणनीति अपनाई, जिसकी वजह से चीन की सेनाओं का मुकाबला करने के लिए सीमा पर भारत ने भी 50 हजार सैनिकों को तैनात कर रखा है। इसके बावजूद चीन नियन्त्रण रेखा पर अपनी छिट-पुट घुसपैठ करके भारतीय क्षेत्र के कुछ हिस्सों पर कब्जा किये हुए है। इस स्थिति का मुकाबला करने के लिए भारत की सेनाएं पूरी मुस्तैदी के साथ डटी हुई हैं और सन्देश दे रही हैं कि आज का भारत 1962 का भारत नहीं है। यह भी सनद रहे कि भारत-चीन सीमा विवाद को हल करने के लिए दोनों देशों ने एक उच्च स्तरीय वार्ता दल बनाया हुआ है जिसकी दो दर्जन से अधिक बैठकें हो चुकी हैं।
भारत की ओर से इसका नेतृत्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार करते हैं और चीन की ओर से उनके समकक्ष मन्त्री। इसके समानान्तर 2020 के बाद से दोनों देशों के सैनिक कमांडरों की बातचीत भी चल रही है। इनकी वार्ताओं के भी कई दौर हो चुके हैं जिनमें इस मुद्दे पर सहमति बन रही है कि दोनों देशों के बीच विवादास्पद विषयों को छोटे से छोटा किया जाये और नियन्त्रण रेखा पर शान्ति व सहयोग का वातावरण बनाया जाये। दोनों ओर से इन प्रयासों की सराहना तो हो सकती है जबकि चीन के नजरिये में अन्तर आये और वह अपने पड़ोसी देश भारत की हाल में ही कब्जाई गई भूमि पर दावा करना छोड़े और अपने सैनिकों को भविष्य में कभी भी अतिक्रमण न करने दे। निश्चित रूप से इसका हल कूटनीतिक मोर्चे पर निकलेगा और इस दिशा में जितनी भी प्रगति हो रही है उसका जायजा उच्चतम स्तर पर लिया जाये। अक्तूबर महीने में रूस के कजाक शहर में ब्रिक्स ( ब्राजील, रूस, भारत, चीन व दक्षिण अफ्रीका) का शिखर सम्मेलन हो रहा है जिसमें भाग लेने के लिए रूसी राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन ने प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी को निमन्त्रित किया है। अतः अक्तूबर माह में जब श्री मोदी कजाक जायेंगे तो उसमें उनकी भेंट चीनी राष्ट्रपति शी-जिन-पिंग से होगी। दोनों नेताओं के बीच इस अवसर पर अलग से द्विपक्षीय वार्ता होना भी संभावित है जिसमें सीमा मामले के अनसुलझे प्रश्नों पर भी विचार-विमर्श हो सकता है। फिलहाल विश्व की जो परिस्थितियां हैं उन्हें देखते हुए एेसी बैठक बहुत कारगर हो सकती है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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